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पैर दबाते दबाते नलिनी वहीं सो गई, रात के 2 बज चुके थे। सुबह उसको जल्दी उठना था, और उसका जी घबरा रहा था, और वह कई बातें सोच रही थी।
“नलिनी, सुन मुझे तो ह्रष्टपुष्ट बच्चे पसंद आते हैं, गोरा और मोटा बच्चा होना चाहिए, पंडित जी से पूजा का मुहर्त निकलवाऊंगी, और नाम तो मैंने सोच लिया ठाकुर जी के नाम पर ही नाम रखूंगी, माधव, कितना प्यारा नाम है, घर के लड्डू गोपाल भी ख़ुश होंगे।”
“माता जी आप क्यों फिक्र कर रहीं हैं, जो भी होगा या होगी उसका नाम आप ही रखोगी।”
“होगी? मतलब? देख नलिनी सुबह सुबह अपशब्द न निकाल, क्या पता कब तेरी ज़ुबान पर सरस्वती माता विराज रखीं हों, तूने तो मेरी सुबह ख़राब कर दी। राम-राम, तूने क्या कह दिया।”
बर्तन धोते धोते नलिनी चुपचाप यही सुनती रही, और मन को मसोस कर बोलती रही, “माता जी मैंने तो कोई गलत बात नहीं बोली। सब तो आपका है।”
धीरज, मैं पोते का मुंह देखे बिना ही मर जाऊंगी, लगता है नलिनी का ख़ुद का दिल भी यही कह रहा है कि पोती होगी।”
“माँ क्या हुआ? तू इसकी बात पर गौर मत किया कर। यह ख़ुद गवार और ग़लत सोच रखती है।”
“ओए, सुन तू हर बात में इतनी नेगेटिव बातें मत बोला कर, बच्चे पर ग़लत असर पड़ेगा, समझ जा नहीं तो मैं समझाऊंगा तो हाथ या पैर टूटेंगे। वैसे भी यह विदेश है यहाँ तेरा कुछ अता-पता भी नहीं चलेगा। कनाडा है ये और यहाँ तरीके से रहना सीख ले।”
“राम-राम! देख नलिनी तेरी बातों से सुबह सुबह ही क्लेश हो गया। शर्म कर, और जा जाकर गोंद पीस, और हाँ, मखाने डालने मत भूलियो।”
“जी माता जी जाती हूँ, कपड़े और आचार ऊपर धूप में सुखा कर आती हूँ , फिर सारी चीज़ें पीस लूँगी।”
“छत पर ही डोलती रहेगी क्या? नीचे आ, सूरज सर पर चढ़ आया रोटी तो दूर पानी तक नहीं मिला।”
“माताजी राहुल का फोन आ गया था, उससे बात कर रही थी, मम्मी और अपनी कहानी बता रहा था। बता रहा था भारत में भी कोरोना ने तहलका मचाया हुआ है।”
“तुझे हज़ार बार समझाया है मुझे तेरे मायके वाले बिल्कुल भी पसंद नहीं, कभी कभार कर ली बात, ये तो तू हर आए दिन फोन से ही चिपकी रहती है।”
“माता जी ध्यान रखूँगी, आप गुस्सा न करिए, अच्छा आपके लिए पानी गर्म कर दूं सिकाई के लिए? अभी तो 10 बजे हैं उसके बाद खाना पका लूंगी।”
“ठीक है, पानी लाकर मेरी सिकाई कर दे।”
“जी माता जी, अभी आई बस।”
नलिनी 5 माह के गर्भ से थी, और फिर भी दिन भर सारा काम किया करती, कभी कभी उसकी सास काम करवाने के चक्कर में यही भूल जाती थी के नलिनी पेट से है। घर मे काम करने के लिए कोई रियायत नहीं, हाँ, मगर पोता चाहिए, वो भी तन्दरुस्त और गोरा, इसमें चाहे बहु जी जान ज़ोखिम में चली जाए।
“नलिनी देखो शायद कल हमको डॉक्टर के यहाँ जाना है, जाँच के लिए, रेडी रहना सुबह, ऐसा करना सारा काम सुबह जल्दी उठकर निबटा लेना, और आवाज़ न हो किसी भी चीज़ की, वरना माँ उठ जाएगी, नींद में खलल पड़ेगा, और हाँ दिन का खाना भी पका कर ही चलना, न जाने वहाँ कितना समय लगेगा। मैं सोने जा रहा हूँ, थोड़ा सा हाथ मेरे पंजे पर लगा देना पैर के, बहुत थकान हो रही है।”
“जी, बिल्कुल। आज की गोभी कैसी बनी थी?”
“सच बोलूं या झूठ?”
“सच।”
“सच, में बिल्कुल स्वाद नहीं था, मगर जो निवाला तुम्हारे हाथ से खाया उसमें जान तो थी।”
“चलो अगली बार और अच्छी बनाऊँगी।”
“थोड़ा ज़ोर का हाथ चलाओ, दबाने में मज़ा नहीं आ रहा है।”
पैर दबाते दबाते नलिनी वहीं सो गई, रात के 2 बज चुके थे। सुबह उसको जल्दी उठना था, और उसका जी घबरा रहा था, और वह सोच रही थी, के यहाँ विदेशों में कैसे होते होंगे हॉस्पिटल? कुछ भी समझ नहीं आ रहा आदि। यह सोचते सोचते नलिनी सो गई।
“सुबह से कमर में दर्द है धीरज, थोड़ा धीरे चलो।”
“धीरे जाना है तो ख़ुद चली जाओ, मुझे कोई शौक नहीं तुम्हारे साथ जाने का, मुझे बस मुन्ने की फिक्र है। समझी?”
“इतनी लंबी लाइन? धीरज मेरा तो जी बैठा जा रहा है।”
“नलिनी! तुम अपने बाप के घर से एक अस्पताल क्यों नहीं ले आईं? चुप से खड़ी रह, मैं सिगरेट पीकर आता हूँ।”
नलिनी वहाँ खड़े खड़े अंदर ही अंदर रो रही थी, उसको महसूस हो रहा था के वह सिर्फ अपने माँ बाप जी गुड़िया है और यहाँ सिर्फ नौकर और बच्चे पैदा करने के लिए एक स्त्रोत।
“नलिनी तुमको कमर में दर्द सिर्फ और सिर्फ कमज़ोरी की वजह से है, तुम टेबल पर लेट जाओ, मैं अल्ट्रासाउंड कर देती हूँ। तुम तो पढ़ी लिखी लगती हो और इतना घबराती हो?” (वहाँ की डॉक्टर ने इंग्लिश में बात की। और नलिनी ने इंग्लिश में ही जवाब दिया )
डॉक्टर ने नलिनी का डर भगाने और उसका ध्यान भटकाने के लिए बातें शुरू की, “अच्छा! नलिनी तुम कितना पढ़ी हो? क्या करती हो?”
“जी, मैं साइंस से ग्रेजुएट हूँ और बी. एड भी किया है प्रथम श्रेणी से।”
“वाह! तो तुम टीचर हो?”
“नहीं नहीं, घर पर इतना काम रहता है, और दूसरा काम का तो सोच भी नहीं सकती। माता जी और धीरज का ही ध्यान रख पाती हूँ।”
“अरे! इतनी पढ़ी लिखी हो। थोड़ा अपना भी ख़्याल रखो। देखो नलिनी अच्छा स्वास्थ्य है तो सब कुछ है।”
“जी, बस शादी के बाद समय ही नहीं मिलता। मुझे बहुत सारे ऑफर्स आते हैं ,यहाँ तक की यहाँ कनाडा में भी मगर समय की कमी के कारण मैं पढ़ा नहीं पाती।”
“अरे वाह! बच्ची की स्तिथि और विकास बिल्कुल ठीक चल रहा है। मुबारक हो।”
“बच्ची? मतलब?”
“मतलब खिलौने की तैयारी करो। चलो नलिनी खड़ी हो जाओ, रुमाल से अपना पेट साफ कर लो। रिपोर्ट्स मैं अभी देती हूँ।”
बाहर के देश में लिंग जाँच करवाना कोई जुर्म नहीं है।
“नलिनी ? क्या हुआ? उठी नहीं तुम? ठीक तो हो?” नलिनी कहाँ ठीक होती? उसके अंदर वो तूफान आने की दस्तक दे रहा था, जो समाज में फैली पितृसत्तात्मक सोच को एक बहाव देता है, एक परिवार के उजड़ने का ग़म, एक नारी की दुर्दशा, के उसने बेटी को क्यों जन्म दिया?
“जी, मैडम मैं ठीक हूँ।”
“ध्यान रखना अपना। नेक्स्ट पेशेंट को भेजो लिंडा।”
“बहुत देर लग गई आज?”
“जी, बस मैडम ने 2,3 बार ध्यान से चेकअप किया।”
“मुन्ने के लिए कुछ बताया”?“धीरज मुन्ने के लिए तो कुछ नहीं बोली मैडम, बस इतना बोली बच्ची अच्छा विकास कर रही है।”“क्या? क्या बोला तूने? रुक मैं अभी जाकर डॉक्टर से बोल कर आता हूँ क्या बोली वो?”
धीरज की बौखलाहट साफ साफ बता रही थी के उसको समाज में महिला नहीं पुरुष का दबदबा चाहिए, उसको पुरुषवाद का साम्राज्य चाहिए। उसकी लड़खड़ाती चाल सिर्फ एक पुरूष की नहीं थी , वो चाल चीख़ चीख़ कर आवाज़ उठा रही थी कि समाज में महिलाओं की क्या स्तिथि है? और उसको और उसके अस्तित्व को कितना कुचला गया है।
“मैडम अपने क्या बोला नलिनी से? बच्ची? आप किस बात की डॉक्टर हैं? जब उसके लड़का है तो आप उसको लड़की बनाने पर क्यों तुली हुई हैं?”
“आप अपने होश संभालिए और जाइये इस कमरे से। वो।एक।बच्ची की माँ बनने वाली है। आपको तो ख़ुश होना चाहिए।”
यह सुनकर वो बिना कुछ बोले वापस आ गया।
“देख! नलिनी यह जो भी है तेरे पेट में मैं इसको नहीं अपनाऊंगा। मेरी तो सारी ख़्वाहिशें धरी की धरी रह गई। माँ को क्या जवाब दूँगा? तू इस बच्चे को ख़त्म कर दे। नलिनी अगर यह दुनिया में आई तो मैं और माँ यह सब झेल नहीं पाएगी। अभी चल डॉक्टर के पास, कोई न कोई रास्ता तो निकलेगा।”
“धीरज यह तुम क्या बोले जा रहे हो? यह मेरी कोख़ में है, लड़का और लड़की से क्या फर्क पड़ता है। माता जी को मैं सम्भाल लूँगी।”
“मेरी बात हल्के में मत ले, मैं ज़रा ऑफिस जा रहा हूँ तू घर जा और निबटा माँ को। मैं तो यही सलाह दूंगा तू मायके चली जा। वहीं इसे ख़त्म करवा दियो, इसके अलावा कोई रास्ता नहीं। देख! नलिनी मैं तो इसको नहीं अपनाऊंगा। आगे तू देख क्या करना है।”
“धीरज! वह कन्या है, औरत है। यह उसी जाती की है जिसको तुम दीवाली वाले दिन बहुत उत्सुकता से पूजते हो, यह वही कन्या है जिस का तुम नौ दिन व्रत रखते हो, यह वही कन्या है जिसके लिए तुम कई किलोमीटर की चढ़ाई कर के मंदिर को दर्शन करने जाते हो। धीरज खुद सोचो तुम, के तुम क्या कर रहे हो?”
“ख़त्म तेरी बात? और ज्ञान मुझे मत बाँट, और तू घर निकल चल। वरना यहीं तेरे हाथ पैर तोड़ कर यहीं बैठा दूँगा। और सुन अपनी आँखों को नीचे रखा कर मेरे सामने, और तेरी औकाद नहीं मेरे सामने ऊंचा बोलने की।”
“यह बात बोलते ही धीरज अपने सीने पर मनो भर पानी का बोझ लेकर वहाँ से चला जाता है, और जाते जाते नलिनी की सारी रिपोर्ट्स नदी में फेंक जाता है, और कहता है, ले तू और तेरी कोख का बच्चा, दोनो की यही जगह है।”
4 किलोमीटर पैदल का रास्ता और नलिनी अकेले, पैसे का एक ज़र्रा भी नहीं, कोख़ में 5 माह का बच्चा, और दिल पर? एक ऐसा बोझ जिसका कोई सानी नहीं, वो दर्द जिसकी कोई सीमा नहीं। जैसे तैसे नलिनी घर को पहुंचती है।
“सवा घण्टे पहले धीरज का फोन आया था, तब पूछ रहा था, के नलिनी घर पहुंची? कहाँ थी तू?”
“माता जी पैदल आई हूँ।”
“चल छोड़ तू इसको ऐसा कर लस्सी मथ कर ला, बहुत दिल कर रहा है।”
“जी लाती हूँ।”
रात को धीरज घर आता है, और आकर सारी व्यथा अपनी माँ को बताता है, माँ और बेटे दोनो ने निश्चय किया बच्चे को ख़त्म करवाने का, और अगर पैदा भी हुई तो उसको कहीं फैकवाने का फैसला लिया गया। नलिनी को बुलाया गया और सारी बातें सामने रखीं गईं।
“देख नलिनी हमको तो किसी भी हालत में लड़का ही चाहिए, धीरज की पहली औलाद तो लड़का ही चाहिए मुझे। अगर बेटा दे सकती है तो ठीक, वरना ……”
“वरना क्या? माता जी… बेटा बेटी करना मेरे वश की बात थोड़ी न है।”
“वरना यह है कि तलाक का रास्ता है बस।”
“ठीक है माता जी मुझे समय दो, मैं सुबह आपको जवाब दूँगी।”
“ठीक है सुबह अपना फैसला बता दियो।”
सुबह भोर के समय नलिनी उठी और घर का एक भी काम नहीं किया, और माँ के उठने का इंतेजार करने लगी।
“हाँ , नलिनी, अरी ओ नलिनी, बिस्तर उठा मैं उठ गई, और दूध उबाल, उसके बाद पानी गर्म को रख दियो।”
“माता जी मैं आँगन में बैठी हूँ। आपको और धीरज को अपना फैसला सुनाने आई हूँ।”
“हाँ, हाँ आती हूँ। धीरज ओ धीरज बाहर आँगन में आजा।”
“माता जी मैंने फ़ैसला लिया है कि मैं इस बच्ची को जन्म दूँगी, और रही शादी को बचाने की बात तो मैं इस शादी का कोई मोल नहीं समझती जिसमें लड़का लड़की का भेदभाव हो। धीरज, तुमने मेरी और मेरी बेटी की जगह एक गंदा नाला बताया था। मगर ध्यान रखना मैं तुमको किसी नाले और गन्दे कूड़े के ढ़ेर में जगह नहीं दूँगी, वो इसलिए के यह जगह भी तुम्हारे लायक नहीं और इससे गंदी जगह अगर कोई होगी वो भी तुम्हारे जैसी सोच वाले के लिए नहीं होगी। क्योंकि धरती का कोई भी हिस्सा उस लायक नहीं जहाँ तुम जैसे लोगों के लिए जगह हो। भगवान ने तुम्हारे लिए नरक बनाया है। उसकी तपिश में तुम यही बोलना, मुझे बेटा चाहिए, बस मुझे बेटा चाहिए।”
इतना कहकर नलिनी घर से निकल पड़ी, और आँखों में आंसुओं का तूफ़ां था, साड़ी का आँचल ढलका हुआ और बाल बिखरे हुए, मगर एक चीज़ तो थी जो उसके पास सबसे क़ीमती थी, वह था उसका आत्मविश्वास और साहस…
मूल चित्र : Pexels
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