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यूँ तो लख़नऊ की तमाम तवायफों का ज़िक्र मिलता है, लेकिन सबसे अधिक शोहरत अगर किसी को मिली तो वह हैं - उमराव जान 'अदा'।
यूँ तो लख़नऊ की तमाम तवायफों का ज़िक्र मिलता है, लेकिन सबसे अधिक शोहरत अगर किसी को मिली तो वह हैं – उमराव जान ‘अदा’।
भारतीय इतिहास में महिलाओं के संघर्ष के इतिहास में वेश्याओं के संघर्ष का सफर एक अलहदा और बेजोड़ सफ़र रहा है। गौर से देखने का प्रयास करें तो औपनिवेशिक भारत में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में कृषि आधारित उधोग के अतिरिक्त वेश्यावृत्ति ही उन महिलाओं के लिए रोजगार का एक मात्र ज़रिया था जो परित्याग स्त्री हो, या जिनसे आगे-पीछे कोई न हो।
राजाओं के आपसी संघर्ष में या अंग्रेजों के साथ संघर्ष में मारे गए सैनिकों के पत्नी के पास अपना पेट पालने के लिए दासत्व के अतिरिक्त अगर कोई रोजगार का जरिया था तो वह वेश्यावृत्ति ही थी।
मुगलिया दौर में भी और उसके आगे नवाबों के दौर में भी कला-संस्कृति के नाम पर गाने-बजाने और नाच-गाने की परंपरा को पोषित किया और बहुत हद तक जीवित रखने का प्रयास भी किया। यही वजह थी कि उनके ज़माने में नाचने- गाने वाली वेश्याओं ने बड़ी संख्या में उन शहरों के तरफ रूख किया जहां के नवाब इनाम और प्रोत्साहन से उनकी सुख-समृद्धि, आमदनी बढ़ी। फैजाबाद के नवाब ने अपने यहां इस परंपरा को ज़िंदा रखा।
नवाब आसफ़ुद्दौला के लख़नऊ बस जाने पर यह शानोशौकत और रुआब अपने असबाब के साथ लख़नऊ चला आया। आसिफ़ उद्दौला ख़ासे शौकीन मिज़ाज थे। उनके समय में लख़नऊ के दरबार में ऐसी शानो-शौकत पैदा हुई जो हिंदुस्तान के किसी दरबार में न थी।
कुछ ही वक़्त में लख़नऊ निराले ठाठ-बाठ का शहर बना जो जिंदगी के जश्न को धूमधाम से मनाने के लिए जाना गया। इस धूमधाम का असल रंग जमा नृत्य संगीत की महफिलों में। नाचने की कला के उस्ताद तो पुरुष ही रहे लेकिन उसको प्रचार- प्रसार और विस्तार वेश्याओं के जरिये मिला। कई
इतिहासकार लिखते हैं कि जैसी वेश्याएँ लख़नऊ में पैदा हुईं शायद किसी शहर में न हुई होंगी। वेश्याओं ने अपनी अदायगी के लिए नृत्य की कथक शैली को अपनाया जो कोठे पर मुज़रा कहलाई। इसी के साथ लख़नऊ में मुज़रे और कोठे का आविर्भाव हुआ और मुज़रे-वालियाँ तवायफ़ कहलाईं।
यूँ तो लख़नऊ की तमाम तवायफों का ज़िक्र मिलता है। लेकिन सबसे अधिक शोहरत अगर किसी को मिली तो वह हैं-‘उमराव जान अदा’। उनके ऊपर इसी नाम से एक उपन्यास भी लिखा गया जिसके लेखक मिर्ज़ा हदी रुस्वा हैं।
मिर्ज़ा का समय 1857-1931 के बीच ठहरता है। वह लख़नऊ के बाशिंदे थे। तमाम नौकरियों से गुज़रते हुए कुछ वक्त लख़नऊ क्रिश्चियन कालेज में अरबी- फ़ारसी के व्याख्याता भी रहे। उनका यह उपन्यास उमराव जान का ज़िंदगीनामा पेश करता है।
इस उपन्याद पर फिल्मकार मुज्ज़़फर अली ने उमराव जान फिल्म में रेखा के अभिनय से पहली बार लोगों के सामने पेश किया और उमराव जान अदा हिंदुस्तान के जेहन में हमेशा के लिए बस गई।
बाद में जेपी दत्ता ने भी इस कहानी को अपने तरीके से कहने की कोशिश की पर उसमें उमराव की अदा से अधिक ग्लैमर था। मिर्ज़ा हदी रुस्वा का दावा है कि उमराव उनकी समकालीन थीं और ‘अदा’ तख़ल्लुस से शायरी भी लिखती थीं। उपन्यास को पढ़कर ऐसा लगता है कि जिस जज़्बे और अदा से उमराव शायरी करती रही होंगी उतनी ही शिद्दत से मिर्जा ने उन्हें कागज़ पर उतार दिया है।
तारीख़ में उमराव को तलाशते हुए कोई ख़ास मालूमात नहीं मिलते है। कुछ कड़िया हैं जो उमराव को हकीकत में ढालती हैं। कानपुर की तवायफ़ अजीज़न बाई जिनका ब्रिटिश काल के दस्तावेजों में षडयंत्र के अपराध में उन्हें फाँसी पर लटकाने का ज़िक्र है। वह उमराव जान की शागिर्द कही जाती हैं। उनकी क़ब्र कानपुर में मौजूद है। जिसके बारे में तफ्सील से अमरेश मिश्रा ने अपनी पुस्तक में दर्ज़ की हैं।
उमराव जान की क़ब्र न मिलने की चर्चा विद्वानों में होती रही है। सुकृता पॉल ने उमराव पर अपने निबंध में एक मस्ज़िद का ज़िक्र जरूर किया है जो घाघरा नदी के किनारे है जिसे वह उमराव जान का बनवाया हुआ बताया जाता है। फातमान, बनारस में एक क़ब्र है जिसे उमराव जान की कहा गया है।
उमराव किस्सा थीं या हक़ीक़ी कहना मुश्किल है। नवाबी लख़नऊ में तवायफ़ संस्कृति रही है, इससे किसी को गुरेज़ नहीं है। उमराव की जो कहानी मिर्ज़ा हदी रुस्वा ने बयां की है वह तवायफों के जिंदगी में आँसुओं का जो समंदर है उसकी इत्तला जरूर देती है कि जिंदगी से भरपूर एक औरत हकीकत से अफसाने तक के अपने सफर में एक औरत के संघर्ष की कहानी थी।
मूल चित्र : Amazon
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