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क्या कभी किसी ने, किसी पुरुष से आज तक ये पूछा है, किसका बेटा है वो, किसका पति है? नहीं ना? तो नारी की पहचान पर इतना शोर क्यों?
दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी जैसे अनेक नामों से नारी शक्ति की पूजा-अर्चना करते आया है ये समाज। पर जब भी समाज में अपने आसपास की नारी को सम्मान देने की बात उठती है, यही समाज निष्ठुरता धारण कर लेता है।
क्यों नारी खुद में सम्पूर्ण नहीं हो सकती है? क्यों उसे अपनी पहचान बेटी, बहन, पत्नी या फिर माँ के रूप में बतानी पड़ती है?
क्या कभी किसी ने, किसी पुरुष से पूछा है? किसका बेटा है वो, किसका भाई, किसका पति, किसका पुत्र है वो? नहीं ना? एक पुरुष की पहचान के लिए उसका नाम, उसका काम काफी होता है। फिर एक औरत सिर्फ अपने नाम, अपने काम से क्यों नहीं सम्मान पा सकती है?
माता-पिता से जुड़ी पहचान तो जन्म से हर मनुष्य के पास होती है। उसके बाद युवावस्था में बनाई गई अपनी पहचान में, क्यों समाज एक स्त्री से उसके पति का नाम पूछता है? क्या कभी किसी पुरुष से पूछा है किसी ने? तुम्हारी पढ़ाई, तुम्हारी कामयाबी तो ठीक है, तुम्हारी पत्नी का क्या नाम है? शादी हो गई तुम्हारी या नहीं? अगर शादी नहीं हुई तो कब करोगे शादी? सारे प्रश्नों के उतर में, बस एक जवाब ही मिलेगा, नहीं! हमारे समाज में एक पुरुष की खुद की पहचान हो सकती है।
बस आज उसी समाज से जिज्ञाषावश एक प्रश्न पूछना चाहती हूँ। नारी शक्ति की पूजा करने वालों, तुम्हारे समाज में नारी अकेली, बिना विवाह किए सम्मान से जीने की हकदार क्यों नहीं हो सकती है? क्यों पिता के नाम के बाद, पति के नाम को अपने नाम से जोड़ने की अपेक्षा रखता है ये समाज?
नारी सम्पूर्ण है खुद में, शक्ति सवरुप है। कोई स्त्री जीवन के किसी आयु में अपनी जिन्दगी के संघर्ष अकेले अपने बलबूते पर कर रही है तो उसका उचित सम्मान करो। एक नारी की पहचान सिर्फ उसके गले का मंगलसूत्र या मांग का सिंदूर नहीं बल्कि उसकी खुद की काबलियत भी हो सकती है।
मूल चित्र : Canva
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