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खयाली पुलाव : एक छोटे से गांव की लड़कियों के सपनों को दर्शाती है ये शार्ट फिल्म

शार्ट फिल्म खयाली पुलाव पूछती है, क्यों आज भी लड़कियों के सपनों को बस खयाली पुलाव मात्र कहकर अनदेखा कर दिया जाता है? आखिर कब तक?

शार्ट फिल्म खयाली पुलाव पूछती है, क्यों आज भी लड़कियों के सपनों को बस खयाली पुलाव मात्र कहकर अनदेखा कर दिया जाता है? आखिर कब तक?

“लक्ष्मण रेखाएं खींचने से पहले आप अपने आप से पूछिएं, क्या आप लक्ष्मण हैं ?” – मनोज मुंतशिर की इस कथन से शुरू हुई इस 26 मिनट की शार्ट फिल्म में हर पल आपको लड़कियों की जिंदगी में खींची गयी लक्ष्मण रेखाओं से अवगत कराया गया है।  

प्राजक्ता कोली ने इस फिल्म के साथ एक्टिंग की दुनिया में कदम रखा

मोस्टली सेन उर्फ़ प्राजक्ता कोली ने खयाली पुलाव से एक्टिंग की दुनिया में कदम रखा है। यह कहना बिलकुल गलत नहीं होगा कि प्राजक्ता कोली ने हर बार की तरह ही इस बार लड़कियों से सम्बन्धित कई टेबुज़ को तोड़ने की कामयाब कोशिश करी हैं। 

हरियाणा के छोटे से गांव की लड़की के खयालों की कहानी है फिल्म खयाली पुलाव

ख़याली पुलाव एक हरियाणवी टीनेज़ लड़की की कहानी है जो पढ़ने में बहुत होशियार है लेकिन वो साथ ही हैंडबॉल में बहुत दिलचस्पी रखती है। हरयाणा के एक छोटे से गांव की छोटी सी सरकारी स्कूल की छोटी सी हैंडबॉल टीम में जाने के लिए आशा को कड़ी मेहनत और रूढ़िवादी सोच के लोगो से गुजरना पड़ता है। लेकिन क्या आशा ने इन सबकी परवाह किये बिना अपनी कड़ी मेहनत से हैंडबॉल टीम में जगह बना पाती है? 

समाज से कई महत्वपूर्ण सवालों का जवाब मांगती है ये फिल्म खयाली पुलाव

आज भी समाज की पिछड़ी सोच पर निशाना साधने की इस कामयाब कोशिश में इस फिल्म का हर डायलॉग हमें सोचने पर मजबूर कर देगा। क्या आज भी लड़कियों को सिर्फ स्कूली शिक्षा में ही अव्वल आना है? क्या आज भी वो जीन्स, टॉप, शॉर्ट्स नहीं पहन सकते हैं? क्या उन्हें इंटरनेट के दुनिया से रूबरू नहीं होना चाहिए? क्या आज भी लड़कियों को खेल में इसीलिए नहीं जाने दिया जाता है क्यूँकि कहीं वो अपनी वर्जनिटी ना खो दे? और इन सवालों की लिस्ट यहीं खत्म नहीं होती है। और इन सवालों के जवाब फिल्म में दर्शाये गए गांव की दीवारों पर लिखे हुए बेटियों के क्वोटेशन्स ही बख़ूबी दे रहें हैं। ख़ैर आज भी हमारे देश में कहने को कुछ और और करने को कुछ और ही है 

सभी कलाकारों ने बखूबी अपना किरदार निभाया है

आशा की माँ के किरदार में गीता अग्रवाल शर्मा ने बहुत खूब एक्टिंग करी है और एक ऐसी माँ बनकर आयी हैं जो अपनी बेटी के सपनों को पूरा करने के लिए अपनी छोटी छोटी कोशिशों से उसे खुश करती हैं। वो फिल्म में अपनी बेटी आशा को कपड़े से हैंडबाल बनाकर देती हैं।

इसके अलावा ख़राब सर के किरदार में यशपाल शर्मा ने स्ट्रिक्ट लेकिन एक ऐसे टीचर की भूमिका निभाई है जो अपने स्टूडेंट्स को कड़ी मेहनत कर के आगे बढ़ने के लिए कहते हैं। फिल्म के शुरुवात में वो आशा से पूछते हैं कि आखिर खेल समाचार अख़बार के आखिरी पन्ने पर ही क्यों आते हैं और इस सवाल का जवाब उन्होंने फिल्म के बहुत ही खूबसूरत मोड़ पर आकर दिया। और इसी के साथ पितृसत्ता जैसी सोच को तमाचा जड़ा। 

तरुण डुडेजा की फिल्म ने हमें असली आज़ादी का मतलब बताया है

तरुण डुडेजा द्वारा लिखी और निर्देशित करी गयी यह फिल्म बहुत कम समय में हमारे समाज के कई रूढ़िवादी परतों को खोलती है। इस फिल्म को बखूबी निर्देशित करा गया है और बिना घुमाये हुए सीधे मुद्दे की बात करी है। इस ने हमें असली आज़ादी का मतलब बताया है। फिल्म की लोकेशन से लेकर सभी कलाकारों का चयन इस फिल्म को और भी खूबसूरत बना देता है।

गानों के एक एक बोल ने लड़कियों को एक नई आवाज़ दी है

मनोज मुंतशिर के बोल और आवाज़ ने फिल्म में चार चाँद लगा दिए हैं। हरयाणवी भाषा में लिखे हुए ये गीत फिल्म के साथ पूरी तरह से न्याय करते हैं। हर एक शब्द लड़कियों की आजादी को लेकर आवाज उठता है। इस फिल्म के गानों की वजह से आपका इसे कई बार देखने को मन करेगा।

प्राजक्ता कोली अपने यूट्यूब चैनल मोस्टली सेन के नाम से पूरे देश में मशहूर है

फिल्म में मुख्य किरदार की भूमिका निभा रही प्राजक्ता कोली ने फिर साबित कर दिया कि लड़कियाँ अपने दम पर सब कुछ हासिल कर सकती हैं। जी हाँ ये वही यूट्यूब सेंसेशन हैं जिनके 5 मिलियन से अधिक सब्सक्राइबर्स है। प्राजक्ता कोली ने अपने यूट्यूब चैनल के जरिये पूरे देश ही नहीं विदेशों में भी अपना नाम कमाया है।

और ये पहली बार नहीं जब प्राजक्ता ने लड़कियों को लेकर अपनी आवाज उठायी हो। इससे पहले भी कई बार प्राजक्ता ने लड़कियों के लिए कई कदम उठाये हैं। और एक रोल मॉडल की तरह साबित हुई हैं। इस फ़िल्म में उन्होंने अपने एक्सप्रेशन से जैसे सब कुछ कह दिया हो। वाकई इसे शायद हर एक लड़की जिसके सपनों को शायद समाज ख़याली पुलाव कहकर अनदेखा कर देते हैं, वे अपने बेहद करीब महसूस करेंगी।

अपने पूरे दिन में से केवल 26 मिनट निकालर इस फिल्म को ज़रूर देखें। हो सकता है अंत आते आते समाज के एक बहुत बड़े हिस्से के लिए आपकी सोच ही बदल जाये।

मूल चित्र : Screenshot, Khayali Pulav, YouTube

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Shagun Mangal

A strong feminist who believes in the art of weaving words. When she finds the time, she argues with patriarchal people. Her day completes with her me-time journaling and is incomplete without writing 1000 read more...

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