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कोरोना नर है या मादा इसका निर्धारण कहां और कैसे हो जाता है? कोरोना देवी है देव नहीं यह तय कैसे होता है? और इसकी पूजा स्त्री ही क्यों कर रही है?
कोरोना माई! या कोरोना देवी! कोरोना महामारी के संक्रमण में अचानक से अवतरित हुई देवी। जिसके पूजा करने के बारे में मुख्यधारा मीडिया में खबरें चाश्नी में लपेटकर पेश की जा रही है। इस परिघटना को डीकंस्ट्रक्ट करके, नारीवादी नज़रिये से देखने से इसके जो मायने निकलते हैं, उनको महिलाओं के सामाजिक असुरक्षा का राजनीतिक सवाल बनाना ज़रूरी है। न कि उसको शहरी/ग्रामीण महिलाओं के बायनरी में बांटकर, उनको अंधविश्वासी बताकर दुत्कारने की।
कोरोना देवी की मौजूदा समसमायिक परिघटना से यह प्रतीत होता है, जो भी नेगेटिव होगा वह महिलाओं से सम्बंधित होगा खासकर ग्रामीण महिलाओं में होगा। इस तरह का नैरेटिव बन रहा है। थाली पीटता और दीया जलाता हुआ शहरी समाज भी दिमागी विकलांगता का प्रमाण पहले ही दे चुका है। जबकि शिक्षित और आत्मनिर्भर महिलाएं भी आस्था आधारित पति और पुत्र के दीर्घआयु की कामना करते हुए करवाचौथ, तीज और जितया जैसी मान्यताओं का त्याग नहीं कर पाती है।
इन मान्याताओं पर मुनाफा कमाता हुआ बाज़ार अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत करता रहता है। यही नहीं सरकारें भी अपने बजट में करवाचौथ की थाली को टैक्स के दायरे से मुक्त रखती हैं। दिलचस्प यह है ग्रामीण और शहरी इन दोनों ही आस्थाओं में पुरुष अपने को अलग रखता है। भले ही कामेडी शो में इसको लेकर जोक्स पर पूरा समाज ठहाकें लगाता है।
मौजूदा ग्रामीण कोरोना माई यानि कोरोना देवी की परिघटना में भी ग्रामीण पुरुषों ने इससे अपनी दूरी बनाकर रखी है। इस सवाल को स्थापित करने का प्रयास बहुत ही सचेत तरीके से किया गया है या किया जाता रहा है। महिलाओं का अपना समाज अंधविश्वासी है और वह इन चीजों में फंसकर अपना नुकसान कर रही है। परंतु, महिलाओं के पास इसके इतर विकल्प ही क्या है? इसपर कोई सवाल समाज सत्ता से नहीं पूछ रहा है? महिलाएं क्यों अपने पति और पुत्र के दीर्घआयु के कामना के लिए आस्था के चौखट पर हाथ जोड़े खड़ी है? उसकी सामाजिक असुरक्षा को कभी राजनीतिक सवाल बनने ही नहीं दिया जाता है।
गौरतलब है कि कोरोना देवी के पहले भी स्माल पांक्स जिसको समान्य भाषा में चेचक और लोकल स्तर पत “माता आ गई है” के नाम से जाना जाता है। इस बीमारी को भी शीतला माता से जोड़कर उसका जेंडर निर्धारण धार्मिक आस्था में तय किया जाता रहा है और ग्रामीण या शहरी इलाकों में किसी को भी चिकेन पांक्स होने पर महिलाएं मंदिरों में पूजा करने जाती है जो बिल्कुल ही समान्य सी घटना है। इन महिलाओं को न ही जाहिल कहा जाता है न ही अंधविश्वासी। यही नहीं अक्सर आम बोल-चाल की भाषा में भी प्राकृतिक विपदा के समय हम यहीं कहते-सुनते देखते है कि “माता, नाराज़ है”।
मौजूदा परिघटना में ही नहीं पूर्व आधारिक सामाजिक व्यवहारों में भी प्राकृतिक विपदाओं या जीवाणु/विषाणु का लिंग निधारर्ण किया जाता रहा है? कोरोना नर है या मादा इसका निर्धारण कहां और कैसे हो जाता है? कोरोना देवी है देव नहीं यह तय कैसे होता है? यही नहीं इन माई के पूजा-अर्चना में भी महिलाओं को ही झोका जाता रहा है। कोरोना देवी के पूजा भी महिलाओं की सहभागिता ही है, पुरुषों की नहीं? जबकि दुर्गा, लक्ष्मी, काली और स्वरसती के पूजा में पुरुषों की भी सहभागिता होती है। हर अशुभ या आपदा के लिए माई जिम्मेदार है इसलिए महिलाएं ही अर्चना करेगी, देव और पुरुष इससे अलग रहेगे।
जाहिर है पुरुष स्वभाव से ही तार्किक और वैज्ञानिक सोच के होते है और महिलाएं स्वभाव से ही भावुक और अतार्तिक। इस विचार को स्थापित करने के लिए एक बार फिर से पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवहार का सहारा बहुत चतुराई से लिया जा रहा है। यह पहले भी होता रहा है और अब भी हो रहा है इसबार बस इसमें ग्रामीण महिला और शहरी महिला का आधुनिक और मूढ़ होने की नई बायनरी स्थापित हो गई है।
समाज में महिलाओं हैसियत में गिरावट करके के लिए पहले भी इस तरह के उपक्रमों का सहारा लिया जाता रहा है। जिसकी चर्चा अक्टेयर ने अपनी किताब “हिंदू सभ्यता में स्त्री की स्थिति” प्रथम संस्करण 1938 में की थी। उनके अनुसार “लैंगिक रीति-रिवाज हर जाति समाज में अलग-अलग तरीके से काम करता है जो साफ तौर पर उसमें सभी एक अनुशासन और धार्मिक मान्यताओं का अनुसरण करते है।”
इस सवाल के जवाब हमारे सामाजिक संरचना में छिपे है। पहला, महिलाओं ने अपने सोसलाईजेशन में जो सीखा है वह उसको ही इस महामारी में दोहरा रही है, उन्होंने बचपन में अपनी दादी-नानी, बुआ और सास को स्पैनिश फ्लू, प्लेग और चेचक महामारी के समय यही करते हुए देखा है। कोरोना माई की पूजा भी उनके उसी संस्कृतिकरण का हिस्सा है जो पहले से परंपरा में मौज़ूद रही है।
दूसरा, ग्रामीण महिलाओं की आर्थिक निर्भरता परिवार के पुरुष सदस्यों पर हर अर्थव्यवस्था में रही है फिर चाहे वह कृषक आधारित व्यवस्था हो या आधुनिक अर्थव्यवस्था। उनके लिए विधवापन का डर जीवन के बारे में उनके परिपेक्ष्य को गहराई से प्रभावित करता हैं। संसाधनों, रोजगार, राज्य सहायता प्रणालियों की कमी और एक व्यक्तिगत पहचान की अनुपस्थिति उनके विकल्पों को प्रभावित करता है। पति और बेटे के प्रति उसका भावनात्मक लगाव के पीछे उसकी अपनी सामाजिक असुरक्षा भी है।
पति या बेटे के अभाव में उसका देखभाल कौन करेगा, यह स्थिति उसे उन उपायों के तरफ ढ़केलती है जो उसने अपनी संस्कृतीकरण में सीखा है। उनकी आर्थिक आत्मनिरभर्ता की स्वतंत्र ईकाई नहीं होने के कारण असुरक्षा के बोध में परिवार के पुरुष सदस्यों को महामारी के प्रकोप से बचाने के लिए उनके पास इसके अतिरिक्त और कोई साधन मौजूद नहीं है। इसलिए आस्था आधारित अंधविश्वास पर उनकी निर्भरता अधिक है।
तीसरा, ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर उनका विश्वास बहुत कमजोर है यह दूसरी बात है कि ग्रामीण भारत में देश की स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बदतर स्थिति में है।
चौथा, ग्रामीण भारत में विज्ञान आधारित तर्कपूर्ण शिक्षा का अभाव हमेशा से रहा है। वैसे भी ग्रामीण समाज में सोच पर आस्था आधारित तर्क का किला ज्यादा मजबूत है जिसको दहाने का काम जाति आधारित विश्वास कर सकती है विज्ञान आधारित विश्वास नहीं।
जब तक भारतीय समाज में सत्ता या समाज महिलाओं इन असुरक्षाओं से मुक्त करने में कामयाब नहीं होगा। आस्था के आगे नतमस्तक महिलाएं कभी कोरोना देवी /शीतला माता के आगे तो कभी चांद और सूर्य के आगे अपने परिवार के पति और पुत्रों के दीर्घआयु की कामना के लिए उपवास या निर्जला व्रत करते हुए दिखते रहेगी।
मूल चित्र : YouTube
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