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बासु चटर्जी की फिल्में और उनकी नायिकाएं मुझे आज भी प्रासंगिक लगती हैं!

बासु चटर्जी ने अपनी फिल्मों में ह्यूमर के साथ-साथ कई सामाजिक मुद्दों को भी दर्शाया, उनकी कई फिल्मों में महिलाओं के किरदारों को भी बखूबी लिखा गया था।

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बासु चटर्जी ने अपनी फिल्मों में ह्यूमर के साथ-साथ कई सामाजिक मुद्दों को भी दर्शाया, उनकी कई फिल्मों में महिलाओं के किरदारों को भी बखूबी लिखा गया था।

वो हंसाते थे, गुदगुदाते थे और अपनी सरल लेकिन दमदार कहानियों से बहुत कुछ कह जाते थे। फिल्में बनाना कभी उनके लिए पैसा कमाने का ज़रिया नहीं था उन्हें तो बस अपनी कहानियों को कहना था। बासु चटर्जी (1930-2020) का दैहिक सफ़र तो समाप्त हो गया लेकिन अपने 90 साल के जीवन में इस जौहरी ने कई नायाब हीरे तराशे।

फिल्म निर्देशक, स्क्रीनराइटर, डायलॉग राइटर और प्रोड्यूसर बासु चटर्जी ने 4 जून 2020 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

कलाकार का काम ही उसकी पहचान होता है, वो दुनिया से जाकर भी अपने काम के ज़रिये लोगों के दिल में बस जाता है। तो आइए बासु चटर्जी की याद में उनकी फिल्मी दुनिया की किताब के कुछ पन्ने फिर से पढ़ते हैं। बासु चटर्जी ने अपनी फिल्मों में ह्यूमर के साथ-साथ कई सामाजिक मुद्दों को भी दर्शाया। उनकी कई फिल्मों में महिलाओं के किरदारों को भी बखूबी लिखा गया था। वो कभी एक ढर्रे पर नहीं चले बल्कि अपनी प्रतिभाशाली कलम से दिल छू जाने वाली सरल और परिपक्व कहानियों को उकेरा।

फिल्म मेकिंग को अपना बनाने से पहले में बासु चटर्जी ने पहले कुछ महीने मुंबई के एक मिलिट्री स्कूल में लाइब्रेरियन का काम किया। उनकी दूसरी नौकरी थी ब्लिट्स पत्रिका में बतौर कार्टूनिस्ट जहां उन्होंने 18 साल गुज़ारे। फिर उन्होंने असिस्टेंट डायरेक्टर का काम किया और फिल्म मेकिंग की सभी बारिकियों को क़रीब से जाना। फिल्में देखने का शौक उन्हें हमेशा से था लेकिन सिनेमा के प्रति उनकी दिलचस्पी तब बढ़ी जब वो फिल्म सोसाइटी मूवमेंट से जुड़े। यहां देश-विदेश की कई फिल्में दिखाई जाती थी जिससे बासु चटर्जी को यह मालूम हुआ की सिनेमा सीमित नहीं बल्कि एक समंदर है।

बतौर निर्देशक उनकी पहली फिल्म थी 1969 में बनी ‘सारा आकाश’। बासु केवल फिल्मों तक सीमित नहीं रहे उन्होंने टीवी जगत को भी रजनी और बिना टोपी वाले जासूस ब्योमकेश बक्शी जैसे यादगार किरदार और कहानियां दी। उनका जीवन भर का काम एक लेख में संजोना असंभव सा है इसलिए चंद कहानियों के बारे में लिख रही हूं।

बासु दादा की कहानियां जो आज भी कुछ कहती हैं

रजनीगंधा

मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर आधारित ‘रजनीगंधा’ प्रेमत्रिकोण के मध्यमवर्गीय संदर्भ को कहती हुई कहानी है। इस फिल्म की नायिका ने उस समय बनने वाली हिंदी फिल्मों की नायिकाओं से इतर छवि पेश की थी। 1974 में बनी इस फिल्म में लव ट्रेंगल का एंगल भी नया था।

कहानी में तीन मुख्य पात्र दीपा (विद्या सिन्हा), नवीन (दिनेश ठाकुर) और संजय (अमोल पालेकर) हैं। दिल्ली की पढ़ी-लिखी दीपा लंबे समय से संजय के साथ रिश्ते में है और शादी करना चाहते हैं। लेकिन एक इंटरव्यू के सिलसिले में जब दीपा मुंबई जाती है तो उसकी मुलाकात नवीन से होती है। एक समय था जब दीपा और नवीन साथ थे लेकिन कुछ परिस्थितियों से उन्हें ज़िंदगी के अलग-अलग रास्तों पर धकेल दिया। दोबारा मुलाकात पर दीपा को एहसास होता है कि शायद नवीन के लिए अभी भी उसके दिल में पहले जैसी जगह है। दीपा का दिल अब दो नावों में सवार है, वो मझधार में फंस जाती है या पार हो जाती है इसके लिए आप फिल्म ज़रूर देखें। इस कहानी में प्रेमत्रिकोण मध्यमवर्गीय रोमांस, उम्मीद को बारीकी से पेश किया गया है।

चमेली की शादी

https://www.youtube.com/watch?v=aj1RAI3hHqo

अक्सर महिलाओं के लिए कॉमेडी रोल कम ही लिखे जाते हैं लेकिन कई अरसे पहले 1986 में बासु चटर्जी ने अनिल कपूर और अमृता सिंह को लेकर एक कॉमेडी फिल्म बनाई। बॉक्स ऑफिस पर ये फिल्म उस समय तो ठीक-ठाक चली लेकिन बाद में क्रिटकली एक्लेम्ड हुई। आपको आज भी ये फिल्म देखने पर मासूम सी मुस्कुराहट और गुदगुदी महसूस होगी। इस फिल्म ने हल्के-फुल्के अंदाज़ में देश के जातिवाद पर तीखी चोट की।

कहानी है चंद्रदास (अनिल कपूर) की जो रेसलर बनना चाहता है और कहीं से एक दिन टकरा जाता है चमेली (अमृता सिंह) से। मुलाकात होती है, बात बढ़ती है और प्यार हो जाता है। लेकिन दोनों की अलग-अलग जाति होने की वजह से मुश्किल बढ़ जाती है और शुरू हो जाती है प्यार और जाति की जंग। कहानी किसी पास के मोहल्ले सी लगती है फिर भी जातीयता के बंधनों से मुक्ति का गहरा संदेश दे जाती है।

चमेली इस फिल्म की असली हीरो है जिसका किरदार एक ऐसी लड़की का है जो बिना डरे अपनी बात खुल कर रखती है। फिल्म बनने के लिए कुछ सालों बाद चमेली की भूमिका को भारतीय सिनेमा में ऐसा पहला किरदार माना गया जिसने खुलकर स्त्री इच्छाओं और उनके महत्व की बात की। चंचल, हेडस्ट्रांग और बेबाक चमेली की शादी में आपको ज़रूर जाना चाहिए।

कमला की मौत

https://www.youtube.com/watch?v=a8wbbarcYNQ

1989 में बनी यह फिल्म बासु चटर्जी की बनाई बेहतरीन फिल्मों में से एक थी। 80 के दशक में बनी इस फिल्म ने प्यार की कशमकश, विवाह से पूर्व शारीरिक संबंधों, अनचाहे गर्भ पर बिना शर्माए बात की। इसे देखने के बाद आपको ज़रूर लगेगा कि ये अपने समय से कहीं आगे की सोच रखती है शायद यही वजह है कि उस वक्त यह उतनी नहीं सराही गई जितनी की ये हकदार थी। इस फिल्म का शीर्षक ही इस फिल्म की कहानी है।

20 साल की लड़की कमला (कविता ठाकुर) चॉल की छत से कूदकर अपनी जान दे देती है क्योंकि वो शादी से पहले ही मां बनने वाली है और उसका प्रेमी उसे धोखा दे देता है। कमला तो चली जाती है लेकिन चॉल में रहने वाला सुधाकर पटेल (पंकज कपूर) का परिवार अपने आपको कमला की मौत से जोड़कर देखने लगता है।

इसके बाद शुरू होता है परिवार के कई राज़ का खुलना। सुधाकर पटेल की दो बेटियां चारू (मृणाल देव) और गीता (रूपा गांगुली) इस वाक्या के बाद अपने-अपने प्रेम संबंधों को लेकर चिंता में चली जाती हैं जिसके बारे में उनके घरवालों को मालूम नहीं है। कमला की मौत के बात दोनों बहनें एक-दूसरे से अपना डर साझा करती हैं। दूसरी तरफ़ सुधाकर की पत्नी निर्मला (आशालता) भी अपने अतीत के गलियारे से गुज़रने लगती हैं जब युवावस्था में उन्होंने भी ख़ुद की जान लेने की कोशिश की थी। बाकी परिवार की तरह सुधाकर पटेल को भी अपना पहला प्यार और उसके साथ जुड़े कई राज़ फिर से याद आ जाते हैं।

ये फिल्म भारतीय समाज में दीमक की तरह लगे हुए झूठे पाखंडों की पोल खोलती है।

खट्टा मीठा

हर रिश्ते में कुछ अच्छी और कुछ कम अच्छी बातें होती हैं। बासु दा ने इस फिल्म में उसी खटास और मिठास को घोला है। इस फिल्म का प्लॉट भी बाकी फिल्मों से काफ़ी हटकर था। एक पारसी व्यक्ति है होमी मिस्त्री (अशोक कुमार) जिनकी पत्नी अब इस दुनिया में नहीं है और वो अपने घर में 4 बेटों के साथ रहता है। ज़िंदगी के एक पड़ाव पर उन्हें किसी साथी की ज़रूरत महसूस होती है और वो दोबारा शादी करने का फ़ैसला करता है।

होमी का दोस्त उसे एक विधवा पारसी महिला नरगिस (पर्ल पद्मसी) के बारे में बताता है जिसकी एक बेटी और 2 बेटे हैं। सोचिए जब सभी को इस नए रिश्ते के जुड़ने की बात पता चलेगी तो क्या होगा। कैसे दोनों परिवार एक दूसरे से मिलते हैं, बात आगे बढ़ती है या नहीं, बच्चे अपने-अपने माता-पिता की ज़रूरत को समझ पाते हैं या नहीं। बस रिश्तों की इसी ऊन से बुनी गई है ये फिल्म। हमारे समाज में आदमी या औरत का विधवा होने के बाद दोबारा विवाह के बारे में सोचना आज की सदी में भी कई लोगों को खटक जाता है। पुरुषों को दया की नज़र से देखा जाता है और महिलाओं को तो जाने क्या-क्या कह दिया जाता है। किसी के जाने पर किसी का वश नहीं लेकिन किसी के जाने से किसी का जीवन रूकता नहीं है।

पुनर्विवाह के इस विषय को बासु ने बड़ी सहजता से दिखाया है।

बासु चटर्जी की कई और शानदार फिल्में भी है जो समय से आगे की बात करती हैं। उनकी फिल्म मेकिंग में कुछ बनावटी नहीं लगता था माने कि जबरन घुसाया हुआ कोई किरदार या डायलॉग। 42 हिंदी फिल्में, करीब 10 बांग्ला फिल्में बनाने वाले बासु चटर्जी मानते थे कि उन्हें सबसे अच्छा अनुभव टीवी से हुआ। उनका बनाया वो सीरियल जो आज की हर औरत को देखना चाहिए उसके बारे में लिख रही हूं।

रजनी (1985)

अस्सी के दशक में बासु चटर्जी, सीरियल रजनी के साथ टीवी पर क्रांति लेकर आये थे। बासु चटर्जी की रजनी टीवी की पहली गृहिणी थी। रजनी का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री प्रिया तेंदुलकर ने खलबली मचा दी थी।

ये इस सीरियल का टाइटल ट्रैक था – 

लड़की है एक, नाम रजनी है…
रजनी की एक ये कहानी है…
देखी जहां बुराई है, जाके वहां टकराई है…
सच्चाई की डगर पर वो तो चलती है…
सच्चाई से कभी नहीं वो टलती है…
उसे वो सबक देती है जिसकी भी जो गलती है…

इन पंक्तियों में इस सीरियल का सबक है। ये कहानी एक सशक्त गृहिणी की है जो घर संभालना तो जानती ही है लेकिन उसे अपने हक और अधिकारों का भी पूरा ज्ञान है। वो किसी से दबती नहीं है। जहां गलत देखती है वहां आवाज़ उठाती है। रजनी एक आम गृहणी की समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार व अन्याय के खिलाफ की रोज की जंग की कहानियाँ दिखाई जाती थी।

इस मज़ेदार महिला प्रधान सीरियल के हिट होने के बाद करीब 15 साल फिर महिला प्रधान किरदारों को लेकर कई सीरियल बनाए गए। लेकिन यह क्लासिक था। प्रिया तेंदुलकर 2020 में जब असमय निधन हो गया तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा “रजनी के रूप में उनकी जिहादी भूमिका (समाज की कट्टर बुराइयों को उखाड़ने वाली छवि) ने अनेक सामाजिक मुद्दों को आवाज़ दी।”

बड़े पर्दे पर मध्यम वर्ग की दुनिया दिखाने वाले बासु स्वयं एक मध्यमवर्गीय परिवार में पले बढ़े थे और उन्होंने उसी मध्यवर्गीय आकांक्षाओं, सपनों, ख्वाहिशों को अपनी कहानियों में सजीव किया। अपनी फिल्मों के बारे में बात करते हुए वो यही कहते थे, “मैं मध्यमवर्गीय परिवार से आता हूं और उनकी आशा-निराशा, सुख-दुख, व्यथा-उमंग को भली भांति महसूस कर सकता हूं इसलिए मेरे द्वारा बनाई गई फिल्मों और पात्रों में वो झलक साफ़ दिखती है।”

सचमुच सही कहते थे आप बासु दा, “जो किया अपनी शर्त पर किया किसी के कहने पर नहीं। कोई भी कोशिश करेगा तो ज़रूर कर पाएगा।”

मूल चित्र : YouTube

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