कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
हम औरतें क्यूँ हक दे देती है किसी और को खुद पे सवाल उठाने का। जब एक आदमी सम्पूर्ण हो सकता है अपनी खामियों के साथ तो एक औरत क्यूँ नहीं?
हम औरतें क्यूँ हक दे देती हैं किसी और को खुद पे सवाल उठाने का? जब एक आदमी सम्पूर्ण हो सकता है अपनी खामियों के साथ, तो एक औरत क्यूँ नहीं?
हम खुद अपनी बराबरी का दावा कम दे देते है खुद की कमियों को बड़ा मानकर। खुद को परफ़ेक्ट दिखाने की हौड़ में शामिल होकर। हमने ही शुरू की है ये दौड़ शायद।बिना रुके लगातार दौड़ते रहने की आदत।
अपने बेटे आयुष को जन्म देने के बाद शिखा धीरे-धीरे डिप्रेशन में जाती जा रही थी। उसके माँ बनते ही परिवार की तरफ़ से ढेरों हिदायतें आने लगी थी और ताने भी आने लगे थे। शिखा को कहा जाता था, “तुम्हें ये नहीं आता, वो नहीं आता। क्या इतना भी नहीं सिखाया तुम्हारी माँ ने? हमने भी सब अकेले ही संभाला था कोई नहीं था हमें भी बताने वाला, परन्तु तुमसे अपना बच्चा, पति और घर तीनो नहीं संभल रहे।”
शिखा को लगता था कि जैसी वो ही बस माँ बनी है और उसके बच्चे के प्रति सारी ज़िम्मेदारी सिर्फ उसकी है। क्यूंकि उसके पति शेखर को कोई बच्चा और घर कैसे संभाला जाए इस बारें में कुछ भी समझा नहीं रहा था। शेखर को अपनी ज़िन्दगी में बदलाव लाने के बारें में कोई कुछ नहीं बोल रहा था। उन्हें कोई यह नहीं बता रहा था की अपने बच्चे की परवरिश करने के लिए उन्हें भी बहुत कुछ त्यागना होगा। लेकिन यह सारे पाठ शिखा को दिन रात पढ़ाये जा रहे थे।
ये सिर्फ शिखा की ही नहीं बल्कि उन हज़ारों लाखों औरतों की कहानी है जो पहली बार माँ बनती हैं और उनकी पूरी ज़िंदगी 360° घूम जाती है। लोगों की बातों के वजह से, वो शिकार हो जाती हैं निराशा का, जिसके कारण उनका आत्मविश्वास कहीं खो सा जाता है।
बात यहाँ पर सिर्फ माँ बनने की ही नहीं है और भी कई ऐसे पहलू है जिसमें हम औरतें खुद को दूसरों के नज़रिते से देखने लगती है।
यह गहरे मंथन करने कि बात है कि आखिर क्यूँ हम औरतें विश्वास नहीं करती खुद की क़ाबिलियत पर? अगर कोई सवाल उठा देता है कि एक औरत होकर तुम्हे यह करना नहीं आता तो आखिर क्यों औरतें हार मान लेती है और जवाब नहीं दे पाती है? जब कोई हमसे बोलता है कि, तुम एक अच्छी माँ नहीं हो, या अच्छी बीवी नहीं हो वगैरह-वगैरह जबकि हमें पता है कि हम हैं, फिर भी खुद पे भरोसा छोड़ कर हम उनकी बातों को सच क्यों मान लेती हैं?
कोई बात नहीं है अगर एक औरत परफ़ेक्ट नहीं है, तो क्या हुआ? औरतें भी एक इंसान है सिर्फ हाड़ मांस का कोई शरीर या फिर कोई मशीन या कोई कठपुतली नहीं, जिसकी डोर हमेशा दूसरे के हाथ में हो।
एक औरत अपनी इच्छाओं को परे रख अपनी परिवार को कितनी अहमियत देती है क्या बस ये ही आधार है उसके व्यक्तित्व का? क्या इन सवालों से बदल जानी चाहिए एक औरत होने की परिभाषा?
बिलकुल नहीं! और अगर बदलती भी है तो अब मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्यूंकि मैंने खुद को बराबरी का दर्ज़ा दे दिया है। मैनें अपने पंखों को खुद फैलाकर उड़ने का फैसला किया है।
मैंने खुद को बराबरी का हक़ दिया है। मैं जैसी भी हूँ, मैं खुद को वैसे ही स्वीकार करती हूँ।अब मैं किसी और की तारीफ़ों की मोहताज़ नहीं हूँ। मैं दिल छोटा नहीं करती हूँ अगर नहीं खरी उतर पाती हूँ दूसरों की अपेक्षाओं पर। क्यूंकि अब मैं जानती हूँ की मैं खुद में ही सक्षम हूँ।
मैंने उड़ना सीख लिया है, खुद को खुद से जोड़ लिया है। मिले ना मिले तवज़्ज़ो मेरी ख्वाहिशों को, मैंने खुद अपनी तस्वीर में रंग भरना सीख लिया है।
मूल चित्र – पुनर विवाह(2012)
I am a mom of two lovely kids, Content creator and Poetry lover. read more...
Please enter your email address