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क्या ‘सिंदूर से इंकार, तलाक का आधार’ पुरुषवादी फेमिनिज़्म का पहला पाठ है?

अब से महिलाओं के साथ-साथ शादीशुदा पति भी प्रतिकात्मक चिन्ह का प्रयोग करें, नहीं तो इस पुरुषवादी फेमिनिज़्म की हमें कोई ज़रुरत नहीं।

अब से महिलाओं के साथ-साथ शादीशुदा पति भी प्रतिकात्मक चिन्ह का प्रयोग करें, नहीं तो इस पुरुषवादी फेमिनिज़्म की हमें कोई ज़रुरत नहीं।

हलिया रिलीज हुई फिल्म बुलबुल में जब बच्ची बुलबुल की शादी होने वाली है तो वह अपनी पिसी मां से पूछती है, “पांव में बिछुआ क्यों पहनते है?” तो पिसी मां कहती है, “उड़ने वाली लड़की को वश में करने के लिए।” परंतु आज की सच्चाई यह कि बिछुआ भी उड़ने वाली लड़कियों को वश में नहीं कर सकता है।

अगर शादी के प्रतीक नहीं तो शादी नहीं?

मजेदार बात यह है कि गुवाहाटी हाईकोर्ट ने अपने हलिया फैसले में कहा है कि पत्नी के सिंदुर लगाने से इंकार का मतलब वह शादीशुदा जिंदगी आगे नहीं जीना चाहती, यह तालाक का आधार है। बेंच ने अपने फैसले में कहा – हिंदू रीति-रिवाजों के हिसाब से शादी करने वाली महिला अगर सिंदूर नहीं लगाती, बिछुआ नहीं पहनती और चूड़ी नहीं पहनती है तो ऎसा करने से वह अविवाहिता लगेगी और यह प्रतीकात्मक तौर पर शादी से इन्कार माना जाएगा। मुख्य न्यायाधीश अजय लांबा और न्यायमूर्ति सौमित्र सैकिया सहित हाईकोर्ट के दो सदस्यों ने कहा कि ‘‘ऐसी परिस्थितियों में, पति को पत्नी के साथ वैवाहिक संबंध जारी रखने के लिए मजबूर करना उत्पीड़न माना जा सकता है।’’

गुवाहाटी हाई कोर्ट ने अपनी इस टिप्प्णी के साथ एक पति की ओर से दायर की गई तालाक याचिका को मंजूर भी कर लिया।

पुरुषों के शादीशुदा लगने के चिन्ह क्या हैं?

अधिकांश महिलाएं सधवा धर्म के पालन के लिए सिंदूर के साथ अन्य प्रतिकात्मक चिन्हों का प्रयोग करती हैं, जबकि पुरुष इस तरह का कोई विवाह चिह्न धारण नहीं करते। यह सामाजिक विभेद की प्रवृत्ति को बतता है। आज की युवा पीढ़ी धीरे-धीरे इससे दूर जा रही है वह भी बिना किसी हो-हल्ले के। यह भी उतना ही सही है जितनी पहली बात। तब कोई न्यायालय सिंदुर के प्रयोग को तालाक का आधार कैसे मान सकता है?

ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक सोच

साफ है ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक सोच के अनुसार महिला का शादीशुदा दिखना ज्यादा ज़रूरी है इसलिए इस तरह के फैसले सामने आते हैं। इस फैसले को सर्वोच्च अदालत में चुनौति तो जरूरी ही दी जानी चाहिए। साथ ही साथ यह सवाल भी नथ्थी किया जाना चाहिए कि महिलाओं के साथ-साथ शादीशुदा पति भी कोई प्रतिकात्मक चिन्ह का प्रयोग करे। अगर पति इस प्रतिकात्मक चिन्ह का प्रयोग नहीं करता है तो वह भी तालाक का आधार बने। इससे और कुछ हो न हो पारिवारिक अदालतों में लटके पड़े तालाक के मामलों का निपटारा जल्दी हो जाएगा।

आधी आबादी के संवैधानिक स्वतंत्रता के अधिकारों की रक्षा कौन करेगा?

आज से पहले धार्मिक पंडित, मौलवियों और उलेमाओं से महिलाओं के स्वतंत्रता के विरोध में बैसिर-पैर के फतबे सुनने को मिलते थे। अब न्याय देने वाली लोकतांत्रिक संस्था इस तरह के फैसले देने लगी तो आधी आबादी के संवैधानिक स्वतंत्रता के अधिकारों की रक्षा कौन करेगा? यह सवाल अधिक प्रासंगिक हो जाता है कि क्या यह महिलाओं को संविधान मिले स्वतंत्रता के अधिकार का हनन नहीं है?

प्रतिकात्मक चिन्हों का प्रयोग किसी महिला का व्यक्तिगत मामला हो सकता है

जहां तक बात है कि सिंदुर के साथ अन्य प्रतिक जैसे मंगल-सूत्र या अन्य प्रतिकात्मक सामाजिक व्यवहार की, तब उनमें से मंगलसूत्र का प्रयोग मैंने अपनी मां-दादी और नानी को करते हुए नहीं देखा है। फिल्मों में इसके प्रयोग की प्रासंगिकता का चयन हमारे सामाजिक व्यवहार का हिस्सा बनते चल गया और धीरे-धीरे यह फैलता चला गया। फिर इसके प्रयोग न करने को वैवाहिक जीवन का आधार कैसे माना जा सकता है?

जाहिर है यह महिलाओं के अपने स्वायत समाज में सांस्कृतिक विविधता का मामला भी है जिसे पूरी महिला आबादी पर थोपा नहीं जा सकता है। सिंदूर लगाना और अन्य प्रतिकात्मक चिन्हों का प्रयोग किसी महिला का व्यक्तिगत मामला हो सकता है।

यह बात अलग है कि भारतीय हिंदू समाज में महिलाएं मांग में सिंदुर लगाएं, इसके आध्यात्मिक और वैज्ञानिक, दोनों ही तरह के तर्क दिए जाते हैं जो अपने-आप में कई रहस्य को समेटे हुए हैं। जिसपर यदा-कदा पर अखबारी और पत्रिकाओं के फीचर पेज पर विमर्श और चर्चा की भी जाती है। पर इसकी पुष्टि भी कौन करेगा?

इन प्रतीकों का इस्तेमाल औरतों को सांस्कृतिक गुलाम बनाता है

आज जरूरत इस बात की अधिक है कि महिलाओं को इस बात के लिए जागरूक किया जाए कि वैवाहिक जीवन में प्रवेश के साथ ही इस तरह के प्रतिकों का इस्तेमाल कैसे उनको सांस्कृतिक गुलाम बनाता है? इसके प्रयोग के साथ ही वो वैवाहिक जीवन में प्रवेश तो पा जाती है पर यही प्रतीक उनकी व्यक्तिगत आजादी को नियंत्रित भी करती है।

आज महिलाओं को जो भी सामाजिक स्वतंत्रता मिली है फिर चाहे वह पढ़ने-लिखने की हो या निजी और सार्वजनिक स्पेस में काम करने की हो। वह संवैधानिक अधिकारों से मिली है न की सांस्कृतिक प्रतिकों के इस्तेमाल करने से मिली है।

लोकतांत्रिक अधिकार महिलाओं को सुरक्षित रख सकते हैं

जिस तरह समाज को गतिशील रखने के लिए लोकतांत्रिक परिवार और विवाह जैसी संस्था का होना जरूरी है, उसी तरह इन संस्थाओं में महिलाओं को आत्मनिर्भर होने के लिए इन संस्थाओं में महिलाओं के लोकतांत्रिक अधिकारों का होना भी जरूरी है। यही लोकतांत्रिक अधिकार महिलाओं को सुरक्षित रख सकते हैं न कि पुरुषवादी फेमिनिज़्म के विवाह संस्था में प्रवेश दिलाने वाले प्रतिकात्मक चिन्हों का प्रयोग। इसके बारे में पूरी की पूरी आधी आबादी को सचेत और जागरूक होना होगा।

सामाजिक संस्थाओं का जेंडर के प्रति संवेदनसील होना अधिक आवश्यक है

दूसरी मुख्य बात यह है कि आजादी के बाद समाज के बड़े हिस्से को महिलाओं के संघर्ष के इतिहास के साथ अन्य कई सामाजिक व्यवहारों से परिचिय करा कर, समाज को जेंडर संवेदनशील बनाने का प्रयास किया जाता रहा है। परंतु, तमाम सामाजिक संस्थाओं को जेंडर संवेदनशील बनाने के लिए जो प्रयास होने चाहिए थे वो कभी नहीं किए गए। तभी इस तरह के पुरुषवादी फेमिनिज़्म के गैरजरूरी फैसले, फतवे और फरमान हमारे सामने आते रहते हैं।

समाज के साथ-साथ सामाजिक संस्थाओं का जेंडर के प्रति संवेदनसील होना अधिक आवश्यक है क्योंकि सामाजिक संस्थाओं के सामाजिक व्यवहार से ही समाज का जीवन संचालित होता है।

गुवाहाटी हाईकोर्ट का हलिया फैसला उन महिलाओं के सामाजिक जीवन में आघात है जो विवाह से जुड़ी सांस्कृति दास्ता के बेड़ियों से आजाद है और आत्मनिर्भर है। गुवाहाटी हाईकोर्ट का फैसला पुरुषवादी फेमिनिज़्म का पहला पाठ है।

मूल चित्र :  Canva

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