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क्या पुरूष समाज सिर्फ झूठा दंभ भरता रहेगा! क्यों एक ही समाज में स्त्री और पुरुषों के लिए नियम अलग अलग हैं?
स्त्रियों की दिशा और दशा में काफी सुधार हुआ है। पर इस उन्नति का ग्राफ मध्यम गति से बढ़ रहा है। इसका मुख्य कारण है, पितृसत्तात्मक समाज। आप किसी भी युग को देेखिए! वहां स्त्री को पुरूष का अनुगाामी ही बताया गया है।
एक पंक्ति आप लोगों ने भी बहुत बार सुनी होगी, “बचपन में एक स्त्री पिता के संरक्षण में, किशोरावस्था में भाई के संरक्षण में, शादी के बाद पति के संरक्षण में और बुढ़ापे में बेटे के संरक्षण में रहती है!” जो की स्त्रियों पर सामाजिक दबाव को ही तो इंगित करती हैं। ऐसा लगता है, जैसे स्त्रियों का अपना कोई स्वतंत्र जीवन नहीं है! अगर उन्हें कुछ करना है तो पिता, भाई, पति या पुत्र से पूछकर ही करना है। शायद पुरुष इतना ताकतवर है, कि उसे किसी के स्पोर्ट की जरूरत ही नहीं है।
दुनिया की आधी आबादी कही जाने वाली, औरतें! अभी भी अपने अधिकार से वंचित हैं। या यूँँ कहना भी गलत नहीं होगा कि, उन्हें अपने अधिकारों से दूर रखा जा रहा है!
स्त्रियों की सहनशीलता, उनका एक प्रकृति प्रदत्त गुण है। और उनकी इस सहनशीलता का फायदा उठाना अनुचित है! स्त्री के गुणों को पुरुषों के अवगुणों द्वारा दबाना कितना सही है। सहनशीलता की भी एक पराकाष्ठा होती है!
पुरूष अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए, हमेशा से स्त्रियों का शोषण करता रहा है। जिसे उसने संस्कार औरअधिकार का नाम दे दिया!
एक सवाल, मन में कई बार कौंधता है! कि क्या पुरूषों को दबाव की जरूरत नहीं होती? क्या पुरूष समाज सिर्फ झूठा दंभ भरता रहेगा! क्यों एक ही समाज में स्त्रीऔर पुरुषों के लिए नियम अलग-अलग हैं! हमें इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने से काम नहीं चलाना! वरन् हम स्त्रियों को स्वयं अपनी विचारणीय दृष्टिकोण से बाहर निकलना होगा!
मूल चित्र: Canva
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