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आखिरकर रघुनाथ और मीना द्वारा लता के साथ की गई भलाई का फल मीठा मिला...
आखिरकर रघुनाथ और मीना द्वारा लता के साथ की गई भलाई का फल मीठा मिला…
अम्मा-बाबुजी के गुजर जाने के बाद गुमसुम असहाय लता एक अबोली बनकर रह गई थी।
बाबुजी खेती-किसानी करते थे और अम्मा भी घर-घर काम करती थी। दोनों की मिलाकर जो आमदनी होती, उससे जीवन बसर हो रहा था, पर उतने में लता की पढ़ाई पूरी नहीं हो सकती थी। हँसने-चहकने वाली लता स्कूल की पढ़ाई पूर्ण करने के लिए ही दूसरे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपना खर्च पूरा करने में माता-पिता को सहयोग कर रही थी। इस साल 12वी की परीक्षा उसे अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण करना थी क्योंकि उसका तो एक ही सपना था कि वह पढ़-लिखकर इसी गाँव में कलेक्टर बने और अम्मा-बाबुजी की सेवा करे।
एक दिन अम्मा किचन में खाना बना रही थी। लता को बहुत ज़ोर से भूख लगी सो वह भी किचन में पहुँची हाथ बंटाने, तो एकाएकी अम्मा को बेहोश अवस्था में देख घबराते हुए बोली बाबुजी.. जल्दी आइयें अम्मा को देखो क्या हो गया? जैसे ही बाबुजी ने अम्मा को देखा, तो वे भी एकदम से गिरकर बेहोश।
निस्तब्ध हो लता दौड़कर गई गाँव के वैद्यजी को बुलाने और वैद्यजी आए, दोनों की जांच कर बोले “बिटिया ये दोनों तो परलोक सिधार गए।”
यह सुनते ही लता विक्षिप्त सी होकर नि:शब्द रह गई, ऐसा लगा मानो कि सुध-बुध खो दी हो।
धीरे-धीरे संभली तो सही लता, पर दुखी मन बोल न पाए किसी से भी अपने दिल की बात और रूआंसे मन से दिन गुजारती। गाँव के लोगों ने कुछ दिन तक तो लता की देखभाल की, पर अब अकेले इस तरह से रहना उसके लिए बहुत कठिन था। फिर भी किसी तरह उसने 12वी की परीक्षा तो उत्तीर्ण कर ही ली, पर आगे की गुज़र-बसर होना मुश्किल था।
आसपास के पड़ोसियों द्वारा पता लगाया गया कि दिल्ली में लता के रिश्तेदार रहते हैं जो रिश्ते में अम्मा के चचेरे भैय्या-भाभी थे। और तो और लता तो उनको जानती भी नहीं। पहले कभी देखा हो तो, उनको कैसे जाने बेचारी? पर उनके साथ जाने के सिवाय और किसी का सहारा भी नहीं था। गाँव के ज़मीदार द्वारा उनको संदेशा भेजा गया कि वे आएँ, खेती-बाड़ी के संबंध में उचित निर्णय लेकर लता को साथ ले जाएँ ताकि उसकी परवरिश हो सके।
संदेशा भेजते ही अगले हफ्ते रघुनाथ और मीना आकर सब गाँव वालों से मिलते हैं, अपना दुख प्रकट करते हैं। ज़मींदार जी से मिलकर गाँव में ही खेती-बाड़ी बेचकर लता को साथ ले जाते हैं।
यहाँ से शुरू होता है, लता का नए सिरे का जीवन। वैसे ही अम्मा-बाबुजी जाने के बाद एकदम अकेली हो गई थी, अपना दुख भी किसी से कह पाने की स्थिति में नहीं थी। मन में विचार करते हुए……..गाँव में तो फिर भी आस-पड़ोसियों से जान-पहचान थी। न जाने उस अनजान शहर में इन रिश्तेदारों के साथ कैसे जिंदगी बसर होगी? तकदीर भी कैसे करवट लेती है, मेरा अधिक पढ-लिखकर गाँव में कलेक्टर बनने का सपना तो अधुरा ही रह गया।
दिल्ली में प्रवेश करते ही लता की आँखे ओझल सी थीं। गाँव में कभी न देखा ऐसा नज़ारा, शहर की चकाचौंध देखकर हैरान मन! कितना शांत वातावरण था गाँव में! ये कहाँ किस्मत ने मुझे लाकर खड़ा कर दिया?
मीना, लता से कहती है कुछ खा लो बेटी, तुमने न जाने कब से कुछ नहीं खाया। बचपन से लता को अम्मा-बाबुजी का जो अपार स्नेह मिलता रहा था और उसने तो कभी सोचा भी न था कि इस तरह से अम्मा-बाबुजी के बगैर, अब शहर में जिंदगी गुजारनी पड़ेगी। इसी सोच-विचार में खोई लता अनमने मन से एक-दो निवाले खाती है, फिर बिलख-बिलखकर रोने लगती है। “मीना उसे पास लेकर अरे बेटी ऐसे हिम्मत नहीं हारते, हमने सुना है तुम्हें आगे अधिक पढ़ना-लिखना था और टयुशन भी पढ़ा रहीं थी, तो अब अपने सपने यहाँ शहर में रहकर भी पूरे कर सकती हो।”
स्टेशन पर उतरते ही रघुनाथ और मीना का इकलौता बेटा रोहन कार से लेने आता है, उसके तौर-तरीके देखकर लता को अटपटा लगता है। एक तो शहर के ढंग निराले, रहन-सहन शानो-शौकत सब नया ही तो था मासुम लता के लिये। वह तो मामा-मामी पर भरोसा करके आ गई।
“बहुत लाड़-प्यार से पला रोहन, जिसके नाक-नक्शे ही बिगड़ैल नवाबों जैसे, लता को क्या मालूम कि उसके मन में क्या चल रहा था।”
कई बार रघुनाथ और मीना के समझाने के बावजूद रोहन पर कोई असर ही नहीं होता था। वह भी कॉलेज में पढ़ रहा था, लेकिन वहाँ पर उसका अय्याशी करना और वही रूतबा दिखाना कम नहीं था। लता को भी उसकी रूचि के अनुसार रघुनाथ ने कॉलेज में बीए प्रथम वर्ष के लिए दाखिला दिलाया ताकि वह उसकी आगामी पढ़ाई पूर्ण कर सके।
लता अब गाँव वाली लता नहीं थी, वह अब मामी से शहर में रहने के तौर-तरीके धीरे-धीरे सीख रही थी। कॉलेज में प्रवेश करते ही उसकी मुलाकात अनघा से हुई, जो लता को अन्य दोस्तों से मिलवाती है।
कॉलेज में लता को मालूम चलता है कि रोहन पहले लड़कियों की छेड़खानी भी करता था, पर जब से वह कॉलेज में आई है, तब से नहीं कर रहा है। रघुनाथ और मीना को भी रोहन में पूर्व की अपेक्षा परिवर्तन दिखाई देने लगा था।
एक दिन कॉलेज से आते समय लता ने रोहन से कहा, “भैया यह सब गलत काम, अय्याशी करना सब त्याग दो, इनसे कुछ भी नहीं होने वाला…… सिर्फ और सिर्फ मामा-मामी को दुख ही होगा। तुम्हें भी क्या मिलता है यह सब करके? शांत मन से सोचना रोहन अच्छे काम करोगे, अच्छें दोस्तों की संगति में रहोगे, पढ़-लिखकर माता-पिता का सहारा बनोगे, तो उनको दिली खुशी होगी।”
“आज देखो रोहन मैने अम्मा-बाबुजी को जिंदगी की राह में एकाएकी खोया है और मेरी जिंदगी ही बदल गई, उसके बाद एक दिन भी ऐसा नहीं जाता कि उनकी यादें न आती हों, रोहन। “जीते जी अपने माता-पिता को खुशी देने की कोशिश करो, मैं मामा-मामी की वजह से ही पढ़ पा रही हूँ।” जहाँ तक मैं उन्हें समझ पाई हूँ, उन्हें तुमसे किसी सहारे की उम्मीद नहीं है, पर तुम यह सब गलत आदतें छोड़ एक काबिल इंसान बन माता-पिता का नाम रोशन करोगे न, तो इससे बड़ी दौलत उनके लिए हो ही नहीं सकती।”
रोहन मन ही मन सोच रहा कि खामखाँ गाँव की पढ़ाई को दोष दिया जाता है, गाँव में रहकर भी अच्छे संस्कार सीखे जा सकते हैं। इस तरह से रोहन में बदलाव आना शुरू हो गया था और रघुनाथ और मीना इस बदलाव को महसूस भी कर रहे थे, पर पूरी तरह से यकीन नहीं हो रहा था।
एक दिन अनघा कॉलेज से वापस आ रही थी कि अचानक कुछ लड़के, अकेलेपन का फायदा उठाते हुए पहले तो छेड़खानी कर रहे थे और फिर गलत हरकत करने ही वाले थे कि इतने में रोहन चिल्लाने की आवाज सुनकर वहाँ पहुँच जाता है। वह अनघा को बचाता है, पता चलता है कि उसके ही दोस्त यह गलत हरकत करने चले थे।
अनघा को हॉस्टल छोड़ने जाता है तो उसे पता चलता है कि उसका इस दुनिया में कोई नहीं है, बचपन से अनाथाश्रम में पली अनघा को पढ़ने के लिये यहाँ भेजा गया है|
कुछ पल रूककर…लता की बातों पर गौर करूं!
सही तो है, गलत कामों से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। इस सोच के साथ उसने लता के साथ मन लगाकर पढ़ाई की तरफ ध्यान लगाया।
आखिरकार रघुनाथ और मीना की जिंदगी में वह खुशी का पल आया, जिसका उन्होंने सोचा भी नही था। रोहन को दिल्ली में ही एसीपी के पद पर नौकरी मिल गई और वह खुशी-खुशी घर पहुँचा मिठाई लेकर माता-पिता का आशीर्वाद लेने।
रोहन अपने माता-पिता से कहता है कि “इसका श्रेय सिर्फ लता को जाता है और आज उसी के अच्छें संस्कारों की बदौलत मैं अनघा को कुकर्म से बचा पाया।”
मुझे अनघा बहुत पसंद है, यदि आप लोगों की अनुमति हो तो मैं एक नई दिशा में कदम उठाते हुए उसे अपनी परिणीता बनाना चाहता हूँ।”यह सुनकर लता को मिला बेहद सुकून… उसकी सखी परिणीता बन गई थी रोहन की।
इसीलिए हम कहते हैं अंत भला तो सब भला।
सुझाव- वर्तमान में अभिभावकों को चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है कि उनके द्वारा बच्चों के लिए दुनिया भर की खुशियाँ बटोरकर लाने की ख्वाहिश, परवरिश की कसौटी पर कहीं कमज़ोर तो नहीं पड़ रही।
मूल चित्र: Unsplash
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