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माँ, आईने के सामने, आज बाल बनाते, तेरी झलक, कुछ उतर आई थी, जवाब सरल था, मेरी हर बातों का, कि बच्चे आ जाते हैं, पहले! बस इतना ही, कह जाती थी!
अम्मा, एक निवाला खाते-खिलाते!कुछ बात ज़हन में आई, आज!कैसा-कैसा कह जाती थी, मैं!जब अपनी थाली से, खाने को,तुम दुपहर, देर लगाती थी।
बच्चों के कपड़े, छांट-छांट कर,हाथ से धोने, ज्यों ही बैठी!मन घर कर गई, वो सारी बातें!जब टाल भर, हम सब के मैले,चंपा कली के नीचे, सजाती थी।
आज सब की फरमाइश पर,पकौड़े तलने बैठ गई, मैं।अनायास! थकी तेरी काया,चूल्हे की ताप से बातें करती,रोटी थाप लगाती थी।
इस बंद पड़ी, एक भोर पहर!अलमारी के पीछे का, धूल-झोल,आँख मींचते लगा, एक पल!कैसे घर का कोना-कोना और बगीचा,तुलसी-चौरा, सब चमकाती थी।
बैग फेंक, जब नन्हें शैतान!घर भर नखरा, तान दिखाते हैं।माँ! कैसे हमारे बस्ते बोझ को,और उन ऊल-जलूल सवाल-जवाब को,चावल के कौर से भर जाती थी।
कद से लम्बी, बातें बड़ी-बड़ी,एक छींक और एक आह सुन,कैसे अपने ताप ज्वार को,और टूटती कमर को भूल,तुम माथा मेरा, सहलाती थी।
आईने के सामने, आज बाल बनाते!तेरी झलक, कुछ उतर आई थी!जवाब सरल था, मेरी हर बातों का!कि बच्चे आ जाते हैं, पहले!बस इतना ही, कह जाती थी!
मूल चित्र: Canva
A space tech lover, engineer, researcher, an advocate of equal rights, homemaker, mother, blogger, writer and an avid reader. I write to acknowledge my feelings. read more...
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