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और रो पड़ती है मेरे भीतर की स्त्री तुम्हारी ‘प्यास’ की बदलती परिभाषा देख…

डरने लगी हूँ अब ये सोच के रुई के फाहे-सा नन्हा मादा शरीर, जब दब जाता होगा तुम्हारे भारी भरकम अहं के तले, तुम्हें कैसी सन्तुष्टि मिलती होगी...

डरने लगी हूँ अब ये सोच के रुई के फाहे-सा नन्हा मादा शरीर, जब दब जाता होगा तुम्हारे भारी भरकम अहं के तले, तुम्हें कैसी सन्तुष्टि मिलती होगी…

पहले पहल तुमने बनाई धर्म व्यवस्था
डराते रहे तुम ईश्वर का नाम ले
महासुख के नाम पर
भोगी तुमने कई स्त्रियां
और प्राप्त की सिद्धि …

फिर तुमने पाली
कई बांदियाँ
बनाते रहे तुम हरम पर हरम
और रचाते रहे
हवस के नाम पर प्रेमलीला …

और तब जब हुई मुश्किल तुम्हें
मेरा नरम शरीर मिलने में
तुम्हारे भीतर का जानवर जागा
तब लिया तुमने सहारा इंद्र बुद्धि का
और रचने लगे तुम महाकाव्य बलात्कार का …

सच कहूं देख तुम्हारा बदलता रूप
मैं ज़रा भी नहीं डरी तुमसे
और सोचती रही
होगा कभी न कभी हृदयपरिवर्तन
सुबह का भूला लौटेगा जरूर शाम को…

पर अब ,अब डरने लगी हूँ तुमसे
के अब तुम पुरूष नहीं रहे
बन गए हो हैवान
जिसे बस भूख है
मादा शरीर की …

डरने लगी हूँ तुमसे अब
जब तुम रौंदने लगे हो
फूलों की जगह कलियों को
और मसल देते हो उनका जीवन
अपनी मर्दानगी के तले …

डरने लगी हूँ अब ये सोच
के रुई के फाहे-सा नन्हा मादा शरीर
जब दब जाता होगा
तुम्हारे भारी भरकम अहं के तले
तुम्हें कैसी सन्तुष्टि मिलती होगी…

कांप उठती हूँ मैं ये देख
के तुम्हारी नज़रों में भरी हवस
नहीं देख पाती
उन नन्ही कलाईयों का संघर्ष
जो तुम तक पहुंच भी नहीं पाती …

मेरी आत्मा चीख उठती है
तुम्हारे पौरुष का ये रूप देख
और रो पड़ती है मेरे भीतर की स्त्री
तुम्हारी हवसी प्यास की नज़र में
मादा-शरीर की बदलती परिभाषा देख ….

मूल चित्र : Canva 

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