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घरेलू हिंसा अधिनियम क्या है और हमें इसके बारे में क्यों पता होना चाहिए?

घरेलू हिंसा अधिनियम क्या है और हमें इसके बारे में क्यों पता होना चाहिए और कितना कारगर है महिला सरंक्षण अधिनियम 2005, कुछ ऐसे प्रश्नों के जवाब आपके लिए। 

घरेलू हिंसा अधिनियम क्या है और आज हमें इसके बारे में क्यों पता होना चाहिए और कितना कारगर है महिला सरंक्षण अधिनियम 2005, कुछ ऐसे प्रश्नों के जवाब आपके लिए। 

भारतीय संविधान के निर्माण से लेकर अब तक कितने ही कानून बने, निरस्त हुए या बदले गए, ताकि महिलाओं तथा समाज के कमजोर वर्गों के विरुद्ध हो रहे अन्याय को विश्वस्त तरीके से रोका जाए और मानव समझते हुए उनके साथ अमानवीय नहीं मानवीय व्यवहार किया जाए।

ये मानवाधिकार की बात आज से नहीं बरसों से अरस्तु, प्लेटो के समय से “प्राकृतिक अधिकार ” के रूप में चल रही है जिसका आधार नैतिक मूल्यों को माना जा सकता है। पर वे असफल रहे क्योंकि समाज में सब नैतिकता और मानवाधिकार को सम्मान नहीं देते। अगर देते तो अन्याय ही न होते! तो इसका अर्थ है कि सभ्य समाज में अन्यायकारी शक्तियों को रोकने के लिए कानूनी दबावकारी शक्ति या डर होना चाहिए। और न्याय की धारणा ही सभ्य समाज की आधारशिला बनती है ।

इसलिए कई “आपराधिक कानून” बने ताकि न्याय की नींव मजबूत हो। परन्तु इन कानूनों के पीछे की दबावकारी शक्ति के कारण कभी-कभी झूठे केस में निर्दोष पति या ससुराल पक्ष वाले भी पिसते दिखाई दिए।

घरेलु हिंसा अधिनियम या घरेलु हिंसा से महिला सरंक्षण अधिनियम, 2005 क्या है?

क्या कोई ऐसा कानून नहीं हो सकता जो शिकायत करते ही पीड़ित को उस अन्याय की व्यवस्था से बाहर निकाल सुरक्षित करे, जब तक चल रहे केस में सच-झूठ के आधार पर दीर्घकालिक न्यायपूर्ण फैसला न हो जाए?

हाँ जी ! ये ऐसा ही महत्वपूर्ण अधिनियम है जिसे घरेलु हिंसा अधिनियम या घरेलु हिंसा से महिला सरंक्षण अधिनियम 2005 (Domestic Violence Act, 2005) का नाम दिया गया है।

यहां महिला शब्द समाज के उस वर्ग का परिचायक है जो अमूमन अन्याय का ज़हरीला दंश झेलता है और वो है महिलाएँ तथा बच्चे जिनको शारीरक रूप से समाज के बाकी वर्गों से कमज़ोर गिना जाता है और जो दमनकारी वृति के लोग अपने तन-मन-धन की विकृतियों की भड़ास इन्हीं पर निकाल कर स्वयं को बलिष्ठ होने की कसक निकाल लेते हैं ।

लेकिन महिलाएँ और बच्चे विरोध क्यों नहीं करते?

क्योंकि बेगानों का विरोध निडर होकर करना इतना भी मुश्किल नहीं पर अपने ही परिवार के खून के रिश्तों, नजदीकी-दूर के रिश्तेदारों या विश्वासपात्र लोगों जैसे स्कूल , कोचिंग, कार्यक्षेत्र के लोगों के विरोध के समय हिचकचाहट उन महिलाओं या बच्चों के लिए एक ऐसे धर्म संकट के समान दिखाई देती है, जैसा कि अर्जुन को महाभारत युद्ध के समय दिखाई दिया होगा। जिसका उस समय आसान रास्ता चुप्पी ही दिखाई देती है। या नजरअंदाज करना ही उचित लगता है। परन्तु उसका संभवतः दीर्घकालिक अंत धर्मयुद्ध के इलावा और कोई नहीं हो सकता!

और ये इलाज बना है ये अधिनियम जो संजीवनी के समान ही है और इस महत्वपूर्ण कानून जिसको भारत की संसद द्वारा 13 सितम्बर 2005 में स्वीकृत और 26 अक्टूबर 2006 को लागू किया गया है।

इस कानून को संजीवनी क्यों कहा जा सकता है? क्या पीड़ा देने वाला उसी समय जेल चला जाएगा?

कृपया ध्यान से कानून का नाम पढ़ें। यह पीड़ित के लिए सरंक्षण का कानून है किसी को सजा देने का नहीं! अर्थात यह नागरिक के न्याय का अधिकार है न कि आपराधिक मामले के विरुद्ध शक्ति प्रयोग का अधिकार!

इसका अर्थ यह है कि मान लीजिए किसी के साथ उत्पीड़न होता है तो शिकायत दर्ज करवाते ही 3 दिनों के भीतर पहली सुनवाई शुरू करने का प्रावधान तथा सुनवाई के साथ ही त्वरित *अल्पावधि (थोड़े समय के लिए) समाधान के लिए कदम उठाने की कार्यवाही शुरू हो जाती है। ताकि पीड़ित सुरक्षित रहे, जब तक की फैसला न हो जाए। और इसमें पहले दर्जे के मजिस्ट्रेट कई तरह के आदेश जारी कर पीड़ित को इस केस के चलने तक की समयावधि में सुरक्षित करने हेतु सार्थक प्रयास कर सकते हैं।

और इस अधिनियम के अनुसार यह केस भी 60 दिनों के भीतर खत्म करने को कहा गया है। परन्तु अदालतों में केस की भरमार के कारण अधिकतम 1 साल के भीतर न्याय हो जाने के आदेश दिए गए हैं। अर्थात यह अधिनियम काफी हद तक स्त्री-बच्चों के संबंध में मानवाधिकार संबंधी हनन को रोकने का प्रयास 3 दिनों के भीतर कर सकता है।

घरेलू हिंसा अधिनियम की परिभाषा विस्तरित रूप से समझाएँ कि इस घरेलु हिंसा अधिनियम की कानूनी परिभाषा क्या है? (Gharelu Hinsa ke liye kanoon)

ये घरेलु हिंसा से संबंधित सब अधिनियमों में श्रेष्ठ है क्योंकि इसकी परिभाषा इसके क्षेत्र को असीमित रूप से बढ़ा देती है।

सबसे पहले

घरेलु हिंसा अर्थात?

■ शारीरिक (मार-पीट, थप्पड़ मारना, डाँटना, दाँत काटना, ठोकर मारना, अंग को नुक्सान पहुंचाने संबंधी, स्वास्थ्य को हानि)
■ मानसिक ( चरित्र, आचरण पर दोष, अपमानित, लड़का न होने पर प्रताड़ित, नौकरी छोड़ने या करने के लिए दबाव,अपने मन से विवाह करने से रोकना ,जबरदस्ती विवाह के लिए दबाव,व्यक्ति विशेष से विवाह के लिए दबाव, आत्महत्या का डर देना,घर से बाहर निकाल देना)
■ शाब्दिक या भावनात्मक (गाली-गलोच, अपमानित)
■ लैंगिक ( बलात्कार, जबरदस्ती संबंध बनाना, अश्लील सामग्री या साहित्य देखने को मजबूर करना,अपमानित लैंगिक व्यवहार, बालकों के साथ लैंगिक दुर्व्यवहार)
■ आर्थिक ( दहेज़ की मांग, महंगी वस्तु की मांग, सम्पति की मांग, आपको या आपके बच्चे के खर्च के लिए आर्थिक सहायता न देना ,रोजगार न करने देना या मुश्किल पैदा करना ,आय-वेतन आपसे ले लेना, संपत्ति से बेदखल करना या डर देना)
■ यह अधिनियम व्यक्ति के किसी अधिकारों के हनन को भी हिंसा होने में समेटती है तथा हिंसा होने के डर को भी यह अनदेखा न कर उसका भी संज्ञान लेने की कोशिश करती है।

पीड़ित अर्थात?

एकल या संयुक्त परिवार की किसी भी महिला (माँ, बेटी(अपनी,सौतेली,गोद ली), बहन, विधवा औरत, कुँवारी लड़की, यहां तक कि लिव इन संबंधों या अवैध शादी संबंधों में रहने वाली महिला चाहे वो एक ही घर में रह रहे हों या नहीं , कार्यस्थल पर काम करती महिला)
बच्चे (गे, गोद लिए, सौतेले, रिश्तेदारों के, संयुक्त परिवार से किसी भी संबंध के, स्कूल वगैरह के संबंध में)

दोषी अर्थात?

पीड़ा देने वाला (महिला/बच्चे के संबंध में कोई भी पुरुष या महिला जैसे पति, पिता, बेटा, भाई, संयुक्त परिवार का कोई भी पुरुष सदस्य या महिला सदस्य सास, ननद, सेठानी, देवरानी भी हो सकता/सकती है)

अर्थात इस वृहद परिभाषा से पता चलता है कि यह कितना महत्वपूर्ण कानून है!

घरेलू हिंसा अधिनियम आपराधिक कानून 498 A से कैसे अलग है?

यह अधिनियम 498 A से बिल्कुल भिन्न है क्योंकि यह पीड़ित के सरंक्षण को निश्चित करने का कानून है। जो दोषी को सजा नहीं देता परन्तु अगर वह दोषी इस अधिनियम के अन्तर्गत दिए गए आदेशों की अवमानना करता है तो पारिवारिक मामलों को अर्द्ध आपराधिक मामलों की संज्ञा देते हुए आगे की प्रकिया में दोषी पक्ष को गिरफ्तार किया जा सकता है या वसूली की जा सकती है। और अगर पीड़ित महिला भारतीय दंड संहिता के तहत आपराधिक मुकदमे की याचिका दायर कर दे और दोष साबित हो जाए तो प्रतिवादी को अधिकतम 3 साल की जेल हो सकती है।

घरेलू हिंसा अधिनियम में शिकायत किस अधिकारी को तथा किन माध्यमों द्वारा की जा सकती है?

यह शिकायत इस घरेलू हिंसा अधिनियम के फॉर्म 1 में दी गई रिपोर्ट अनुसार ,उस पीड़िता/पीड़ित के नाम, आयु, पता, फोन नंबर, बच्चों की जानकारी,घरेलु हिंसा की घटना के पूरे ब्यौरे तथा संबंधित दस्तावेज़ लगा कर, पीड़िता/पीड़ित के हस्ताक्षर के साथ सुरक्षा अधिकारी के हस्ताक्षर के साथ यह प्रार्थना पत्र प्रथम दर्जे के मजिस्ट्रेट को जमा करवानी पड़ती है जिसकी एक-एक प्रति अपने पास, स्थानीय पुलिस थाने, सुरक्षा अधिकारी या सेवा सहायक को भी देनी पड़ती है।

मजिस्ट्रेट पीड़ित के घर की, कार्यस्थल की स्थानीय सीमा या दोषी व्यक्ति के घर की/दफ्तर की स्थानीय सीमा से संबंधित हो सकता है या जहां हिंसा हुई उस क्षेत्र की सीमा में भी शिकायत दर्ज करवाई जा सकती है। परन्तु संबंधित मजिस्ट्रेट कहीं के भी हों पर उनके आदेश पूरे भारत की सीमा के अंदर हर जगह मान्य होंगे ।

यह शिकायत पीड़ित/पीड़िता स्वयं, उसके संबंधी या ना भी हो जैसे पड़ोसी, राज्य द्वारा नियुक्त सुरक्षा अधिकारी, सेवा सहायक कोई भी इसकी शिकायत स्वयं संबंधित दफ्तर में जाकर, संबंधित दफ्तर या अधिकारी की ई.मेल, जारी किए गए फोन नंबर पर या 1091 पर भी दे सकता है।

घरेलु हिंसा अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

घरेलु हिंसा अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं – 

1) विस्तृत परिभाषा : इसकी वृहद परिभाषा में पीड़ित, दोषी, घरेलु हिंसा का अर्थ, रूप आदि ही इसे अत्यधिक महत्वपूर्ण बनाते हैं।

2) अधिकारी द्वारा जारी किए जाने वाले आदेश : इस अधिनियम के तहत मजिस्ट्रेट संबंधित परिस्थितियों की समीक्षा कर पहली सुनवाई के साथ ही कुल पाँच तरह के आदेश जारी कर सकते हैं ताकि पीड़ित/पीड़िता को उस हिंसा की अवस्था से निकाल कर राहत दी जा सके।

मजिस्ट्रेट निम्न पाँच अंतरिम आदेश दे सकते हैं :

सरंक्षण (प्रोटैक्शन) आदेश : सेक्शन 18 के अंतर्गत पीड़ित बच्चे/महिला की सुरक्षा निश्चित करने संबंधी आदेश जारी किया जाता है ताकि वह उक्त घर, स्कूल या कार्यक्षेत्र में हिंसा न होने से निडर और सुरक्षित रहे।

अभिरक्षा (कस्टडी) आदेश :  धारा 21 के अंतर्गत नाबालिग बच्चे की सुरक्षा की नजर से उसके अल्पकालिक अभिरक्षण (कस्टडी) का प्रबंध कर सकता है।

निवास आदेश : धारा 12 की उपधारा के अंतर्गत संबंधित एकल या सांझे घर में या सम्पत्ति में सुरक्षित रहने , या उसी स्तर के किराए के निवास की व्यवस्था जिसका ख़र्चा दोषी पक्ष ही उठाएगा। किसी भी विरोधी स्थिति को दूर करने के प्रयास का आदेश भी दिया जाएगा।

आर्थिक आदेश : धारा 12 की उपधारा 1 के अंतर्गत हुई हिंसा से जो भी नुकसान हुआ है उसके ऊपर के खर्च जैसे स्वास्थ्य या रहन सहन संबंधी को निश्चित करने संबंधी आदेश, बच्चों, घर की जरूरतों का खर्च उनके स्तर ,सम्पति और आय के आधार पर तय कर उसको जारी करवाना।

प्रतिकर (कम्पनसेटरी )आदेश : इसके तहत मजिस्ट्रेट स्थिति की गंभीरता को देखते हुए पीड़ित के पक्ष में उसकी सुरक्षा संबंधी हुए खर्चे की पूर्ती के लिए कोई भी एक पक्षीय फैसला दे सकता है। जब तक की सारी प्रक्रिया खत्म न हो जाए।

3) नियमित प्रक्रिया : मजिस्ट्रेट पूरी कोशिश करेगा कि निश्चित समयावधि के भीतर न्याय की प्रक्रिया समाप्त करने की कोशिश की जाए।

4) सुरक्षा अधिकारी की नियुक्ति : पहली सुनवाई के साथ ही पीड़ित बच्चे या महिला को उचित सलाह ,मार्गदर्शन देने के लिए इन सुरक्षा अधिकारियों की नियुक्ति (जो कि स्थानीय पुलिस थाने से संबंधित ,राज्य सरकार द्वारा इस कार्य के लिए विशेषतः नियुक्त अधिकारी )और सेवा सहयोगी जो कि महिलाएं ही रखी जाती हैं ताकि पीड़ित बिना हिचकचाहट के मदद ले सके। इन सबसे संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा संबंधित राज्य सरकार को आदेश जारी कर दिए जाते हैं। यह अधिकारी यह भी सुनिश्चित करेगें कि जो आदेश मजिस्ट्रेट ने दिए हैं उनका पालन हो परन्तु अगर यह अधिकारी, सेवा सहयोगी किसी भी तरह की अवमानना करते हैं तो इनके विरुद्ध भी कानूनी कार्यवाही का प्रावधान रखा गया है।

5) सलाहकार समिति बनाने के आदेश : मजिस्ट्रेट स्थिति के अनुसार एक पक्ष या दोनों पक्षों को उनके कल्याण से संबंधित उचित सलाह देने ,समझदारी से हल निकालने के लिए समिति बना सकते हैं या निर्देश दे सकते हैं ।

इस कानून के अंतर्गत कौन-कौन सी धारा की मदद ली जा सकती है?

घरेलू हिंसा अधिनियम के अन्तर्गत प्रमुख कानूनी प्रावधान निम्नलिखित हैं ।
1) धारा 4 : इसके अनुसार पीड़ित न्याय के लिए पुलिस अधिकारी, मजिस्ट्रेट से अपने या दोषी के संबंधित क्षेत्र में शिकायत दर्ज कर सकता/सकती है।
2) धारा 5,6,7,9 : इसके अनुसार पीड़ित को सरंक्षण का आदेश प्राप्त करने, सेवा सहायक की नियुक्ति, सरंक्षण अधिकारी की नियुक्ति, मुफ्त कानूनी सहायता संबधित अधिकारों की जानकारी मुहैया करवाई जाती है। और ये सब अपने दायित्व को अच्छी तरह निभाएंगे।
3) धारा 10 : संबंधित अधिकारी मजिस्ट्रेट को आगे सूचित करेगा।
4) धारा 12 : मुआवजे या नुकसान का आवेदन करना।
5) धारा 14,15 : मजिस्ट्रेट पीड़ित को सेवा सहायक की मदद के लिए निर्देश
6) धारा 16 : पक्षकार चाहें तो कार्यवाही बंद कमरे में हो सकती है।
7) धारा 17-18 : पीड़ित को सांझी गृहस्थी में निवास का अधिकार
8) धारा 19 : स्थानीय थाने को पीड़ित और उसके बच्चे के सरंक्षण के लिए निवास या भुगतान का आदेश
9) धारा 20-22 : वित्तीय असंतोष की भरपाई का आदेश
10) धारा 21 : संतान के संबंध में या मिलने संबंधी
11) धारा 24 :पक्षकारों को आदेश की प्रति निःशुल्क देना

घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत सरंक्षण अधिकारी के बारे में बताएं?

घरेलु हिंसा अधिनियम महिला बाल विकास द्वारा ही संचालित किया जाता है। शहर में महिला बाल विकास द्वारा जोन के अनुसार आठ सरंक्षण अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं जो घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं की शिकायत सुनते हैं और पूरी जांच पड़ताल कर केस को न्यायालय तक पहुंचाते हैं। ये सरंक्षण अधिकारी राज्य सरकारों द्वारा इसी कार्य के लिए समय-समय पर नियुक्त किए जाते हैं, जो कि संबंधित थाने के पुलिस अधिकारियों की भी समय-समय पर मदद लेते हैं।

मैंने तो घरेलू हिंसा अधिनियम में कई कमियों के बारे में सुना है?

जैसे कि इसमें समय अधिक लगता है, परिभाषा बहुत विस्तृत है, अधिकारियों का पूरा ब्यौरा नहीं देता , स्वभाव में दंडनीय कम है या पुरुषों से भेदभाव करता है। तो फिर इन कमियों के साथ किसी के साथ न्याय कैसे हो सकता है?

1) अधिक समय लगता है : जब भी कोई नियम, कानून बनते हैं तो कानून बनाने वाली संस्था उस समय यह काम इमानदारी से करती है ताकि कहीं भी न्याय तो सुनिश्चित हो जाए पर अन्याय बिलकुल न हो।
इसी तरह इस कानून का भी यही उद्देश्य है कि चाहे पूर्ण या दीर्घकालिक फैसले में देरी हो जाए परन्तु अगर कहीं अन्याय हो रहा है तो 3 दिन के भीतर इस अन्याय के क्रम को रोका जा सके और पीड़ित को सुरक्षित कर आगे की प्रकिया में जाँच-पड़ताल कर सुनिश्चित किया जाए कि दोषी वास्तव में दोषी है कि नहीं?

2) विस्तृत परिभाषा : इस घरेलू हिंसा अधिनियम की विस्तृत परिभाषा इसकी कमी नहीं विशेषता है ताकि न्याय से किसी को दूर न किया जा सके।

3) अधिकारियों का ब्यौरा : अगर आप धारा संख्या 5,6,7,9,10, 14,15,17,18,19 आदि पर ध्यान दें तो ये सब सरंक्षण अधिकारी, सेवा सहयोगी के बारे में उसके कार्यों के बारे में विस्तृत जानकारी देते हैं जो कि राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में आते हैं ।

4) स्वभाव में दंडनीय कम : वो इसलिए क्योंकि यह मामले परिवार के सदस्यों से संबंधित हैं तो यह घरेलू हिंसा अधिनियम दोषी को केंद्र न मान कर पीड़ित पर ही अपना ध्यान केंद्रित करता है।और उसको न्याय दिलाने की कोशिश करता है और अगर दोष साबित हो भी जाएं तो अर्द्ध आपराधिक केस की संज्ञा देकर जरूरत के अनुसार दोषी को प्रताड़ित करता है। और मामला गंभीर होने पर धारा 498 A आगे की प्रक्रिया संभाल कर दोषी को बनती पूरी सजा भी देती है।

5) पुरुषों से भेदभाव : हाँ, जब यह घरेलू हिंसा अधिनियम बना तो इसकी निचली अदालतों द्वारा दिए गए फैसलों से यह सब बातें सामने आई तो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फिर संशोधन किया गया कि इसमें दोषी के घेरे में केवल पुरुषों को ही नहीं, बल्कि औरतों और नाबालिग सदस्यों को भी लिया जा सकता है, तो अब यह दोष ख़ारिज हो चुका है।

व्यवहारिकता के धरातल पर घरेलू हिंसा अधिनियम कितना सफल रहा है? या ये केवल सजावट मात्र है?

घरेलू हिंसा अधिनियम या यूँ कहें कि कोई भी कानून नियम तभी सार्थक हैं अगर इनका क्रियान्वन या एक्सेक्यूट करने वाले भी इसे उसी गंभीरता और वफादारी से लागू करें, जैसे कि रायपुर पुलिस के एस एस पी आरिफ शेख की हिम्मत से चुप्पीतोड़ अभियान चलाया गया जिसने लॉकडाउन 1 के समय पहले के घरेलू हिंसा के केस संबंधी व्यक्तिगत तौर पर संज्ञान लिया। टोल फ्री नंबर वायरल कर इस समय घरेलू हिंसा से बचने को प्रेरित किया और जरूरत पड़ने पर घर-घर जाकर भी जानकारी ली और संतुष्ट होने पर केस खत्म किए।

इस समय के दौरान वॉटस्ऐप का भी सहारा लिया गया।और इस अभियान करके अंतर्गत गुजरात, उत्तर प्रदेश, राजस्थान के पीड़ित लोगों को भी न्याय दिलवाया गया।

इसी तरह पंजाब में भी इस दौरान जब घरेलू हिंसा के मामले बढ़े तो ईमेल (लगभग-22), वॉटस्ऐप, फोन (रोज़ एक मामला)के जरिए आए मामलों पर सक्रियता से कार्य कर अधिक से अधिक मामलों का निपटारा किया गया।

इसी तरह बिहार में भी इस समय दौरान 1384 घरेलु हिंसा संबंधी मामले संज्ञान में लिए गए ।

तो इन उदाहरणों से सिद्ध होता है कि कानून तो महत्वपूर्ण है ही पर उनसे भी महत्वपूर्ण कानून लागू करने वाली संस्थाएं , अधिकारी और इन सबसे महत्वपूर्ण वह महिलाएं या बच्चे जो अपने विरुद्ध हो रहे अन्याय से बाहर निकलने को स्वयं तैयार हों उनकी इच्छाशक्ति मजबूत हो तो सब कानून सफल और बाकी के प्रबंध भी सफल।

परन्तु अगर इतने बढ़िया कानून होने के बावजूद भी हम एक चीख से दोषी के कानों के पर्दे न फाड़ सकें उसे सबके सामने दोषी न सिद्ध कर सकें तो कानून के तामझाम से क्या लाभ? क्योंकि एक का न्याय लाखों के न्याय का रास्ता बन सकता है और एक की ढीठ चुप्पी लाखों के साथ होने वाली अन्याय की त्रासद कहानियों का सीरियल बन सकती है।

तो आएं अपने अधिकारों को जानें, स्वयं को मानव जाति का महसूस करने के लिए इन कानूनों का जरूरत पड़ने पर प्रयोग करें, चुप्पी तोड़ें और ये जानकारी जन-जन तक पहुंचाएँ।क्या पता अनजाने ही आप किसी मासूम या कोमल हृदय को खुली साँस का आसमान नहीं तो कोना ही दे पाएं । और एक बार जो अंधेरी गली से बाहर आ गया तो फिर अंधेरे उसे वापस नहीं खींच सकते।

मूल चित्र : Still from the clip, Thappad Pe Disclaimer?, T-Series, YouTube 

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