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वैसे दोनो पुरुष हैं, एक के लिए उसका अहम सर्वोपरि है और एक है, जो बस जैसा है वैसा ही रह गया है कोई मिलावट नहीं, सौ प्रतिशत शुद्ध।
फोन की घंटी लगातार बज रही थी, सुमन ने जल्दी-जल्दी में दरवाजे में लगा ताला खोला और दौड़ती हुई फोन के पास पहुंची, रिसीवर उठा कर कान में लगाया तो दूसरी तरफ से जानी-पहचानी सी आवाज़ आई, “कैसी हो सुमन?”
ज्यादा वक्त नहीं लगा उसे उस आवाज़ को पहचानने में, ” नरेंद्र! कैसे हो तुम?”
“मुझे पता था कि तुम मेरी आवाज़ जरूर पहचान लोगी, पता है टेलीफोन डायरेक्टरी से तुम्हारे घर का नंबर तो ले लिया था, लेकिन इस बात का डर था कि कहीं तुमने भी लैंडलाइन छोड़ मोबाइल इस्तेमाल करना ना शुरू कर दिया हो।” दूसरी तरफ से आवाज़ आई।
“अच्छा ये सब छोड़ो ये बताओ फोन क्यों किया है?” सुमन ने झुंझलाते हुए पूछा।
“एक बार मिलना चाहता हूं तुमसे, प्लीज़ सुमन मना मत करना।”
” ठीक है, कल शाम पांच बजे उसी कैफे में मिलते हैं।” सुमन ने कहा और रिसीवर रख कर वहीं फर्श पर बैठ गई। उसे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था क्यों उसने नरेंद्र से मिलने की हामी भरी? काफी देर तक वहीं बैठी रही, शाम होने को आई तो उसे ध्यान आया पलाश आते ही होंगे और आते ही कहेंगे बड़े जोर की भूख लगी है, जल्दी से कुछ खाने को दो, पलाश की याद आते ही उसके होंठों पर मुस्कुराहट आ गई, जल्दी से उठी और खाने की तैयारी करने लगी।
थोड़ी देर बाद दरवाजे की घंटी बजी, सामने पलाश खड़े थे मुस्कुराते हुए। सुमन पल भर को सोचने लगी – पलाश की यही बात सबसे अच्छी है, कितने भी थके क्यों ना हों, घर आते हैं तो मुस्कुराहट लिए।
“क्या सोचने लग गई मैडम? ये लो, टिफिन पकड़ो, क्या बनाया है आज?” कहते-कहते सीधा रसोई के दरवाजे पर थे पलाश, वह तो सुमन ने आंखे दिखाई तो रुक गए वरना जनाब जूते पहने हुए ही रसोई में प्रवेश करने वाले थे।
“जाइए पहले फ्रेश होकर आइए, तब तक मैं चाय बनाती हूं।” सुमन ने कहा तो, “हां! यूं गया और यूं आया।” कहते स्नानघर में चले गए।
सुमन फिर सोचने लगी, कितना फर्क है, पलाश और नरेंद्र में। दोनो पुरुष हैं, एक के लिए उसका अहम सर्वोपरि है और एक है, जो बस जैसा है वैसा ही रह गया है कोई मिलावट नहीं, सौ प्रतिशत शुद्ध। वैसे तो जिंदगी पलाश जैसे लोगों के लिए ज्यादा कठिन हो जाती है जो सौ प्रतिशत शुद्ध होते हैं, फिर भी पलाश जैसे जीवनसाथी को पाकर वह खुद को परिपूर्ण क्यों महसूस करती है, जबकि पलाश उसकी नहीं उसके पापा की पसंद थे और नरेंद्र उसकी पसंद था।
” आज चाय चूल्हे को ही पिलाने का इरादा है क्या?” पलाश की आवाज़ सुनकर अपनी सोच से बाहर आई तो देखा चाय आधी हो गई है।
“मैं फिर से बना लेती हूं।”
” अरे! नहीं, आओ ना इसी में आधी-आधी पी लेते हैं।”
वह मुस्कुराई, चाय पीते-पीते उसने बात शुरू की, “आज नरेंद्र का फोन आया था, कल मिलने बुलाया है उसी कैफे में, और मैंने हां कह दिया।” किसी अपराधी कि तरह सर झुका कर उसने कहा।
“ठीक है।” पलाश ने उत्तर दिया।
“तुम्हें बुरा नहीं लगा?”
“बिल्कुल नहीं, तुम जो करोगी, उचित ही करोगी, ऐसा मेरा विश्वास है और नरेंद्र कोई अजनबी नहीं है, तुम्हारा पूर्व पति है, तुम उसे अच्छी तरह जानती हो।” सुमन जानती थी पलाश ऐसा ही कुछ कहेंगे। इस वक़्त अगर पलाश की जगह नरेंद्र होता तो कितना नाराज़ होता और तो और उसे जाने भी ना देता।
सुमन मुस्कुराई, कितनी आसानी से उसने बिना पापा की बात सुने नरेंद्र का हाथ थाम लिया था और जब नरेंद्र ने एक ही साल के बाद उसके हाथों में तलाक के कागज़ रख दिए तो उसे लगा था जैसे अब सब कुछ खत्म हो गया, अब उसकी ज़िंदगी में कुछ बचा ही नहीं है।
अगर उस दिन पापा सब भूल कर उसके दरवाजे पर ना आए होते, तो पता नहीं आवेश में आकर उसने क्या कर लिया होता। उस वक्त तो शायद वह कुछ भी कर बैठती। नींद नहीं आ रही थी आज उसे और फिर पता नहीं कब यही सब सोचते-सोचते आंख लग गई। जब आंख खुली तो काफी देर हो गई थी, वह तो पलाश ने संभाल लिया नहीं तो आज वह स्कूल के लिए भी देर हो जाती शायद।
स्कूल खत्म हो गया था, और वह समय से कुछ पहले ही कैफे पहुंच गई थी। उसे उसी टेबल पर बैठा देख नरेंद्र चहकता हुआ बोला, ” वाह! यार तुम्हें तो अपना वाला टेबल भी याद है।”
” हां! नरेंद्र मुझे सब कुछ याद है, तुम्हारा दिया हुआ दर्द भी।”
” तुम्हें तो पता है ना कि उस वक्त मुझे पैसों की कितनी जरूरत थी, बस इसीलिए मैंने समायरा से शादी की थी, प्यार तो मैं अब भी सिर्फ तुमसे करता हूं, सुमन।” नरेंद्र ने सुमन के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा।
एक झटके से अपना हाथ झटकती हुई सुमन उठ खड़ी हुई, “तुम एक घटिया इंसान थे, हो और घटिया ही रहोगे। कल मेरे साथ थे तो समायरा से प्यार था, आज समायरा के साथ हो तो मेरा प्यार याद आ रहा है? दोबारा मुझे फोन करने की, या मिलने की कोई कोशिश मत करना।”
“मुझे घिन आती है इस बात को सोच कर की मैंने कभी तुम्हे चाहा था। और हां, एक बात बिल्कुल मत भूलना कि मैं अपने पति पलाश से बहुत प्यार करती हूं और वह मुझसे।” कहती सुमन एक झटके से कैफे से बाहर आकर एक भरपूर सांस ली और आगे बढ़ गई। एक पल को उसे ऐसा लगा जैसे पलाश मुस्कुराते हुए दरवाजे पर खड़े हों, उसके कदम अपने छोटे से घर की तरफ बढ़ चले।
मूल चित्र : Canva
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