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विभाजन का दर्द झेल रही महिलाओं की आवाज़ थीं, बेगम अनीस किदवई

आज बेगम अनीस किदवई की पुण्यतिथी है, उनके बारे में तारीक के शक्ल में यह दर्ज है कि वह 1906 में पैदा हुईं और साहित्य अकादमी सम्मान से नवाज़ी गयीं।

आज बेगम अनीस किदवई की पुण्यतिथी है, उनके बारे में तारीक के शक्ल में यह दर्ज है कि वह 1906 में पैदा हुईं और साहित्य अकादमी सम्मान से नवाज़ी गयीं।

बेगम अनीस किदवई, जिनके बारे में तारीक के शक्ल में यह दर्ज है कि वह 1906 में पैदा हुई साहित्य अकादमी सम्मान से नवाज़ी गयीं। दो बार राज्य सभा सांसद रही, स्वयं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ी रहीं। स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी और सबसे बढ़कर बंटवारे में शरणार्थी कैम्प में जी जान से ख़िदमत की और आज के ही दिन 1982 में चल बसी, आज उनकी पुण्यतिथी है। इससे ज्यादा लोगों को उनके बारे में जानकारी नहीं है।

बेगम अनीस किदवई अपने शौहर की शहादत को जाया नहीं होने देना चाहती थीं

परंतु, बेगम अनीस का परिचय इन चंद लाइनों में देकर उनको समझा ही नहीं जा सकता है। भारत को आज़ादी मिलने के बाद जो दंगे-फसांद खड़े हुए उसमें उन्होंने अपना सब कुछ खो दिया। अपने शौहर को खोने के बाद उन्होंने रोते-रोते गम मनाते हुए इद्दत करने का मन नहीं बनाया। वह अपने शौहर की शहादत के पीछे काम करे रहे जज्बे को जाया नहीं होने देना चाहती थीं। वह उठीं और सैकड़ों किलोमीटर दूर दिल्ली में महात्मा गांधी के पास पहुंच गयीं।

बेगम अनीस किदवई रोने वालों को गले लगातीं

महात्मा गांधी ने उनको सुना, उनकी तकलीफ को महसूस किया और भर्राई आवाज में बोले, “तुम्हारा दर्द इतना भारी है कि इसकी कल्पना ही मुश्किल है। लेकिन तुम अनीस हो। तुम कैंपों में जाओ, जहां मासूम दिलों की भीड़ लगी हुई है। जाओ और उन्हें दिलासा दो।” तमाम गमों की मारी अनीस महात्मा की सलाह पर विभाजन के मारे लोगों के दुखों पर मरहम लगाने लगीं। उनके कदमों से शरणार्थी कैप गुलजार हो जाते। वे रोने वालों को गले लगातीं। अनगिनत अपहरन की गई लड़कियों को दूर-दूर से खोजकर लाती और परिवारों से मिलवाती।

किसी भी तरह के कट्टरता का पहला शिकार महिला ही होती हैं

जहां उन्होंने महसूस किया कि किसी भी तरह के कट्टरता का पहला शिकार महिला ही होती हैं। बंटवारें में लड़कियाँ ऐसे उठा ली जाती थीं, जैसे चील किसी गोश्त के लोथड़े को छीन ले जाए । लड़कियों के हाथों पर बलात्कारी अपना नाम गुदवा देते थे । लड़कियां लूट के माल की तरह एक हाथ से दूसरे हाथ होते हुए घरों के चूल्हों में झोंक दी जाती थीं । बंटवारे में मज़हब सनक बनकर इंसानियत से हैवानियत पर उतर आया था ।

एक एक लड़की को वापिस उसके परिवार में पहुँचाने वाली थीं बेगम अनीस किदवई

वह अपने आप में अकेली थीं शायद जिन्होंने कैम्प में लाशों को नहलाया, कफन दफन किया। यहां तक कब्रें भी खोदी। हज़ारों लड़कियों को जो बेच दी गई, जो उठा ले जाइ गई, जिन्हें भीड़ ने काफिलों से लूटकर छीन लिया,अपने घरों में बांध लिया, चुन चुन कर एक एक लड़की को वापिस उसके परिवार में पहुँचाने वाली थीं बेगम अनीस किदवई।

बेगम अनीस किदवई की ‘गुब्बार- ए- कारवां’ और ‘आज़ादी की छाँव में’ स्त्री के बतौर अभिकर्ता स्थापित होने की यात्रा है

बाद में, बेगम अनीस किदवई ने गुब्बार- ए- कारवां लिखी, जो पहले उर्दू में छपी। इनमें बेगम अनीस किदवई भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान हुए दंगों और शरणार्थियों की समस्या का आँखों देखा ब्यौरा प्रस्तुत किया। ‘गुब्बार- ए- कारवां’ और ‘आज़ादी की छाँव में’ – स्त्री के बतौर अभिकर्ता स्थापित होने की यात्रा है। जिसमें जो तत्कालीन भारतीय राजनीति में सक्रिय स्त्रियों की जानकारी ही नहीं बल्कि भारतीय मुस्लिम परिवारों में औरतों की स्थिति पर भी पर्याप्त प्रकाश है। ‘गुब्बार ए कारवां'(उर्दू) का हिंदी अनुवाद उनकी पोती प्रोफ़ेसर आयेशा किदवई ने किया है।

स्त्री-अस्मिता के महत्वपूर्ण सवाल सभ्य समाज से पूछती हैं

दंगों के दौरान हुई यौन हिंसा के दस्तावेज उनके संस्मरण में भरे पड़े हैं। इस नज़रिये से अनीस किदवई देश विभाजन और भारतीय राजनीति में राष्ट्रवाद के संक्रमण के दौर में स्त्री पक्ष पर पैनी नज़र रखते हुए महिलाओं के पक्ष की पुज़रोज वकालत करते हुए, स्त्री-अस्मिता के महत्वपूर्ण सवाल सभ्य समाज से पूछती हैं।

अनीस खुद भी औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकीं, ‘गुब्बार -ए-कारवां’ में वे बार-बार ज़िक्र करती हैं कि कैसे परिवार के लड़कों, चचेरे भाईयों को बोलते-सीखते सुनकर उन्होंने अंग्रेजी सीखी। तालीम के लिए वे जीवन भर बेचैन रहीं।  विभाजन के दौरान हुई हिंसा का जेंडर पक्ष उभारने वाली वे पहली स्त्री रचनाकार हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि वे कितनी चैतन्य थीं। वह अपने परिवेश में राजनीति, समाज और यौनिकता को महिलाओं के परिपेक्ष्य में समझ रही थी। बेगम अनीस स्त्रियों के आपसी वर्गीकरण,पुरुषों से उनके फर्क के साथ-साथ असहयोग आन्दोलन में इन पुरुषों के भागीदार हो पाने के पीछे छिपी स्त्री की भूमिका को रेखांकित करना नहीं भूलतीं है।

अनीस ने स्त्रियों की सीमाओं और गाँधी की राजनीतिक-सामाजिक भूमिका पर बड़ी बेबाक टिप्पणियां की हैं जो इतिहास को स्त्री दृष्टि से देखने की वकालत करता है। निचले तबकों, हरिजन जातियों के साथ मध्यवर्गीय हिन्दू-मुस्लिम समाज कभी गाँधी के विचार से सहमत नहीं हो पाया। किदवई ने इसे रेखांकित किया है कि सभा-सोसायटियों, सुधार-कार्यक्रमों के बावजूद मध्यवर्गीय लोगों ने हरिजनों को सहानुभूति तो दी, परन्तु उन्हें वैसे अपना नहीं सके जैसी परिकल्पना गांधी जी की थी, “…वो जब हरिजनों के लिए कुछ करते तो हमदर्दी व खुदा तरसी के जज़्बे के साथ न की उसको बराबरी के सतह पर लाने के लिए।”

आजादी के छांव में राष्ट्रवाद के स्त्री पक्ष को बताने वाली पहली किताब है

राष्ट्रवाद के स्त्री पक्ष को बताने वाली पहली किताब है जो देश विभाजन के दौरान और बाद के एक साल में भारत और पाकिस्तान की अवाम में पसरी अव्यवस्था, भ्रष्टाचार और धीरे धीरे इस्लामी राष्ट्र में बदलते जा रहे पाकिस्तान और अफवाहों से घिरे हिंदुस्तान के शरणार्थी शिविरों का लेखा-जोखा और विभाजन के व्यावहारिक पक्ष का यथार्थ चित्र उपस्थित करती है।

आज़ादी की छाँव में इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इतिहास की पुस्तकों में भारत –विभाजन के विषय में जो भी तथ्य और आंकड़े उपलब्ध हैं। उनमें समाज के हाशिये पर जी रहे लोगों की आवाज़ नदारद है..इनकी आवाज़ों को साधारण अति साधारण समझ कर उच्चवर्गीय राजनीति के बोझ तले दबा दिया गया। ऐसे में गद्य और केवल गद्य ही ऐसी विधा थी जिसमें शोषितों, पीड़ितों, हाशिये के लोगों की आवाज़, धार्मिक संवेदना के मुद्दों को इन दोनों देशों में अभिव्यक्त किया जा सकता था। स्त्री –आत्मकथाकारों ने देश-विभाजन से रूबरू होकर जो अभिव्यक्ति की वह स्त्री दृष्टि से देखे-झेले देश-विभाजन का प्रामाणिक आख्यान है।

नोट: इस लेख को लिखने के लिए “आजदी की छांव में” किताब का सहारा लिया गया है।

मूल चित्र : Goodreads/Google 

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