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कविता का सार्थक सार यही होता है की कविता में सभी रसों का समावेश होता है। समाज के हर आयाम को छूती हुई एक लयबद्ध पक्तिओं की क़तार है।
मैं कविता हूँ, एक दिल से दिल तक पहुँचती आवाज़ हूँ मैं, एक रूह को रूह से छूता साज़ हूँ मैं, धनक हूँ मैं सनक भी मैं।
मैं कविता हूँ, बेपरवाह कलम से बहती सियाही हूँ मैं, अंगिनतान विचारों में भटका हुआ राही हूँ मैं, पुकार हूँ मैं गुंहार भी मैं।
मैं कविता हूँ, भूली बिसरी रीत हूँ मैं, किसीका बिछड़ा हुआ मीत हूँ मैं, हसीं हूँ मैं आंसू भी मैं।
मैं कविता हूँ, माँ की लोरी का सुकून हूँ मैं, पिता के सपनों का जूनून हूँ मैं, गर्व हूँ मैं घमंड भी मैं।
मैं कविता हूँ, मचलते अरमानों का पिटारा हूँ मैं, हक़ीक़त की मार का सहारा हूँ मैं, निशान हूँ मैं निशानी भी मैं।
मैं कविता हूँ, बेखौफ़ परिंदे की उड़ान हूँ मैं, बंधनों की देहलीज़ का मान हूँ मैं, हद हूँ मैं बेहद भी मैं।
मैं कविता हूँ, कभी नाज़ुक मोम सी पिघलती हूँ मैं, कभी ज़िद्दी मशाल सी जलती हूँ मैं, आग भी मैं राख़ भी मैं।
मैं कविता हूँ, कभी गुज़रा हुआ वक़्त हूँ मैं, कभी भूली हुई कहानी हूँ मैं, कभी टूटे हुए लफ़्ज़ों में थी, आज हर शख़्स के मुँह ज़ुबानी हूँ मैं, क्यूंकि! मैं कविता हूँ।
मूल चित्र : Pexels
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