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एक सवाल मेरे हृदय को बार-बार चुभाता है कि क्यों नहीं, ये समाज उस बहू को समझ पाताजो चाहती परिवार संग अपनी एक पहचान बनाना?
एक सवाल मेरे हृदय को बार-बार चुभाता है कि क्यों नहीं, ये समाज उस बहू को समझ पाता जो चाहती परिवार संग अपनी एक पहचान बनाना?
एक सवाल मेरे मन में अक्सर आता है, कि क्यों नहीं ये समाज उस नन्ही को समझ पाता जो चाहती हैं पढ़ना,चाहती हैं भाई सा खेलना उनसा खिलखिलाकर हंसना?
एक सवाल मेरे दिल में कई बार आता है कि क्यों नहीं, ये समाज उस बेटी को समझ पाता जो चाहती हैं बढ़ना, कर्तव्य जो हैं भाई का उसे अपना भी करना?
एक सवाल मेरे हृदय को बार-बार चुभाता है कि क्यों नहीं, ये समाज उस बहू को समझ पाता जो चाहती परिवार संग अपनी एक पहचान बनाना, चाहती अपने प्रयासों का एक हक़ पाना?
एक सवाल मेरे मन में ऐसे आता है कि क्यों नहीं ये समाज उस सास को समझ पाता जो चाहती है सम्मान नए पद को पाने के बाद, जो चाहती थीं सम्मान खुद बहू बनने के बाद?
एक सवाल ऐसे मेरे दिल को यूं दुखाता है कि क्यों नहीं, ये समाज उस बुढ़िया को समझ पाता हैं जो चाहती है थोड़ा प्यार, थोड़ी इज्जत और जो चाहती सुने उसे भी कोई बार बार…
मूल चित्र : Canva
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