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अनुष्का शर्मा की फिल्म बुलबुल बीसवीं सदी के भारत में बाल विवाह, बेमेल विवाह, घरेलू हिंसा, प्रतिशोध और बलात्कार की पीड़ा की कहानी है।
नेटफिलिक्स पर कल अनुष्का शर्मा के प्रोडक्शन के बैनर तले एक हॉरर और थ्रिलर फिल्म रिलीज हुई है जिसका नाम है बुलबुल। जिसमें चुड़ैल का डर है तो बचपन का प्यार और इसके साथ ही जीवन की वीभत्स सच्चाई। मासूम से नाम वाली कमोवेश ढ़ेड घंटे की अनुष्का शर्मा की फिल्म बुलबुल महिलाओं के उस पीड़ा को अपने केंद्र में रखती है, जिसको लेकर बंगाल के भद्र समाज में ईश्वरचंद्र विधासागर जैसे समाजसुधारको ने लंबे संघर्ष के बाद कानून बनाया और बाद में महिला आंदोलनों ने उसको निरंतरता दी।
20वीं सदी के भारत में छोटे घरों में ही नहीं बड़ी हवेली में भी महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की थी। यह बात किसी से छुपी नहीं है। बड़े घराने के लोग इसे “बड़ी हवेली में बड़े राज होते है” कह कर दबाते थे और छोटे घरों में या तो महिला को त्याग देते थे या चरित्रहीन बता कर बदनाम कर देते थे।
अनुष्का शर्मा की फिल्म बुलबुल की कहानी 19वीं सदी के बंगाल से शुरू होती है जहां बुलबुल(तृप्ती डिमरी) का बाल विवाह ही नहीं बेमेल विवाह भी अपने उम्र से काफी बड़े ठाकुर महेंद्र(राहुल बोस) से कर दिया जाता है। बुलबुल को यह गलतफहमी हो जाती है कि उसका ब्याह उसके हमउम्र सत्या से हुआ है, इसलिए वह सत्या (अविनाश तिवारी)के साथ अधिक घुली-मिली रहती है। परिवार में महेंद्र का हमशक्ल जुड़वा भाई इंद्रनील जो मानसिक रूप से अस्थिर और जोड़-तोड़ करने वाली पत्नी विनोदिनी(पाओली डैम) भी है, जो बुलबुल से बड़ी है पर पितृसत्ता की शिकार है।
बुलबुल और सत्या का अधिक घुलना मिलना महेंद्र को खटकता और वह सत्या को लंदन पढ़ाई करने भेज देते है। परंतु, महेंद्र अपने अंदर शक का खत्म नहीं कर पाते और बुलबुल का पीटते है और फिर घर छोड़कर चले जाते है।
लंबे समय बाद जब सत्य वापस लौटता है तो हवेली काफी बदली सी लगती है। हवेली पर अब किसी प्रेत का साया है। सत्या को इन सब से निपटना है। सत्या जब इससे निपट लेता और प्रेत को खत्म कर देता है तब उसे स़च का पता चलता है और वह हवेली हमेशा के लिए छोड़ कर चला जाता है।
बुलबुल में चुड़ैल कौन है, उसका अंत कैसे होता है यह जानने के लिए बुलबुल को जरूर देखनई चाहिए। बुलबुल की कहानी बीसवीं सदी के भारत में बाल विवाह, बेमेल विवाह, घरेलू हिंसा, घरेलू नातेदारी, प्रतिशोध और बलात्कार की पीड़ा की कहानी है। इसलिए एक संवाद में बड़ी बहू कहती है, “तुम सारे मर्द एक जैसे होते हो।”
फिल्म में हांरर और सस्पेंस के साथ जिस तरह से बीसवीं सदी के भारत में महिलाओं की समस्याओं को पिरोया गया है, वह कमाल का है। तृप्ति डिमरी लीड रोल में है और अपने अभिनय से ध्यान खींचने में कामयाब हुई। राहुल बोस भी कमाल के अभिनय में है। अविनाश तिवारी भी अच्छा काम करते नज़र आते है पर प्रभावित नहीं करते है। सुदीप (परमब्रत चट्टोपाध्याय) चिकित्सक के रूप में अपन अभिनय के साथ न्याय करते दिखते हैं।
निर्देशक अन्विता दत्ता अपनी पहली फिल्म में अपने निर्देशन से दर्शकों को बांधने में कामयाब हुए है। एक बार फिल्म शुरू होती है तो वह दर्शक को बांधे रखती है। निर्देशक अन्विता दत्ता ने फिल्म में कई दृश्यों में मिथकीय प्रतीकात्मक सकेतों का प्रयोग किया है जो लाजवाज है मसलन देवी काली का संदर्भ उनके सबसे डरावने अवतार में है और एक प्रमुख हत्या उस दिन होती है जिस दिन देवता की पूजा की जाती है। घरेलू हिंसा को बीमार करने के एक दृश्य में, रावण का एक चित्र जो सीता के अपहरण के दौरान जटायु के पंख को काटता है। बुलबुल अन्विता दत्ता की एक अंधेरे, खून से लथपथ, मुक्त-तैरती नारीवादी कल्पना कही जा सकती है जो अपने मनोरंजन में बांध लेती है।
फिल्म के कलाकार : तृप्ति डिमरी, पाओली बांध, राहुल बोस, अविनाश तिवारी, परमब्रत चट्टोपाध्याय,
निर्देशक : अन्विता दत्त
मूल चित्र : Screen Shot Of Bulbul, YouTube
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