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प्रतिष्ठित नारीवादी लेखिका महाश्वेता देवी के उपन्यासों को ट्रेन और बसों के सफर में पढ़ना और उनके रचना संसार में खो जाना तो मेरे लिए आम बात थी।
तीन साल पहले 28 जुलाई 2016 को दुनिया को अलविदा कहने वाली प्रतिष्ठित नारीवादी लेखिका महाश्वेता देवी को मैं उनके लिखे उपन्यासों से ही जानता था। ट्रेन और बसों के सफर में उनके उपन्यासों को पढ़ना और उनके रचना संसार में खो जाना तो जैसे आम बात थी।
उनके रचना संसार में अरण्येर अधिकार, अग्निगर्भ, हाज़ार चुराशीर मा, चोट्टी मुंडा एवं तार तीर, शालगिरार डाके, शिकार पर्ब, अग्निगर्भ, तितु मीर और रुदाली बीकांम तक पढ़ चुका था। एम.ए की पढ़ाई के लिए जब दिल्ली से वर्धा जा रहा था तब जंगल के दावेदार खरीदी, जो मुझे सबसे ज़्यादा पसंद भी है।
साल भर बाद वर्धा स्थापना दिवस के एक प्रोग्राम में मुख्य अतिथि के रूप में उनका स्पीच सुन रहा था, जिसमें वह गाँधी-टैगौर और बोस शांति निकेतन में बिताए दिनों के बारे में बता रही थीं। समकालीन लेखक नामचास्की से मिलने की बात बताते हुए अपने अनुभवों को भी सुना रही थीं और मैं गर्व महसूस कर रहा था कि शायद कभी मौका मिलेगा तो मैं भी अगली पीढ़ी से कहूंगा, “मैंने महाश्वेता देवी को पढ़ा, सुना, मिला और कई बातें भी की हैं।”
पहली मुलाकात में मैंने जब उनसे पूछा, “लोग आपकी रचना संचार में हज़ार चौरासी की माँ और रुदाली का अधिक ज़िक्र करते हैं, मुझे लगता है जंगल के दावेदार आपकी सबसे अच्छी रचना है। उसपर अधिक बात नहीं हुई जितनी की वह हकदार है।”
उन्होंने मुझे ध्यान से देखते हुए कहा, “बात सही है, हज़ार चौरसी की माँँ और रुदाली पर फिल्में बन गई तो लोगों को अधिक पसंद आई, फिल्म देखने के बाद लोगों ने किताबें पढ़ने के लिए अधिक खरीदी। किसी लेखक से उसकी सबसे अच्छी रचना के बारे में पूछना नादानी है मगर जंगल के दावेदार मुझे भी सबसे अधिक प्रिय है। उसको लिखने में सात साल का मेहनत लगा था और वह आदिवासी संघर्ष के ज़्यादा करीब है इसलिए भी।”
उनसे अगला सवाल मैंने पूछा, “जंगल के दावेदार या चोट्टी मुंडा का तीर उपन्यास के नायक किसी ना किसी खास समय के जीवित पात्र हैं। इन ऐतिहासिक पात्रों को गढ़ने में आपकी तैयारी कैसी होती है?”
इसपर उन्होंने कहा, “झांसी की रानी मेरे जीवन का पहला उपन्यास होने वाला था। झांसी की रानी पर तमाम इतिहास पढ़ने के बाद भी उनके भीतर और झांकने की इच्छा थी। उस किरदार में छुपी एक संपूर्ण, नारी और उनके मन को खोजना था, जो अभी तक पढ़ने को नहीं मिला था।”
उन्होंने आगे कहा, “मैंने झांसी जाना तय किया, स्थानीय लोगों की श्रुति परंपरा में अनछुई कहानियां खोजी फिर जाकर झांसी की रानी के नारी चरित्र और जीवन पर पहला उपन्यास झांसी की रानी आया। इसी तरह हर उपन्यास के नायक के चरित्र को संजीव करने के लिए सारी मेहनत करनी पड़ती है, जिसे आजकल की भाषा में एथनोग्राफी रिसर्च भी कहते हैं।”
इसके बाद उन्होंने अपने कुछ और उपन्यासों के चरित्र के बारे में बताया। मसलन, ‘द्रौपदी’ नामक उनका उपन्यास हिमालय में बसे गुज्जर जनजाति में प्रचलित परंपरा पर आधारित था। एक औरत तीन या चार भाइयों के साथ ब्याही जाती थी लेकिन पत्नी मुख्य तौर पर एक की ही होती थी।
बाद में, बाकी भाई अलग-अलग शादियां कर सकते थे। ‘रुदाली’, महाश्वेता देवी का यह उपन्यास ग्रामीण इलाकों की, खासतौर पर राजस्थान की उन महिलाओं की जीवन विडंबना दर्शाता है जिनसे मातम पर जबरन रोने का काम करवाया जाता है। ‘अरण्येर अधिकार’, यह कहानी झारखंड के जंगल के अधिकारों पर आधारित थी। इसी तरह महाश्वेता के और साहित्यिक कार्य जैसे, ‘हज़ार चौराशीर माँ’ और ‘बाशाई तुदु’ भी भारत के अलग-अलग प्रांतों में चल रहे विभिन्न आंदोलनों से जुड़े रहे थे।
मैंने उनसे अपना आखरी सवाल पूछा, “आपके उपन्यासों को कभी ना खत्म होने वाली यात्रा मानी जाए, जिसमें आपके नायक यथार्थ को पकड़ने की कोशिश करते हैं और उसको अभिव्यक्त करते है।”
उन्होंने कहा, “कोशिश तो यही रहती है।”
इसके बाद के सवाल मैंने उनके पारिवारिक चीज़ों पर की। उन्होंने बताया कि मेरे लेखन के लिए और जिस तरह से मैं लिखना चाहती हूं, वे मेरे जीवन में उतार-चढ़ाव लाते गए। मैंने कभी समझौता नहीं करने का निश्चय किया। मैं पढ़ती रही, लिखती रही, आंदोलनों से जुड़ी रही और लोगों को पसंद आने के साथ-साथ मशहूर और मशरूफ दोनों रही।”
अंत में उन्होंने मुझसे पूछा, “तुमने मेरे कौन-कौन से उपन्यास पढ़े हैं?” मैंने एक-एक कर उन उपन्यासों के बारे में उन्हें बताया फिर उन्होंने उपन्यासों से जुड़े सवाल पूछने शुरू किए और मैंने जवाब देना। अंत में उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “मुझे खुशी है तुमने मुझे पढ़ा है, तभी इतने गहरे सवाल तुमने पूछे, पढ़ते रहना। बात करते रहना और कोलकता आना तो मिलना।”
मैं अन्य लेखकों से महाश्वेता देवी के लेखन की तुलना नहीं करना चाहूंगा मगर उनके लेखन में एक अलग शैली थी, जो अपने अंदर एक सम्मोहन रचती है। कभी झांसी की रानी जैसा साहस, कभी द्रौपदी जैसी नियति के करीब तो कभी रुदाली। अपने जीवन यात्रा में महाश्वेता देवी नारी पात्रों की छवि को वास्तविक जीवन में महसूस कराती हैं, तो कभी आदिवासी शौर्य और संघर्ष को ‘चोट्टि मुंडा और उसका तीर’ और ‘जंगल के दावेदार’ के ज़रिये रूबरू करवाती हैं। आज वह नहीं हैं मगर उनके विचार, उनकी लेखनी से कलमबद्ध होकर उनके उपन्यासों, कहानियों और रिपोतार्ज में दर्ज़ हैं।
उनके साथ कई बातों-मुलाकातों के प्रसंग हैं मगर उनसे मेरी पहली मुलाकात कभी भुलाए नहीं भूलती।
मूल चित्र : Google
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