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जाते-जाते याद आया मैं लिपस्टिक लगाना तो भूल गयी, फिर घर की ओर भागी और होंठों पर अपनी बर्बादी का रंग मल आई और आते ही मैं गाड़ी में बैठ गई।
मैं सकपकाई हुई, डरे डरे क़दमों से कमरे की ओर बढ़ी, फिर से खिड़की की तरफ देखने लगी, उसके झरोखे से मुझे काली कार नज़र आई।
मैं समझ गई आज भी मिस्टर रॉय अपने केबिन में बैठे हैं, और मेरा इंतेज़ार कर रहे हैं। मैं अपने दुपट्टे को संभालती हुई अंदर रूम तक पहुँच चुकी थी, आँखों से काजल की लकीरों को मिटाते हुए और रुमाल से होंठों पर लगी लिपस्टिक को रगड़ते हुए मैं अंदर की ओर बढ़ ही रही थी अचानक से आवाज़ आई, “रूपा, मीनल कहाँ रह गई बुलाओ उसे।”
“सर, मैं आ ही रही थी, जी बताईये?”
“तुमने आज भी लिपस्टिक नहीं लगाई? तुमको पता है न मुझे तुम उस लिपस्टिक में कितनी लुभावनी लगती हो?”
“सर, आपको कुछ काम था क्या?”
“हाँ, सुना है तुम्हारा डाइवोर्स होने वाला है?”
“सर, अभी कुछ कह नहीं सकते, मैं पर्सनल बातें शेयर करने में कम्फ़र्टेबल नहीं हूँ।”
“क़रीब तो आओ, लिपस्टिक के दाग़ ही दिखा दो।”
मैं हाथ छुड़ा कर भागने में सफ़ल हुई, और साथ के साथ मुझे अर्णव पर बहुत गुस्सा भी आया, के उसके तलाक़ ने मुझे अंदर तक कितना तोड़ मरोड़ दिया। मैं तो कहीं की नहीं रही, रही सही बची कसर मिस्टर रॉय पूरी कर देते हैं। मैं सहमी हुई अपने डेस्क पर आ गई और काम करने लगी।
मैं ख़ुद को कोसे जा रही थी, एक तो मैं अकेली, ऊपर से तलाक़शुदा, कौन मेरे को अपने जी का जंजाल बनाएगा? आरुषि की फ़ीस, घर का ख़र्चा उठाने के लिए, इस नरक में जी रहीं हूँ, वरना कब की भाग गई होती इस आग के दरिया से। अर्णव ने अपने आप को बड़े ही शातिर अंदाज़ में कोर्ट रूम से मेरे से पल्ला छुड़ा लिया, कुछ भी नही मिला, न ख़र्चा और न कुछ और मदद, वहीं चरित्रहीन का ठप्पा और लगवा लिया। मेरा कसूर तो बस इतना था कि मैंने बस शराब और वैश्याओं के पास जाने को मना किया था अर्णव को, और सिला क्या मिला?
यही सब सोच कर मीनल का मन जवाब दिए जा रहा था, और खुद ही सवाल कर रही थी। उसकी सोच से सिर्फ यही आकलन किया जा सकता है, कि वो ख़ुद को अपराधी मानती है, जो अपराध उसने कभी किया ही नहीं।
“मीनल, आज रात को घर चलो, वहीं रुक जाना, साथ में डिनर भी कर लेंगे”, मिस्टर रॉय ने बड़े ही तीखे शब्दों में मीनल से आग्रह नहीं किया बल्कि उसको ऑर्डर दिया।
“आरुषि घर पर अकेली है सर, उसकी तबियत भी ठीक नहीं, तुमको चलना है तो ठीक है वरना…”
“आप मुझे घर तक छोड़ दीजिए। मुझे थोड़ा सा समान भी लेना है घर का, दूध, अंडा यही सब, आरुषि को सुलाकर आपको फ़ोन कर दूंगी।”
“मैं नीचे पार्किंग में वेट कर रहा हूँ, आ जाना।”
“हम्म….सर!”
“चलो यहीं से ले लो सामान, अच्छी शॉप है ये।”
“सर, यहाँ सामान थोड़ा महँगा मिलता है, मैं कॉलोनी के दुकान से ले लूंगी।”
“यही से लो मीनल जल्दी करो, मुझे भी देर हो रही है।”
मैं गाड़ी से उतरी, और मेरे बटुए में एक चवन्नी भी नहीं थी, इसलिए मैंने कॉलोनी के दुकानदार से सामान लेने की बात कही। मैं ज़्यादा बतकही नहीं करती, चलते चलते मुझे बस यही ख़्याल आ रहा था कि आरुषि बिना दूध पिए और अंडे खाये बिना नहीं सोएगी।
घर में एक भी सामान नहीं पड़ा, ऐसे में बॉस से क्या कहूँ? कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैंने सामान पैक करवा लिया, और बहाने से कार की तरफ मुड़ने लगी, तो पीछे देखा तो मिस्टर रॉय अपना कार्ड निकाल कर खड़े थे, और उन्होंने मुझसे कहा, “जाओ तुम गाड़ी में बैठो, मैं पेमेंट कर के आता हूँ।”
दुपट्टे के आँचल से मैं अपने चेहरे से निर्लज्जता, बेशर्मी और बेहयाई के पसीने पोंछती हुई गाड़ी में जाकर बैठ गई। सच कहूँ तो मैं यही चाह रही थी कि इन सामान के पैसे मैं नहीं मेरे बॉस दें। मेरा ग़ुरूर और आत्मसम्मान कहीं उड़न छू हो चुका था। सवाल था “एक पापी पेट का!”
“सर मैं आपको फ़ोन करती हूँ, जब तक आरुषि भी सो जाएगी।”
“नहीं-नहीं मैं आधा घण्टा यहीं खड़ा हूँ, तुम रेडी होकर आओ, और हाँ, लिपस्टिक लगाना मत भूलना।”
मैं रोटी और एक छत के एवज अपना आत्मसम्मान शायद अर्णव की ड्योढ़ी पर ही पटक पटक कर मार आई थी, मैं ख़ुद तो बिखरी साथ के साथ मर्यादाओं को भी एक ही क्षण में रेज़ा रेज़ा कर चुकी थी।
मैं अंदर गई और आरुषि मेरे गले से लिपट गयी, उसके बाद मेरे थैले को टोटलने लगी और दूध की बोतल लेकर कच्चा ही उसको पीने लगी। मैं उसकी इस हरकत को देख कर रोई भी और तसल्ली भी मिली, की आज की रात तो इसका पेट भर गया। यह सुकून से सो सकेगी।
स्कूल से आने के बाद बराबर वाली आशा आरुषि को खाना खिला देती है और उसका ख़्याल रखती है। भगवान का शुक्र है कोई तो है जो उसको संभाल लेता है। उसके बाद वह दिन भर घर में खेलती है और पढ़कर सो जाती है। फिर ट्यूशन वाली भी अपनी सहेली है वो भी आकर आरुषि को पढ़ा कर चली जाती है।
मैं उसको लेटा कर, रेडी होने लगी। जाते जाते याद आया मैं लिपस्टिक लगाना तो भूल गयी, फिर घर की ओर भागी और होंठों पर अपनी बर्बादी का रंग मल आई। आते ही गाड़ी में बैठ गई।
“बहुत सुंदर लग रही हो, वाह! क्या रंग है इसका, मैंने तुमको जब पहली बार देखा था तब तुमने इसी रंग की लिपस्टिक लगाई थी।”
मैं मन ही मन सोच रही थी क्या इस ख़ूनी रंग ने मुझे किस हद तक रौंदा दिया, के मैं अपनी मर्यादा को कहीं भूल आई। उसका हाथ मेरे शरीर पर अपने हाथों की रेखा की छाप छोड़ देते थे, मुझे ऐसा लगता था जैसे मेरे शरीर पर किसी ने डसने वाले साँपों का झुंड छोड़ दिया हो।
बारिश तेज़ होने लगी, रात के 12 बज चुके थे, मैं और मिस्टर रॉय गाड़ी में अकेले, और मैं अपने नसीबों का रोना रोती रही। गाड़ी की जलती हुई लाइट में बारिश की बूंदे चमक रहीं थी और मेरे चेहरे पर उसकी रोशनी पड़ रही थी। मुझे वो चमक दर्द दे रही थी और मिस्टर रॉय को मुझे छूने की इजाज़त।
मेरे होंठों तक उसके हाथ पहुंचे और मैं तड़प कर रोने लगी। अपने हाथों की मुट्ठी से गाड़ी की सीट को पकड़ने लगी। मैं देख रही थी, और समझ रही थी के वैश्याओं की क्या स्तिथि होती होगी जब वो बिस्तर पर अपने बदनसीब होने का सुबूत किस दूसरे पर न्यौछावर कर रही होती होंगी। आज मैं भी वैश्या बन गई, चाहे एक रात की ही क्यों न।
मैं उसका साथ नहीं दे सकी मैं गाड़ी खोल कर बाहर निकल गयी, मेरा नीला दुपट्टा उसकी गाड़ी में फंस गया, अब मैं दुपट्टा बचाऊँ या ख़ुद को? मैं दुपट्टा छोड़कर ही भागने की कोशिश करने लगी, मेरे हाथ आया भी तो एक टुकड़ा जिससे अपना कौन सा हिस्सा ढ़कुं? फिर सोचूंगी के पितृसत्ता के ठेकेदार अगर मुझे रास्ते में मिल गए तो, मेरे ऊपर चरित्रहीन होने का ठीकरा फोड़ देंगे।
मैं वहाँ से निकल तो गई, मगर उस छुअन से ख़ुद को एक वेश्या के समान मानने लगी। मिस्टर रॉय ने इतना चिखा और चिल्लाया, मगर मेरे कान पर सांप तक नहीं रेंगा। मैं जानती थी मेरे ऐसे भागने का मतलब है, मेरी जॉब का जाना और मेरा और मेरी बेटी का पेट खाली, सुबह क्या होगा? मुझे कुछ नहीं पता था।
पूरी रात एक चाय की रेहड़ी के नीचे गुज़ार दी, नसीब के खेल से सुबह 4 बजे ट्रक वाला मिला मैंने उससे कहा मुझे आगे चौराहे तक छोड़ दे, वो भी भला मानस था, एक नज़र तक नहीं उठाई मेरे सामने और बोला, “बहन ध्यान रखना अपना।”
मैली और कटी फ़टी हालत में मैं घर तक पहुँची, और सोती हुई आरुषि को गले से लगाकर इतना रोई के मैं थक गई। मैंने जब आरुषि का चेहरा देखा तो उसने भी वही लिपस्टिक लगा रखी थी, जो मैं लगाती थी, मैं देख कर पागल सी हो गई और उसमें होंठों को पूरी तरह धो डाला, और कहा, “आज के बाद इसका नाम भी मत लेना।” और मैंने वो लिपस्टिक फैंक दी, उसके साथ साथ वो मीनल भी हवा में उड़ा दी जो किसी पुरुष की शिकार बनी थी।
मैंने भोपाल छोड़ दिया, और दिल्ली शिफ़्ट हो गई, और आज आरुषि राम मनोहर लोहिया अस्पताल में डॉक्टर की ट्रेनिंग पर है, और मैं एमिटी प्रेस में सीनियर एडिटर।
बस यही कहानि है अपनी…
मूल चित्र : Canva
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