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पुराने आदर्शवादी परिवारों में पिसते हमारे माता-पिता के जीवन का कड़वा सत्य

अगर आप आज भी अपनी असफलता का ठीकरा अपने माता-पिता पर ही फोड़ कर फिर अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं तो आपसे कोई भी उम्मीद रखना बेकार है।  

अगर आप आज भी अपनी असफलता का ठीकरा अपने माता-पिता पर ही फोड़ कर फिर अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं तो आपसे कोई भी उम्मीद रखना बेकार है।  

“पुराने समय में परिवार, सबल नैतिक मूल्यों की नींव पर आधारित थे। जिसमें परिवार के सब सदस्य मानसिक रूप से स्वस्थ, स्थिर, संतुष्ट, समर्पित, परिवार के करीब, रिश्तों तथा धर्म में विश्वास रखने वाले थे।”
ये विचार सोशल मीडिया में सक्रिय रहने वाले एक नवयुवती/नवयुवक के कुछ दिन पहले मुझे पढ़ने को मिले। तो लगा कि आज के बच्चे भी पुराने समय के बारे में आदर्शवादी विचार रखते हैं तो बहुत बढ़िया है। परन्तु कुछ शब्दों पर मैं विचार करने को बाध्य हो गई।

परिवार के सब सदस्य ‘मानसिक रूप से स्वस्थ, संतुष्ट, परिवार के सदस्यों के करीब थे’

जैसे कि परिवार के सब सदस्य ‘मानसिक रूप से स्वस्थ, संतुष्ट, परिवार के सदस्यों के करीब थे।’
और इन शब्दों की सच्चाई को मैं पचा नहीं पा रही थी। बहुत ही आदर्शवादी वक्तव्य था उसका।

चलो आप बताओ, ऐसे आदर्शवादी परिवार के ‘सब सदस्य मानसिक रूप से स्वस्थ ,स्थिर और संतुष्ट थे?’

इस संबंधी बात करते हुए

अगर हम विशेषतया बात करें उन परिवारों में रहते हमारे आदर्श पिता और आदर्श माँ की?
तो उपरोक्त कथन के अनुसार, “ऐसे माता-पिता के ही आदर्श जीवन की नींव पर सुदृढ़ परिवार की सुंदर हवेली खड़ी होती थी।”

क्या आप सहमत हैं? कोई जल्दी नहीं है, अच्छी तरह सोच कर देखें ?

सच में! ये आदर्शवादी विचार भी ना! मन, आत्मा को पवित्र, कोमल लगते हैं! और ऐसे जीवन को तो हम सबको बिना प्रश्न पूछे बस अपना लेना चाहिए! है ना??

आदर्श माता-पिता का जीवन तो बहुत आसान था

अगर आपका उत्तर हाँ में है तो, सम्पूर्ण मानवीय मूल्यों के आदर्श जीवन की आदर्श उदाहरण तो राजा हरिश्चन्द्र थे! क्या उन जैसा आदर्श जीवन आप जी सकेंगे? जिसमें कि केवल त्याग! त्याग! त्याग था!

अब आप कहेगें, “परन्तु आदर्श माता-पिता का जीवन तो बहुत आसान था! उसकी तुलना राजा हरिश्चंद्र से नहीं की जा सकती! उसे तो हम जी सकते हैं ?”

उनका जीवन भी बस त्याग, त्याग, त्याग, पर ही आधारित था

आप अभी भी यही सोच रहे हैं तो, मैं आगाह कर दूँ कि आदर्श माता-पिता का जीवन भी राजा हरिश्चंद्र से कम कठिन , दुर्गम नहीं था! उनका जीवन भी बस त्याग, त्याग, त्याग, पर ही आधारित था। अर्थात उतना ही धर्मयुद्ध, विचार युद्ध, मन युद्ध! वह भी स्वयं के अस्तित्व के साथ! और बदले में सर्वोच्च परम पुरुष या स्त्री बने नज़र आना!

अपनी नज़र में अपना जीवन कुछ नहीं, केवल परिवार, समाज को महत्व!

आदर्श पिता की धारणा पर चर्चा करते हैं

चलिए, सबसे पहले आदर्श पिता की धारणा पर चर्चा करते हैं। सब के पिता शांत, गंभीर समुद्र से दिखाई पड़ते। ऐसा समुद्र जहां भावों की लहरें बिलकुल भी दिखाई ना पड़ती। भाव शून्य चेहरा। जिम्मेदारियों के कांटेदार मुकुट से सुशोभित, सेना के अनुशासित अधिकारी से, जिनका कहा सुझाव तो कभी हो ही नहीं सकता, बस आदेश!

आदेश भी ऐसा कि तत्काल जिस का पालन हो। और अपने बड़ों के सामने हमारे पिता बिलकुल हमारे जैसे, जो सुना बस पालन! कोई मन का कहा न रख पाना! माँ-पिता का बस आदर या कभी-कभी गंभीर चर्चा! पर चुटकुले, शोर, हंसी? ये सब बिलकुल नहीं।

“पिता जी आ गए!”

और उस पिता के अपने बच्चे अपने पिता के आने पर दौड़ कर उनसे लिपट जाते? नहीं! बल्कि बरबस ही उनके मुँह से निकल जाता, “पिता जी आ गए!”

“कहीं पिता जी को पता न लग जाए!”

“माँ! पिता जी को मत बताना!”

“दादी! क्या पिता जी बचपन से ऐसे ही हैं?”

ये विस्मयादि बोधक वाक्य सुन कर या इनका अहसास कर वह पिता अगर अपनी सीमा से बाहर निकल कर आज के पापा-डैडी की तरह सब भूल हंसना-खेलना भी चाहे तो?

“बच्चे क्या सोचेगें ?”

“पत्नी क्या सोचेगी?”

“बच्चों के दादा क्या कहेंगे?”

“ये बच्चों पर बुरा प्रभाव डालेगा!”

“बच्चे बिगड़ जाएंगे!” आदि! आदि! आदि!

ये सब मानसिक रूप से स्थिर ,संतुष्ट , स्वस्थ व्यक्ति की पहचान तो नहीं!

और इसके विपरीत पिता जी के काम पर जाते ही, हंसी, किलकारियां, खेल, पढ़ाई बंद, शोर का रस बहने लगता! शायद इसका अर्थ है कि उस समय के पिता स्थिर विचारों वाले संतुष्ट मानव थे? तो फिर पारिवारिक औरतों के शीत युद्ध के गर्म युद्ध में बदलते ही पिता जी अपना आपा क्यों खो देते थे? उस ज्वालामुखी के फटने का लावा कहाँ-कहाँ किस-किस पर गिरता था?

अगर गुस्सा, गंभीरता दिखा सकते थे तो बाकी मानवीय संवेदनाओं हंसी, मुस्कान संग जीवन का आनंद उठाते हुए क्यों नहीं दिखाई देते थे?

आप बताएँ कि अगर आपको उनकी तरह यूँ ही रहना पड़े तो आप अपने आपको मानसिक रूप से संतुष्ट, स्थिर रख पाएंगे? शिव शंकर की तरह जीवन की चुनौतियों, खर्चों, सबके तकाजों ,अपने मन की उच्च आकांक्षाओं को मन के कोने में दबाए रोज़ हर क्षण ये विषपान करते रहना! क्यों कि “मर्द को दर्द नहीं होता!” की उक्ति पर खरा उतरने के लिए संघर्ष?

हाँ! तन पर लगी चोट पर दुखी नहीं होते थे, पर मन पर छोटे से आघात से उग्र, व्यग्र हो कजर घर का माहोल भी घोर शांति वाला बना देते थे। और ये सब मानसिक रूप से स्थिर ,संतुष्ट , स्वस्थ व्यक्ति की पहचान तो नहीं!

अब आदर्श माँ की बात करते हैं

माँ अतिथियों के सामने मुस्काती, बड़ों के सामने चुप, भाव शून्य, दिल का हाल चेहरे-आँखों से व्यक्त न करने वाली, अपने बच्चों के सामने भी उसी तरह चुप, शांत, गंभीर, काम में तपती, बिना मदद की उम्मीद लगाए, सब कामों में अकेली धुनती।

घर की चारदिवारी में सुरक्षित विचारधारा को पल्ले में बांधे, ‘डोली में आना अर्थी में जाना’ जैसी लक्ष्मण रेखा में आजीवन अपने औरत होने के अहसास को ढूंढती, मानव जाति से संबंधित अपने अस्तित्व को पहचानने की कोशिश में लगी अपनी योग्यताओं को अनदेखा कर जाती क्योंकि उसने दूसरों द्वारा निर्धारित आदर्श जीवन की पट्टी गांधारी की तरह अपनी आँखों पर सजा रखी होती थी। जिसके साथ भी वह दूसरों के मन को तो टोह लेती थी पर अपने मन को नहीं!

आराम, मर्ज़ी, चाह!

आराम, मर्ज़ी, चाह! इन सबको रसोई के पीछे बनी क्यारीयों में दबा आती थी।और रस्मों, रीतियों, परिवार, समाज,धर्म की सलाखों के पीछे अपने जन्मजात कौशल ,योग्यताओं को गुलाम कर बाकियों द्वारा निर्धारित कार्यक्षेत्र में खपा देती!

और कुशल गृहणी के रूप में अपने बारे में बेगानों से अच्छा ग्रेड पाते ही जोश दुगुना कर लेती। परन्तु घर वालों के वही नकारात्मक रिमार्कस लिए भी आगे बढ़ती वो माँ! वो माँ जो बच्चों, पति के बीच की कड़ी का काम करती।

वो माँ जो बच्चों, पति के बीच की कड़ी का काम करती

पुत्र भी पिता के बनाए मर्द वाले कच्चे रास्ते पर धूल उड़ाते अपनी माँ को इसी आदर्श रूप में देखना पसंद करते थे। हाँ! पर बेटियों के बड़े होने पर उनके हाथों से भावों की मीठी शक्कर जब इस माँ को खाने को मिलती तो उसे मानो पिघला देती!

पर वो माँ फिर भी यही संस्कार देती, “बेटी! हम औरतें यूँ ही रहती आईं हैं और हमें ऐसे ही रहना होगा! इसी में सबकी मर्यादा और शोभा है!” और यही शिक्षा आज मुझे ऊपर सोशल मीडिया पर पढ़ी पंक्तियों जैसी ही लगी।

वह माँ, स्त्री है, मानव है

परन्तु केवल अपने स्वार्थ है के लिए माँ को केवल माँ के चरित्र को निभाने के लिए बाध्य करना कहाँ तक उचित है? वह माँ, स्त्री है, मानव है।

माँ-पिता के इस आदर्श रूप को महिमामंडित करने के लिए और त्याग मत मांगो। उन्होंने तुम्हें जन्म देकर, तुम्हारी जरूरतें पूरी कर बहुत शोभा कमा ली है।

आज के माता-पिता में क्या कमी है?

अरे ! बताओ ना! कि आज के माता-पिता में क्या कमी है? आज की आधुनिक माँ घर, नौकरी, बच्चे, बुजुर्गों ,परिवार, अतिथियों को संभाल रही हैं। सफल है। सबके सपनों के संग अपने सपनों को भी पंख दे रही है तो क्या बुरा है?

बच्चे संस्कारी हैं। माँ के काम से आते ही वो काम में हाथ बंटाते हैं। पति देव भी यदा-कदा चाय बनाने या अपने ही बर्तन उठाने, खुद पानी पीने आदि का योगदान देते रहते हैं। जिन पतियों को खाना बनाना आता है वो खाना बनाने में कतराते नहीं या परिवार के सदस्यों से आँखे नहीं चुराते।

आज की माँ सासू को स्कूटी या कार में बिठा कर शॉपिंग करने जाती हैं। चुप नहीं रहतीं, खुल के हंसती और हंसने का माहौल देती है जिससे बच्चे अपनी माँ को बेगाना नहीं अपितु अपनी साथी मानते हैं। और अपने सुख-दुख खुल के बांटते हैं ।

ये सब करना क्या आपकी नज़र में बुरा है?

अगर आपको वही दबी, सहमी-सहमी मुस्कान वाली औरत केवल माँ के आदर्श चरित्र में ढली और पिता घर-बाहर के संघर्ष रूपी विष का पान करते हुए ही, अपनी कोमल इच्छाओं को मारते, छीजते व्यक्तित्व वाले चाहिए तो फिर आप निश्चित ही वे हैं जो या तो भूतकाल और भविष्य काल में ही घूमते रहते हैं। जिनको कि बदला ही नहीं जा सकता। और वो दुनिया बदलने की बात करते हैं?

वास्तविक जीवन वर्तमान में, सामने होता है

तो आपको मनोवैज्ञानिक की जरूरत है। क्योंकि वास्तविक जीवन वर्तमान में, सामने होता है। उसे खोदने या उसके बारे में अंदाजा लगाने की जरूरत नहीं।

अवश्य ही आपकी शिक्षा में, आपके वैचारिक योग्यता में कहीं न कहीं कमी है। आप उन ढीठ बच्चों में से हैं जो माता-पिता को किसी योग्य न समझते हुए, उनसे कुछ न सीखते हुए यहां तक पहुंचे हैं। और अब अपनी असफलता का ठीकरा अपने माता-पिता पर ही फोड़ कर फिर अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं ।

ऐसे बच्चे आपने स्कूलों में भी देखे होंगे जो बेखौफ़ हैं, क्योंकि कहा गया है कि बच्चों को शारीरिक, और मानसिक रूप से प्रताड़ित नहीं करना चाहिए? और इसलिए कई बुद्धिजीवी स्कूल के अनुशासन को भी प्रताड़ना ही समझ लेते हैं। और फिर अध्यापक, माता-पिता और फिर समाज को अपने कामों से प्रताड़ित कर प्रसिद्ध हो जाते हैं। तो फिर ऐसे में माता-पिता, परिवार, स्कूल, समाज उन ढीठ को कुछ समझा नहीं सकता।

आज के माता-पिता जीवन का आनंद भी ले रहे हैं

आज के माता-पिता पढ़-लिखे हैं। जिम्मेदारियों के संग, कपड़े, रहन-सहन, हंसना, पार्टी, घूमना, सेहत की संभाल के लिए कोशिश करते, मन को स्वस्थ रखने के लिए सेवाएँ लेते हुए जीवन का आनंद भी ले रहे हैं।

हाँ! अब भी उनका पारा चढ़ जाता है, गुस्सा आता है पर बाकी सकारात्मक संवेदनाओं के साथ ये अलग नहीं लगती। ये मानवीय स्वभाव की विशेषताएँ हैं।

अर्थात आज भी घरों में ज्वालामुखी फूटते हैं! लावा गिरता है! पर हंसी की फुहारों से ठंडा भी तो हो जाता है।

आज के बच्चे भी पापा को देख कर कहते हैं, “पापा! आ गए!” परन्तु इसमें उम्मीद दिखाई देती है कि बात होगी, मुलाकात होगी! और माँ को भी देख कर ये नहीं कहते, “माँ ! तुम नहीं समझोगी?”
क्योंकि आज की माँ इसे चुनौती समझ कर, बात की तह में जाकर तुम्हें भी सब समझा देगी। या शरारती मुस्कान से मुस्कुरा देगी।

ओह! शायद यही तुम्हारी चिंता का विषय है।

तुम इसी से डरते हो तभी तो माता-पिता को उस अधूरे, अंधेरे व्यक्तित्व की हवेली की नींव में पड़े रहने देना चाहते हो। और अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए उस समय के नकारात्मक पहलुओं को नजरअंदाज कर महिमामंडित कर रहे हो, झूठे गुणगान कर रहे हो।

अर्थात तुम्हें वो समय प्रिय है! तो फिर एक काम अभी करो कि अपना मोबाइल, नैट की दुनिया छोड़ो, सन्यास लो और त्याग! त्याग! त्याग! दो सब कुछ।  और मूर्ति बन जाओ। पूजा करवाओ।

अपनी नकारात्मक, आदिम सोच का चश्मा उतारो

क्यों, क्या हुआ? धरती घूमने लगी! घुटन होने लगी! तो माता-पिता के पैसों से नैट चलाते तुम सोशल
मीडिया के भंवरे/तितली जो बने हो दो मिनट अपने आसपास देखो! अपनी नकारात्मक, आदिम सोच का चश्मा उतारो। तो तुम्हें आज के आधुनिक घरों में, आज की पीढ़ी में संस्कार, मूल्य सब नजर आएंगे।

कोरे खोखले आदर्शवाद से कुछ नहीं होता, उसमें सबकी मानवीय संवेदनाओं का सम्मान, मानवीय धर्म का उच्च आदर्श, और सबसे मूल्यवान आधार वास्तविकता का धरातल भी होना चाहिए।

तो भूत की सही जानकारी रखो, भविष्य की योजनाएं बनाओ पर जीने के लिए वर्तमान की धरती पर मज़बूती से कदम दबा कर रखो।

मूल चित्र : Canva 

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