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क्यों समाज को नहीं स्वीकार निरंकुश और बेख़ौफ़ सी स्त्रियाँ?

स्त्रियों ने स्वयं ही ओढ़ लिए हैं सारे बंधन, कभी मर्यादा के नाम पर, तो कभी यूँ ही रस्मों रिवाजों के नाम पर लगा लिए हैं कड़े पहरे अपने निरंकुश विचारों पर !

स्त्रियों ने स्वयं ही ओढ़ लिए हैं सारे बंधन, कभी मर्यादा के नाम पर, तो कभी यूँ ही रस्मों रिवाजों के नाम पर लगा लिए हैं कड़े पहरे अपने निरंकुश विचारों पर !

निरंकुश, बेख़ौफ़ जीना,
होता मनुज का सपना !
हर स्त्री भी शायद…
यही सपना देखती है !
निरंकुशता का सुनहरा रंग,
अपने सपनों में भरती है !

परन्तु…
पिता की आँखों में
खटकती हैं…
निरंकुश बेल सी
बढ़ती बेटियाँ !
पति की उम्मीदों पर
खरी नहीं उतरतीं,
निरंकुश होती पत्नियाँ !
समाज को स्वीकार नहीं
निरंकुश सी स्त्रियाँ !

इसीलिए पहनाई
गई हैं बेड़ियाँ…
रस्मों और रिवाजों की…
क़ायदों और रिवायतों की !
ताकि निरंकुश जीना भूल,
क़ैद में रहें स्त्रियाँ !
नुकीले अंकुश की टीस,
सदा महसूस करें स्त्रियाँ !

स्त्रियों ने स्वयं ही
ओढ़ लिए हैं
सारे बंधन…
कभी मर्यादा के नाम पर,
तो कभी यूँ ही..
रस्मों रिवाजों के नाम पर..
लगा लिए हैं कड़े पहरे..
अपने उन्मुक्त निरंकुश
विचारों पर !

कटु सत्य है यह…
स्त्री को रास आती है
कदाचित् यह दासता
उसे सदा भाती है…
पुरुष की अंकुशता !
दूसरों की छत्र छाया,
बनती महती आवश्यकता !
नारी है, उसे रहना है,
सदा बन कर उत्तम !
दूसरों से प्रशंसा पाना
बनता है लक्ष्य सर्वोत्तम !

बस इसी लालसा में
स्त्री जीवन बीता जाता है ।
निरंकुश बन जीना….
इक सपना बन जाता है !
तब अपने निरंकुश विचारों को
कोरे काग़ज़ पर उकेरती हैं स्त्रियाँ…
लेखनी को धार बनातीं,
कुछ निरंकुश बेख़ौफ़ सी स्त्रियाँ !

मूल चित्र : Canva  

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