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विनोद कुमार शुक्ल जी की ये कविता हताशा के पल में मनुष्य का मानसिक स्वास्थ्य और उससे उबरने के लिए समाज के साथ चलने की जरूरत को समझाती है।
हिंदी साहित्य के जाने-माने वरिष्ठ कवि और साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल जिनके कविताओं के शीषर्क नहीं होते हैं। उनकी कविता है –
“हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था व्यक्ति को मैं नहीं जानता था हताशा को जानता था इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया।
मैंने हाथ बढ़ाया मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ मुझे वह नहीं जानता था मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था।
हम दोनों साथ चले दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे साथ चलने को जानते थे।”
विनोद कुमार शुक्ल की कविता हताशा के पल में मनुष्य के मानसिक दशा और उससे उबरने के लिए समाज के साथ चलने की जरूरत को समझाती है। तभी वह अंत में कहती है कि दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे/साथ चलने को जानते थे।
‘हताशा’ तीन अक्षरों का यह शब्द हर किसी के जीवन में कभी न कभी आता है। जो धीरे-धीरे अवसाद उसके बाद अकेलेपन और फिर डिप्रेशन में बदलने लगती है, जिसके डाक्टरी लहज़े में मानसिक स्वास्थ्य कहा जाता है। अद्भुत यह है कि हताशा से हर कोई कभी न कभी गुज़रता है पर उससे संभलकर उठने के लिए जो जरूरी बातें है उसके बारे में गंभीर होने के बजाय उन्हें हल्के में ले लिया जाता है।
अक्सर कह दिया जाता है, “अरे तुम्हें क्या हो गया है? ज्यादा मत सोचो तुम बहादुर हो तुम्हे किस चीज की कमी है, तुम तो प्रेरणास्त्रोत हो। पागल मत बनो, काम पर ध्यान दो, कोई काम नहीं है क्या, क्या सोचते रहते हो फालतू का।” यकीन मानिए ये बातें कोई मदद नहीं करती। ‘हताशा’ के दौर में व्यक्ति जिस अवस्था में होता है वह इन बातों को स्वीकार्य करने के स्थिति में नहीं होता है।
हमेशा बेहतर करते रहने का दबाब मौजूदा दौर में एक अलग तरह की मनोस्थिति को जन्म देती है। जिसमें अफसलता या ठहराव आ जाने की स्थिति भी कचोटती रहती है। यह दबाब अब तक के आपके संघर्षों से नई ऊर्जा को भी संचित नहीं करने देती है। बुलंदियों पर पहुंचकर वहां हमेशा ठहरे रहना किसी के लिए भी संभव नहीं है। ठहरे रहने का यही दबाब आज के बज़ारवादी दौर में एक नई हताशा को जन्म दे रहा है। जिसका परिणाम अचानक किसी रोज़ ऐसी खबर हमारे समाने आ गिरती है कि सब भौचक्का होकर रह जाते है।
कुछ समय पहले टेलीविजन की जानी मानी हस्ती प्रत्युता बनर्जी और कल फिल्मों के जाने-माने अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत का मौत को गले लगाना भी इसी तरह के मानसिक दवाब की परिणति है। जिसको हमारे समाज में कोई भी स्वीकार नहीं कर पा रहा है। परंतु ध्यान से सोचें तो हमारे मोबाइल फोन में हजारों नंबर मौज़ूद होने के बाद भी बहुत कम नंबर उस तरह के हैं जिनको हम अपने अकेलेपन में तुरंत डायल करें और उसको अपने पास बुला ले। बाजारवाद और उपभोक्तावाद से बने समाज में जब आप अकेलेपन को महसूस करते है तो आपके पास कोई मौज़ूद नहीं होता जिसके साथ आप अपनी हताशा और अकेलेपन को बांट सके।
सच तो यह भी है कि हमारे आस-पास कोई व्यक्ति अगर को किसी भी तरह के मानसिक दवाब के अवस्था में जी रहा है। उसकी पहचान करने की क्षमता या उसको समझने का सलीका न ही हमारे सामाजिक संस्कृतिकरण में है न ही हमारी अब तक की शिक्षा व्यवस्था में। हमको यह पता ही नहीं है कि हमें इसके साथ कैसे डील करना है? इसको किस तरह से समझना है? अगर हमने अपनी लिक पर आधारित शिक्षा व्यवस्था से अलग से कुछ पढ़ा-लिखा-या समझा है अन्य किसी माध्यमों के मदद से तब हम इसके बारे में थोड़ा बहुत समझते है कि यह कितनी गंभीर बात है। पर इसको समझने के बाद भी हमारी प्रतिक्रिया उतनी व्यवहारिक है जिसकी मानसिक दवाब की हताशा झेल रहे व्यक्ति को जरूरत है। उसका जो परिणाम हमारे सामने अचानक से आता है हम उसको स्वीकार नहीं कर पाते है।
डैनियल डेफो का प्रसिद्ध कथन है – “विपत्ति कभीं अकेले नहीं आती।” जहां पूरी दुनिया कोविड की महामारी से जूझ रही है वहीं मानसिक स्वास्थ्य का संकट भी दस्तक दे रहा है। भारत भी इस संकट से अछूता नहीं है। हमें इस चुनौति को समय रहते स्वीकार्य करना होगा। लगातार अपनी नौकरी खोता, सैलरी में कटौती करवाता, इएमआई के दवाब में जी रहा मध्यवर्ग जिस मानसिक दवाब में कोरोनाकाल में गुज़र रहा है। वहां कोई भी अप्रत्याशित खबर अचानक से आकर इंसानी वज़ूद को झकझोर कर रख देगी।
इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च द्वारा मानसिक स्वास्थ्य विकार पर वैश्विक रोग-भार (ग्लोबल बर्डेन ऑफ़ डिज़ीज़ 2017) की रिपोर्ट के मुताबिक 197.3 मिलियन भारतीय (कुल आबादी का 14.3 प्रतिशत) विभिन्न मानसिक विकारों से पीड़ित हैं। इनमें से 45.7 मिलियन लोग अवसाद और 44.9 मिलियन लोग चिंता जैसे विकार से ग्रसित हैं। कोरोनाकाल में यह बढ़ा ही होगा कम तो हुआ नहीं होगा यह तो तय है।
मानसिक बीमारी के मामलों में बढ़ोतरी से मानसिक स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं की मांग में वृद्धि होगी। मौजूदा व्यवस्था में बढ़ी हुई मांग को पूरा नहीं किया जा सकता। अभी के समय ज़रूरी यह है कि मौजूदा व्यवस्था को मज़बूत करने के साथ-साथ इसमें सामाजिक भागीदारी को बढ़ाया जाए। समाज के जागरूक और सचेत लोगों को जो हमारे आस-पास किसी न किसी रूप में मौज़ूद होते है उनको भी मानसिक स्वास्थ्य के विषय में प्राथमिक जानकारी दी जाए। मानसिक स्वास्थ्य के प्रदाताओं को निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के बीच लाया जाए और समन्वय बनाया जाए। आमजन और सरकार का समन्वित प्रयास और तालमेल समय की ज़रूरत है।
हमें सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने की आवश्यकता है, इसका कोई विकल्प नहीं। साथ ही समाज को मानसिक स्वाथ्य के बारे में जागरूक करना बहुत आवश्यक है। क्योंकि समाज भले मानसिक दशा झेल रहे व्यक्ति को नहीं जानता हो पर अगर वह इन हालात को जानते हुए, उसके साथ चलेगा तब, विनोद कुमार शुक्ल जी के कहे के अनुसार, दोनों एक-दूसरे को नहीं पहचानते हुए भी, एक-दूसरे को ज़रूर पहचानेगे।
मूल चित्र : Canva
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