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भारतीय सिनेमा का सफर सौ साल से ऊपर हो चुका है लेकिन इस सफर में महिलाओं की स्थिति में किस प्रकार बदलाव आया है इस पर नजर डालते हैं।
हम सब जानते हैं कि हिंदी सिनेमा की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र‘ में महिलाओं का किरदार भी पुरुषों ने ही निभाया था। समय बदला और रुपहले पर्दे पर महिलाओं का प्रवेश हुआ। 50 के दशक में तो महिलाओं के किरदार को उतना ही महत्व दिया जाता था जितना कि पुरुषों के।
1957 में नरगिस अभिनीत बहुचर्चित फिल्म ‘मदर इंडिया’ आयी जो कि हिंदी सिनेमा के लिए मील का पत्थर साबित हुई। वो पहली ऐसी फिल्म थी जिसमें महिला के किरदार को इतना मजबूत दिखाया गया था। फिल्म की कहानी में एक माँ देश और कानून की ख़ातिर अपने ही बेटे को गोली मार देती है।
फिर 70-80 का दशक आया, तब तक हम आज़ाद हो चुके थे। फिल्मों की कहानियाँ बदल चुकी थी। अब कहानियों का उद्देश्य मनोरंजन करना बन चुका था और हीरोइनों के किरदार को साइड लाइन कर दिया गया। अब महिलाओं को सिर्फ ग्रहणी के रूप में दिखाया जाने लगा, हिरोइन फिल्म में न भी हो तो उसकी कहानी या कमाई पर कुछ खास असर नहीं पड़ता था। वो जमाना था एक्शन स्टोरीज़ का। उन फिल्मों में हिरोइन की कुछ खास जगह नहीं होती थी। उनको सिर्फ ग्लैमर और सुन्दरता के लिए लिया जाता था।
सभी कमार्शियल हिट फिल्मों की कहानी लगभग एक सी ही होती थी। उन कहानीयों में विलेन का काम होता था महिलाओं को किडनैप करना, उनका रेप करना। और यही कहानी के अंत में हीरो के हीरोइज़्म को दिखाने का नायाब तरीका था, जिस में वो किसी महिला को गुंडों से बचाकर ले आता था। दूसरी तरफ फिल्मों में आइटम सांग का भी प्रचलन बढ़ रहा था। इस में कुछ मशहूर नाम थे जैसे हेलन, अरुणा इरानी आदि जिन्हें डांस की वजह से ही पहचान मिली।
90 के दशक में लव स्टोरी के दौर आया। माधुरी दीक्षित जैसी अभिनेत्री ने पर्दे पर दस्तक दी। यूँ तो माधुरी दीक्षित को लेडी अमिताभ का तमगा भी दिया गया लेकिन उस समय भी हीरोइनो के किरदार के लिए करने को कुछ खास नहीं था। अभिनेत्रीयों को सुन्दरता व आकषर्ण का प्रतीक माना जाता था। लव स्टोरीज बहुत समय तक मेनस्ट्रीम सिनेमा का केंद्र रहीं, हीरो कुछ गिने चुने एक्टर ही रहे लेकिन हीरोइन हर रोज़ बदलती रही। 20 का दशक भी उन फिल्मों से अछूता नहीं रहा।
एक बार फिर दौर बदला और कुछ निर्देशकों ने महिलाओं को केन्द्र में रखकर फिल्में बनायी। यूँ तो महिला केन्द्रित फिल्में पहले भी रही थीं, लेकिन आश्चर्य जनक बात यह थी कि जनता ने बाहें खोलकर ऐसी फिल्मों को स्वीकार किया और उन फिल्मों की कमाई भी बाकी फिल्मों जितनी हुई।
अब नायिकायों को दैवीय मूरत के बोझ से मुक्त कर दिया गया।
समाज बदलने लगा तो परदे पर नायिका में भी बदलाव आया। अब हिन्दी सिनेमा की प्रमुख नायिका को भी साधारण दिखाया जाने लगा। अब नायिका के कपड़े, बोलचाल आदि एक आम लड़की की भाँति होने लगे। अब हीरोइन को दैवीय मूरत के बोझ से मुक्त कर दिया गया। अब की नायिका में दिखावा नहीं था।
कुछ अभिनेत्रीयों ने इस मौके को हाथों हाथ लिया और खुद के अभिनय की छाप छोडी। साल दर साल महिला केंद्रित फिल्मों की मांग बढ़ी और महिला केंद्रित फिल्में कमाई नहीं करतीं, यह भृम टूटा। आज हम उस दौर में आ गए हैं जहाँ हीरोइन को सुन्दरता या परफैक्शन का पर्याय नहीं माना जाता। ऐसी अभिनेत्रियों में विद्या बालन सबसे आगे नज़र आयीं।
विद्या बालन ने नो वन किल्ड जैसिका में एक दमदार जर्नलिस्ट का किरदार निभाया। कहानी में एक प्रेग्नेंट महिला का किरदार निभाया जो अपने पति की तलाश में अन्जान शहर में जाती है। तुम्हारी सुलु में तो एक ग्रहणी का किरदार निभाया जो रेडियो जॉकी बनती है और रेडियो स्टेशन पर ही सब्जी भी काटती है, रात के खाने के लिए। वही अनुष्का शर्मा ने सुलतान में रेसलर की भूमिका निभाई जो हरियाणा के छोटे से गाँव में रहकर नेशनल जीतती है।
कंगना रानौत की क्वीन ने तो महिलाओं के लिए नया रास्ता ही खोल दिया। कंगना ने एक रानी नाम की लड़की का किरदार निभाया जिसकी शादी होने वाली होती है। लेकिन शादी वाले दिन दूल्हा नहीं आता है तो रानी अकेले हनीमून पर निकल जाती है और विदेश घूमती है। और कमाल की बात यह रही की जनता को रानी को आजादी बहुत पसंद आई।
अगर तापसी की बात करें तो यह कहना गलत नही होगा कि वो महिला प्रधान फिल्मों की नई नायिका हैं। एक तरफ पिंक में जहाँ रूढ़िवादी सोच पर सवाल उठाते नज़र आयीं तो दूसरी तरफ थप्पड़ में पति के एक थप्पड़ का जवाब वो तलाक से देती हुई नज़र आयी।
अगर अब जनता तुम्हारी सुलु जैसी घरेलू महिला पर आधारित फिल्मों के लिए भी सिनेमा घरों में जाने को तैयार है, तो हम कह सकते हैं अब हिन्दी सिनेमा में अभिनेत्रीयों की स्थिति बदल रही है या ये कहें कि हिन्दी सिनेमा की अभिनेत्री अब रियल हीरोइन बन रही है।
मूल चित्र : Google
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