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घरेलु हिंसा के ये स्वरुप चोट तो देते हैं पर निशान नहीं देते, और ये कभी सबके सामने बोले नहीं जाते क्योंकि यहां मज़लूम ही मुज़रिम करार दिया जाता है।
घरेलु हिंसा के कुछ स्वरुप चोट तो देते हैं पर निशान नहीं देते, और ये कभी सबके सामने बोले नहीं जाते क्योंकि यहां मज़लूम ही मुज़रिम करार दिया जाता है।
कोरोना के समय में कुछ शब्द ऐसे प्रचलन में आये जैसे मानो बरसों से यहीं हों। मसलन क्वारन्टाइन्ड, सोशल डिस्टेंसिंग इत्यादि। ये आम बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त होने लगे हैं।
ज़ूम, गूगल मीट, ऑनलाइन मीट, इत्यादि शायद दूसरे पायदान पर हैं। जगह-जगह ऑनलाइन सम्मेलन हो रहे हैं। अब चर्चा भी तो जरूरी है आखिर घर बैठकर इस समस्या का हल नहीं निकल सकता लेकिन इसके इर्द-गिर्द जो समस्याएं उत्पन्न हुई हैं उनके बारे में चर्चाएं शुरू की जा सकती हैं।
जैसे कि बाजारों में मंदी स्कूल कॉलेजेस का बंद होना पढ़ाई का नुकसान व्यापार का नुकसान और समाज में उत्पन्न हो रहे सोशल डिस्टेंस इन के विपरीत असर का मूल्यांकन करना। इन सबके बीच कहीं ना कहीं से कहीं ज़िक्र आ जाता है महिलाओं का, जो इस लॉक डाउन में घरों के भीतर और किसी कोने में लॉक हो गई हैं या फिर होने पर मजबूर हो चुकी हैं।
एक शब्द और है किन्तु दबी ज़बान में ही है अब भी। इस लफ्ज़ के इर्दगिर्द शर्मिंदगी और न स्वीकार करने की हमारी ज़िद का कोरोना भी कुछ न बिगड़ पाया। हाँ, वो बात अलग है की अब उसकी ख़ामोशी चीख चीख कर ध्यान खींच रही है और हम पूरी कोशिश में हैं की उसे नकार सकें।
क्वॉरेंटाइन दिनों की शुरुआत हुई थी तो हर कोई बड़ा उत्साह था हर किसी को यह लगता कि घर में बैठकर बाहर ना जाकर हाथ धोकर और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए हम कहीं ना कहीं देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं और निभा भी रहे थे, देश और समाज के प्रति इस वक्त सबसे बड़ी जिम्मेदारी यही है। इस महामारी को फैलाने में हमारा हाथ ना हो।
इन सबके बीच कुछ बेहद दिल दहलाने वाली तस्वीरें का आमना सामना हुआ तारकोल की गरम सड़कों पर जेठ की दुपहरी में चलते हुए नंगे पैर मजदूरों का वह हुजूम जिसने हमारे शहरों को बसाया था। आज उनके पास शहर में रहने को एक कमरा नहीं था और वह वापस अपनी गृहस्थी को 4 गठरियों में बांधे गांव की तरफ चल पड़े थे। यह तस्वीर दिल दहलाने वाली थी हर तरफ से उनकी मदद की गुहार लगने लगी और यकीन जानिए मदद की भी गई।
कुछ हादसे भी हुए और कुछ हाथ भी बड़े और इन दोनों के बीच फिर कहीं ना कहीं तारतम में बैठ गया और आज मजदूर भाई धीरे-धीरे ही सही अपने घरों की तरफ जा रहे हैं। दुःख है तकलीफ है, शर्मिंदगी है, कि हम उन्हें रोक नहीं पाए। जिन्होंने हमारे घरों को बनाने में अपनी ताकत झोंक दी उन घरों में उनके लिए जगह नहीं थी।सारा देश साथ हो आया उनके लिए दिल से। आवाज़ उठी मदद पहुंची, माफ़ी में सर झुके।
मगर उस तबके का क्या जो घरों में रह रहा है, फेसबुक पर आपको तस्वीरों में भी नजर आता है? हंसता मुस्कुराता जिस की तस्वीरों पर आप सुंदर सुंदर कमेंट भी लिखते हैं, कभी उस तबके के बारे में सोचा है जो इस लॉक डाउन में कहीं और भीतर लॉक हो गया है? आश्चर्य की बात ये है की देश के सर्वोपरि जो गाहे बगाहे आ कर अपने मन की बात अपने १३५ करोड़ भाई बहनों से सरलता से कह जाते है उन्हें भी एक बारगी ख्याल नहीं आया? थाली, ताली, दीपक, फूल सब बरसे, उनके लिए जो सिपाहियों की भांति हमारी सुरक्षा कर रहे हैं। नमन है उनको।
किन्तु क्या घर में रहने वाली औरतें, जिन्होंने अचानक आयी इस आपदा को सरलता से जीवन में मोड़ लिए उनका एक ज़िक्र भी नहीं हो सकता?
माना की कामकाजी नागरिकों में औरतें मात्र २३.६% का हिस्सा रखती हैं किन्तु क्या इस २३. ६ % के बारे ब्यौरा लिया गया ? और वो बाकि जो शायद क्वारन्टाइनेड के ज़्यादा व्यथित नहीं हुई क्योंकि सालों से क्वारन्टाइनेड ही हैं।
न, इससे पहले की आप मुझे ‘नारीवादी’ का तमगा दें, आप ज़रा सोशल मिडिया का चश्मा उतार कर देखियेगा।हिंदुस्तान की औरतें सिर्फ उतनी नहीं जो आपको फेसबुक पर नज़र आती है अथवा घरेलु हिंसा की इन बातों को खुले आम कहती हुई नज़र आती हैं।
ज़रा ध्यान से कभी अगल बगल, आते जाते चेहरे देखियेगा जिस पर शायद चुप्पी पसरी हो और ये भी हो सकता है कहीं नील का निशान हो। जो की हो न हो कहीं फिसलने से ही आया होगा। और अगर नील का निशान न दिखे तो ये मत समझ लीजियेगा कि ज़ख्म नहीं हैं। हर घरेलु हिंसा का ज़ख्म नील निशान नहीं देता।
“दीदी, अब काम पर बुला लो। मैं सब साफ़ सफाई का ध्यान रखूंगी। घर में मर्द बहुत मारता है। बच्चों के सामने ही बिस्तर पर…”
पढ़ना मत रोकियेगा क्योंकि ये सिर्फ एक जुमला है, किसी एक औरत का। घरेलु हिंसा के ऐसे लाखों जुमले दबी ज़बान में हवा में तैर रहे हैं लेकिन हमारे कानों पर जू नहीं रेंगती।
“पहले तो ठीक था लेकिन ये वाइन शॉप का खुलना कुछ दिक्कत खड़ी कर रहा है। किससे कहूं?” ये प्रतिष्ठित स्कुल की टीचर और पति कॉर्पोरेट में काम काजी।
तीन महीनो से ऐसे घर हैं जहां ख़ुली आवाज़ में घरेलु हिंसा के चलते खुल कर की बात नहीं हुई। कुछ ऐसे जहां जुमलों की बारिश कभी भी किसी भी वक़्त हो जाती है।
“तुम्हारे ऑफिस में इतना काम कहाँ से आ रहा है?” “तुम्हारा बॉस हर वक़्त तुम्ही को क्यों काल लगा लेता है?” “घर और बाहर पहले भी तो कर ही रही थी। अब तो घर में हो। काम वाली के भरोसे अगर नौकरी कर रही हो तो छोड़ ही दो।” “एक कप चाय बना देने भर से नौकरी नहीं जाएगी तुम्हारी… और तमाम।
ये सब घरेलु हिंसा का स्वरूप हैं किन्तु कभी माने नहीं जाते।
ये सब चोट तो देते हैं पर निशान नहीं देते।
ये सब आपको नज़र नहीं आते क्योंकि इनकी कोई रिपोर्ट नहीं होती।
ये कभी सबके सामने बोले नहीं जाते क्योंकि यहां मज़लूम ही मुज़रिम करार दिया जाता है।
हमारा समाज जहां चोट के निशान पर भी “हो जाता है”, “रिश्ते की ऊंच नीच” और “घर की बात घर में” रखने की सलाह दी जाती है, क्या हम आप यह सोच सकते हैं कि घरेलू हिंसा का ये स्वरूप भी माना जायेगा ?
ये तो बस शब्द हैं, बोल दिए, हवा हो गए। भले वो शब्द सुनने वाले के ज़हन पर ऐसे ज़ख्म दे की उसके व्यक्तित्व को तार तार कर दे किन्तु हम उस मानसिकता से बाहर नहीं निकल पते जहां औरत के लिए ज़िंदगी में सहन करना एक नियम माना जाता है।
ये भी आपकी आवाज़ चाहते हैं। हो सके तो आपका साथ चाहते है और अगर कर सको तो आपके आस पास घटित हो रहा है इस स्वीकृति की हिम्मत चाहते हैं।
मूल चित्र : Pexels
Founder KalaManthan "An Art Platform" An Equalist. Proud woman. Love to dwell upon the layers within one statement. Poetess || Writer || Entrepreneur read more...
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