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एक तरफ तो रजस्वला स्त्री को अपवित्र माना जाता है वहीं दूसरी ओर शक्ति की प्रतीक मां कामाख्या देवी को रजस्वला होने के दौरान पवित्र मानकर पूजा जाता है?
नई नई जगह देखना, उनके बारे में जानना, समझना किसे नहीं अच्छा लगता, किताबों से ज्यादा ज्ञान हमें पर्यटन से मिलता है इससे तो सभी सहमत होंगे। भारत को जानने समझने की कोशिश में इस बार हम पूर्वोत्तर राज्य की ओर गये ।
पूर्वोत्तर भारत का द्वार असम (अहोम) को कुदरत ने अपनी बहुत सारी नियामतें दी हैं। हमारा पहला गंतव्य गुवाहाटी से ८ कि.मी. दूर कामाख्या मंदिर था।
आषाड़ मास (जून) में तीन दिनों के लिए माँ कामाख्या रजस्वला होती है, इस समय मंदिर के दरवाजे सबके लिए बंद होते है, तीन दिनों के पश्चात दरवाजा खुलता है तथा पूजा अर्चना शुरू होती है तभी अम्बूवाची का मेला लगता है, इस बार २२ जून से २५ जून तक मंदिर के कपाट बंद रहेंगे तथा २६ जून से दर्शन तथा पूजा अर्चना शुरू होगी, रहस्यों से भरा ये मंदिर हमेशा से ही मुझे आकर्षित करता था।
मां कामाख्या देवी का मंदिर असम की राजधानी दिसपुर के पास निलांचल पर्वत पर स्थित है। यह मंदिर प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में से एक है।
पौराणिक कथानुसार पिता द्वारा किए जा रहे यज्ञ की अग्नि में कूदकर सती के आत्मदाह करने के बाद जब महादेव उनके शव को लेकर तांडव कर रहे थे, तब भगवान विष्णु ने उनके क्रोध को शांत करने के लिए अपना सुदर्शन चक्र छोड़कर सती के शव के टुकड़े कर दिए थे।
उस समय जहां सती की योनि और गर्भ आकर गिरे थे, आज उस स्थान पर कामाख्या मंदिर स्थित है। यहाँ पर भगवती की महा मुद्रा (योनि) स्थित हैं।
गर्भ गृह में देवी की कोई भी मूर्ति नहीं है, गर्भ गृह में योनि के आकार का एक कुंड है जिसमें से जल निकलता रहता है। यह योनि कुंड कहलाता है। यह योनि कुंड लाल कपड़े व फूलों से ढका रहता है।
यहां पर भक्तों को प्रसाद के रूप में एक गीला कपड़ा दिया जाता है, जिसे अम्बुवाची वस्त्र कहते हैं, देवी के रजस्वला होने के दौरान योनि कुंड के पास सफेद कपड़ा बिछा दिया जाता है. तीन दिन बाद जब मंदिर के दरवाजे खोले जाते हैं, तब वह वस्त्र माता के रज से, लाल रंग से भीगा होता है।
बाद में इसी वस्त्र को भक्तों में प्रसाद के रूप में बांटा जाता है, कहते है कि माँ के रज से ब्रह्मपुत्र का पानी भी लाल हो जाता है। इस मंदिर की विभिन्न प्रकार की किंवदंती, पौराणिक तथा रहस्यमय गाथाएं आपको यहाँ के पुजारी सुनायेंगे जो कि सच में आश्चर्य से भरी हुई है।
दर्शन के पश्चात मैं नीलांचल पर्वत की सुरम्य शिखर को देख कर सोच रही थी एक तरफ तो रजस्वला स्त्री को हर शुभ कार्य से दूर रखा जाता है, अपवित्र माना जाता है वहीं दूसरी ओर शक्ति की प्रतीक मां कामाख्या देवी को रजस्वला होने के दौरान पवित्र मानकर पूजा जाता है।
रजस्वला देवी की अराधना कर हम स्त्रीत्व की आराधना करते हैं। स्त्री का मासिक चक्र और कामाख्या मंदिर स्त्री की सृजनशीलता को दर्शाता है और ये बताता है की स्त्री ही इस ब्रहमांड की जननी है और सभ्य समाज में उसका सम्मान करना चाहिए।
मासिक धर्म, एक स्त्री की पहचान है, यह उसे पूर्ण स्त्रीत्व प्रदान करता है। लेकिन फिर भी हमारे समाज में रजस्वला स्त्री को अपवित्र माना जाता है। क्या हमारे पूर्वजों के विचार हमसे अलग थे? क्या वो हमसे ज्यादा उन्नत विचार रखते थे?
रजस्वला देवी की आराधना कर क्या वो स्त्री के प्रति आभार दर्शाते थे? बहुत सारे विचार मेरे मन में घूम रहे थे, निलांचल पर्वत से दूर क्षितिज में सूर्य अस्त हो रहा था, अस्तांचल सूर्य की आभा से रक्तिम ब्रह्मपुत्र अपनी गति से बह रहा था। अपने विचारों की पोटली संभाल मैं भी वापस जाने को मुड़ गई।
मूल चित्र : Canva/Youtube
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