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माहीन ज़फर समाज को ललकार कर कह रही है कि अब ये रिमोट भी उन्हें ही दे दो, अगर वो अपनी जिदंगी को आकाश दे सकती है, तो उड़ान क्यों नहीं?
आज के जमाने में लड़कियाँ केवल पढ़ती ही नहीं अपितु उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपने पैरों पर सक्षम रूप से खड़ी भी हो रही हैं। आज की हमारी लड़कियाँ पुराने जमाने की लड़कियों से बेहतर परिस्थितियों में जीवन यापन कर रही हैं।
है ना! अर्थात शादी से पहले पूरी आजादी!
मतलब? मर्ज़ी का विषय, मर्ज़ी की नौकरी और ये सब करने पर सबल, संतुष्ट होने पर शादी करती हैं।
परन्तु पुराने ज़माने में अधिकतर नाम मात्र की पढ़ाई, छोटी उम्र में शादी, खेल-खेल में सुहाना बचपन कब गंभीर हो जाता, इस क्षितिज की रेखा वो लड़की न देख पाती। मायके से ससुराल के लंबे सफ़र में पिता, पति, पुत्रों की अधीनता में कोमल मुस्कान लिए देवी की सी दिव्य दृष्टि से उनके मन की सुधि लेती रहती। और इस सहनशीलता का श्रेय भी सुदृढ़ संस्कारों को दिया जाता। उस औरत द्वारा किसी प्रकार का उत्पीड़न सहना भी उसी परिवार की मज़बूती की नींव ही माने जाते।
और हाँ! ध्यान रहे बस मुस्कान का दीपक बुझना नहीं चाहिए। यही एक आदर्श औरत की गरिमा है।
परन्तु ख़ुदा-न-खास्ता कहीं कोई औरत इसका विरोध करती, बनी लीक को साफ कर आगे पढ़ने, पैरों पर खड़े होने को बढ़ती, तो दबा दी जाती या घोर अपमानित!
बेशर्म! बेहया! तो आम दिए जाने वाले मेडल थे। और कसूर क्या? कि वह अपने मानवीय अधिकारों की पूर्ति के लिए आवाज़ उठा रही थी और उसका विरोध करने वाले दूर देश के लोग थे? नहीं! अपने ही खून के रिश्ते या जिनके वंश को अपना लहू दिया था। उसी समाज, परिवार के लोग, शिकायत करते हैं!
सच बेगानों का दबाव कभी भी भारी नहीं पड़ता। पर अपनों के शब्द , कठोर नजरें, पत्थर दिलों का बोझ इतना भारी होता है कि उसके तले वो औरत बिना मुस्कुराए जीवन की बलि भी चढ़ा दे तो कोई बात नहीं। अरे यही तो धर्म है!
परन्तु आज की पढ़ी-लिखी लड़कियाँ इन तकाजों से दूर हैं, उन्हें इस तरह के धर्म संकट का सामना नहीं करना पड़ता! सच? क्या आप यकीन से कह सकते हैं?
नहीं! आप नहीं कह सकते!
क्योंकि आज भी हमारी सर्वगुण सम्पन्न, सबला लड़कियाँ इस तरह के धर्मसंकट में जब पड़ती हैं तो उनका हौंसला ही उनकी वास्तविक पतवार होता है। और यह अटल सत्य है जब तक कोई स्वयं कोशिश नहीं करेगा तो उसकी मदद भी करने कोई नहीं आएगा।
और इसी तरह की घटना घटी हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में!
घटना कहना अपमान होगा! तो क्रांती की मशाल?
और ये मशाल रौशन की माहीन ज़फर ने। जो मामूली नहीं LLB की डिग्री से सुशोभित हैं। और इस्लामिक कानून की पूरी जानकारी रखती हैं ।
समाज की ये होनहार लड़की अपनों की नज़र में उस समय बुरी बन गई जब उसने अपने ज्ञान के बलबूते पर हक की रौशनी मांगी! उसने सिर्फ इतना चाहा कि उसके निकाह के समय जो उसी का निकाहनामा है उसे वह पढ़ कर ही हस्ताक्षर करेगी!
ये तो रस्मों के विरुद्ध है। मर्दों की सभा में यह लड़के को तो पढ़ाया जाता है पर लड़की को नहीं। क्योंकि उसे जरूरत ही नहीं! वो चाहे जितनी भी पढ़ी हो इस समय रस्म, समाज को देखते हुए बस बिना पढ़े हस्ताक्षर करने हैं।
मर्दों की सभा में औरत का क्या काम? पर्दे का लिहाज़ रखना होगा। दुपट्टा इसी की तो निशानी है। मर्यादा!! मर्दों के काम में नाक नहीं डालनी चाहिए ।
और ये किस लड़की को कहा जा रहा है जो एक मर्दों के समाज में रहती है? मर्दों में रह कर नौकरी कर सकती है? मर्द से शादी करने जा रही है और फिर पति के इलावा घर में मर्द जाति के लोगों से बेटी, भाभी के रिश्ते निभाने जा रही है, बाकी इल्मी लोग जो भी वहां खड़े हैं वो अनजाने नहीं। पर जीवन के इस महत्वपूर्ण फैसले के स्थान पर वे बस मर्दों की सभा बन गए।
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अब इस पर सबसे बड़ा तर्क आता है जिस पर वितर्क करना मानो पुश्तैनी गैरत को ललकारना! और वो तर्क है, कि ये निकाहनामा हमारी रस्म है। ये रस्में भी ना, बड़े-बड़े वैज्ञानिकों, डॉक्टरों, वकीलों, जजों यहाँ तक की भगवान का भी मुँह बंद कर सकती हैं ।
और यह रस्म बरसों से तो बिना पढ़े इसी तरह से औरतों द्वारा केवल हस्ताक्षर करके निभाई जा रही हैं।
परन्तु वो लड़की हिम्मत कर उसी चाल से जैसे वो अपने दफ्तर में दाखिल होकर कानूनी दस्तावेज का अध्ययन कर जज के सामने जिरह कर सकती है, अज्ञान रूपी अन्याय को हटा न्याय रूपी ज्ञान का दीपक जला सकती है।सारी कचहरी को अपनी दलीलों से लाजवाब कर सकती है, लोगों को कानूनी सलाह दे सकती है। तो क्या अपने निकाहनामे के उस कागज के टुकड़े को पढ़ नहीं सकती?
परन्तु परमज्ञानी परिवार के लोग या समाज के लोग बोलते हैं, कि फिर क्या हुआ?
कचहरी में वो सब उसका काम है। परन्तु यह उसकी शादी का निकाहनामा है, यहाँ मर्दों में रह कर वह इस दस्तावेज को पढ़ नहीं सकती। न प्रश्न पूछ सकती है।
मायके-ससुराल के ज्ञानी लोग क्या कहेंगे? जबकि ये सब अधिकार शरीयत कानून जो कि धर्म के आधार पर सर्वोच्च कानून माना जाता है, वही कहता है कि शादी का जोड़े में लड़के और लड़की दोनों को इसे पढ़ने, समझने का अधिकार है।
अरे भई! आपकी नानी, दादी, माँ ने आगे आकर पहले कभी निकाहनामा नहीं पढ़ने की कोशिश की! शायद उन्हें इसकी कानूनी जानकारी न हो! हिम्मत, आत्मविश्वास ही न हो! अब जो ये लड़की उठी है तो कम से कम उसे मौका तो दो! कम से कम उसकी जिंदगी का ये अहम फैसला जो कि उसके नए जीवन की शुरुआत का पहला कदम है। उसे उठाने तो दो।
ना! ना! ना! अगर वो मर्दों की सभा में अपना सिक्का मनवा गई तो? कुछ प्रश्न पूछ लिए और अगर उत्तर में मर्दों की नजर झुकी रह गई तो? फिर परिवार वाले उनसे नज़रें कैसे मिलाएंगे? परन्तु आसपास खड़े इस सब पर विचार कर रहे लोगों के झुरमुट में से निकाहनामे का पूरा इल्म रखने वाली माहीन ज़फर जब कई नजरों के दरवाजे खोल कर, तोड़ कर, मर्दों की सभा में पहुँचती है, जहां कोई पराया नहीं, बल्कि उसके पिता, ससुर, पति, भाई, रिश्तेदार और धर्म समझाने वाले उसी समाज के लोग हैं जिनसे वह अनजान नहीं।
माहीन ज़फर आगे बढ़ी, उसी तरह जैसे अपने दफ्तर में दाखिल होती है, निकाहनामा पकड़ती है वैसे ही जैसे कि वो दस्तावेज का अध्ययन करने लगी हो। तो उसके कदमों को रोकने को एक आवाज़ आती है, “बेटा विश्वास रखो, सब हो जाएगा!”
और माहीन ज़फर फिर कशमकश में रुकने ही लगती है कि होने वाले पति की हल्की सी मुस्कान उसका स्वागत करती है और वो लड़की वहां रखी कुर्सी पर जैसे ही बैठती है फिर से कहीं से आवाज़ आती है, “बेशर्म!” और लड़की उस आवाज़ को इसलिए नजरअंदाज करती है कि कहीं उसके जीवन का निकाहनामा कहीं उसकी आँखों के तरलता में बह न जाए।
सबकी तपती निगाहों की चिलचिलाती धूप में माहीन ज़फर अपने जानकारी के अधिकार के कर्तव्य का पालन करती है। वही जानकारी का अधिकार जिसे मनवाने के लिए हम अदालतों में भी जा सकते हैं। छोटा सा अधिकार है पर खरीदी जानी वाली निर्जीव सुई से लेकर जहाज तक के बारे में हमें जानकारी प्राप्त करने का मजबूत अधिकार देता है। पर ये निकाहनामा पढ़ने का अधिकार किसी निर्जीव का नहीं! उस लड़की के जीवन का महत्वपूर्ण फैसला है।
तो माहीन ज़फर हर धारा, उपधारा का बारीकी से अध्ययन करती है। और फिर पति की मुस्कान की कोमल छाया में हस्ताक्षर कर देती है। फिर अब तक जो बादल पलकों पर कब से संभाले थे वे उस ‘बेशर्म’ शब्द की कील चुभने से गंगा-यमुना बहा रहे हैं। वो कील उसके कोमल दिल को लहुलुहान कर चुकी है परन्तु वो इस बरसात में ‘बेशर्म’ शब्द की काली स्याही को अपने कजरारे अश्रुओं की निर्मल धारा के तेज प्रवाह में बहा कर हरा देती है।
अब चेहरे पर बिखरा काजल ‘नज़र का टीका’ बन उसकी सुंदरता को बढ़ा रहा है, क्योंकि माहीन ज़फर ने आने वाली पीढ़ियों की बच्चियों को कुछ और मजबूत पंख दिए हैं, जिससे वे अज्ञान के अंधेरे जंगल से निकल सम्पूर्ण अधिकारों के ज्ञान के उजाले की तरफ बढ़ सकें ।
अरे! कागज़ के उड़ने वाले जहाज़ जितने पंख देकर फिर रिमोट अपने हाथों में पकड़, पढ़ी-लिखी लड़कियों की उड़ान की लगाम अपने हाथ में थामे तुम समाज-धर्म के ठेकेदार थकते नहीं हो? माहीन ज़फर तुम्हें ललकार कर कह रही है कि अब ये रिमोट भी उन्हें ही दे दो। अगर वो अपनी जिदंगी को आकाश दे सकती हैं तो उड़ान क्यों नहीं?
अरे नहीं! फिर हमारे समाज में लड़कियों को सीमा में कौन रखेगा? अज्ञान के कारण तो ये नियंत्रण में रहती हैं ।अगर इनका तीसरा नेत्र पूरी तरह खुल गया तो फिर इनके पंख कौन कतरेगा?
हाँ! यही सोच! ये सोच एक पुरुषप्रधान समाज में क्या केवल मर्दों की है? नहीं! बहुत सारी औरतों की भी।जिनकी नजरें रस्मों के नाम पर मर्द के कंधे का सहारा ले अपनी जाति, औरत जाति, पर वार करती हैं। और पढ़े लिखे समाज के सभ्य कहलाने वाले मर्द अपनी पैनी कैंची से पंख कतरने को तैयार हो जाते हैं।
परन्तु माहीन ज़फर इन कैंचियों की धार से डरने वाली नहीं! क्योंकि उनके पंखों की धार अब हर हवा के बहाव को चीर कर उसकी आँखों में मीठे सफलता के आँसुओं का स्वाद चखा चुकी है। और आने वाली पीढ़ी की लड़कियाँ इस स्वाद को भूलने नहीं देंगी।
मूल चित्र : Facebook
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