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मुझे लगता है कि अगर ये रूढ़िवादी समाज हमारी महिलाओं को चार दीवारी में बाँध कर न रखे, तो क्या पता वो पुरुषों से बहुत आगे जाएं?
दुनिया तक़लीफ़ों की तंग गलियों में फँसी हुई है। दर्द हर जगह देखा जा सकता है। जिस ओर देखो दर्द और तक़लीफ़ होती है। इसका मूल आधार है हमारा रूढ़िवादी समाज – कहीं ग़रीबी तो कहीं घरेलू हिंसा, कहीं बलात्कार तो कहीं अपराध की आँधी।
मैं मानता हूँ इस बात के पीछे सीधे तौर पर फ़ैली हुई हमारे रूढ़िवादी समाज की असमानता, लिंग समस्या और लिंग के आधार पर भेदभाव। यह भेदभाव यह समानता इंसान की किस पीढ़ी तक जाकर अपना प्रभाव दिखाती है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल ही नहीं नमुमकिन भी है।
मुझे लगता है महिलाओं को चार दीवारी में न बाँध कर उनको आज़ाद परिंदों की तरह उड़ने देना चाहिए। क्या पता वो पुरुषों से बहुत आगे जाएं? उनको मौका तो मिलना चाहिए, मगर यह रूढ़िवादी समाज महिलाओं को कहाँ मौका देगा?
क्या हम इस रूढ़िवादी समाज के खिलाफ ऐसा माहौल नहीं बना सकते जहाँ पर महिलाओं के क़दम हमारे पीछे न हों, बल्कि हमारे साथ साथ हों। क्या ऐसा मौसम नहीं हो सकता जिसमें महिलाओं को अपने पँख पसारने का मौका मिल सके। कहीं न कहीं कोई तो होगा ऐसा भी नारीवादी जो यह सोच रखता होगा कि महिलाओं को भी मौका मिलना चाहिए अपनी क़बिलियात दिखाने का।
जब घर में लड़की पैदा होती है तो आजकल परिवारों को उसकी अच्छी परवरिश की चिंता तो होती है मगर आख़िर में आकर यही बात आती है, ‘बेटी अच्छी तरह पढ़ लिख ले दूसरे घर जाना है।’
क्यों दूसरे घर ही क्यों जाना है? क्या वो अपनी पसंद की ज़िंदगी नहीं जी सकती? क्या पता उसका मन ही न हो शादी का? या दूसरे घर जाने का? तो ऐसे में आप उसके साथ ज़बरदस्ती नहीं कर सकते बिल्कुल भी नहीं।
बेटी है, बाहर जाएगी तो बिगड़ जाएगी, ज़्यादा पढ़ लिख लेगी तो पर लग जाएंगे, पढ़ाई करेगी तो घर कैसे संभालेगी, और घर नहीं संभाला तो शादी टूट सकती है। जो एक प्रलय के रूप में उनके सामने आ जाएगी। लगता नहीं यह सब निरर्थक है?
लड़कियों को भी आज़ाद रखिए, उनका हक़ भी बेटों के ही बराबर है। मैंने खुद इस बात को अपने घर में आँखों से देखा है, रिश्तेदारों में, के बेटी और घर की औरतें कितनी ही भूखी क्यों न हों वो खाना छू भी नहीं सकती क्योंकि, सबसे पहले खाना पुरुष लोग खाएंगे। उसके बाद महिलाएं। मुझे यह चलन बहुत ही बुरा लगता है। ऐसा भी तो हो सकता है कि सब साथ बैठ कर खाना खाएँ। जिसमें समानता की महक हो?
अगर आप पुरुष हैं और वर्किंग हैं तो भी आप हाथ बंटा सकते हैं अपनी पत्नी का। कभी ऐसा भी कर सकते हैं के चूड़ी से खनकते हुए हाथों से धुलते हुए बर्तन आप थाम सकते हैं? कभी ऐसा भी कर सकते हैं के पसीने से भरे चेहरे को अपने रुमाल से पोंछ कर हवा में बैठने का निमंत्रण दे सकते हैं? कभी ऐसा भी हो अगर आप एक बेटी के पिता हैं तो आप उसको महसूस करवा सकते हैं कि वह कितनी आज़ाद है। अगर आपका दूध मुँहा बच्चा है तो उसका नैपकिन बदलने के लिए भी आप आगे आ सकते हैं और बोल सकते हैं, ‘आज ये काम मैं भी सीखूंगा?’
क्या आपके अंदर इतनी शक्ति नहीं कि आप कभी वीकेंड पर अपनी पत्नी के साथ साथ मिलकर कपड़ो को धोने में मदद नहीं कर सकें? आज आप अपनी माँ और पत्नी या बहन से ये न कहें कि एक ग्लास पानी का दे दो, या चाय बना दो। थोड़ा सा तो हक़ दो जीने का, उसको उड़ने का मौका दो।
आप भी ऐसा सोचते हैं क्या? इसका मतलब तो ये हुआ कि आप शॉर्ट्स और स्लीवलेस टीशर्ट पहन रहे हैं तो आप भी चरित्रहीन हुए? मैं इस बात का खंडन करता हूँ और पूर्णरूप से निष्काषित करता हूँ।
एक कपड़े का टुकड़ा आपके चरित्र का निर्धारण नहीं कर सकता, बिल्कुल भी नहीं कर सकता। तो यह बात भी आप दिमाग़ से निष्काषित कर दें कि ऐसा भी होता है। कपड़े, वेशभूषा, शारिरिक आकर्षण आदि, यह सब आपको बिल्कुल भी प्रभावित नहीं करते और न ही आपके चरित्र को।
हमको अपनी बहनों, पत्नी, बेटियों को उनके मुताबिक उनको जीने दें, उनका मानसिक विकास ऐसे करने की कोशिश करें कि उनमें कुंठा की भावना बिल्कुल शून्य हो। उनको ज़िन्दगी के सभी समीकरणों से अवगत करवाएं और खुद भी अवगत हों के उनको क्या चाहिए, उनको किस चीज़ की आवश्यकता है।
उनको विकास का ध्यान रखें और किसी के साथ ज़बरदस्ती न करें और न ही अपना दबाव डालें। जितना हक़ एक पुरुष होने के नाते मुझे है जीने का उसी तरह उस महिला को भी हक़ है, जो आसमान में उड़ना चाह रही है। आप अपने घर की बेटियों और महिलाओं को मौका तो दें, उनको खुद को प्रूव करने का। मुझे पूरा यक़ीन है आप निराश नहीं होंगे।
मूल चित्र : Canva
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