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अपने घरौंदे का तिनका-तिनका बिकना! ये देखना बहुत दर्द देता है। घर के एक-एक कोने का सूना होते देखना, बहुत दर्द भरा होता है!
करीब दो साल से सुन रही थी कि मायके का घर बेच के मम्मी-पापा, गुड़गाँव भाई के पास, शिफ्ट हो जायेंगे। मम्मी-पापा के लिए, सही भी था। क्योंकि मम्मी की तबियत ठीक नहीं रहती थी। पापा की भी उम्र हो रही थी। अकेले दौड़ भाग वाले काम, अब उनसे होते भी नहीं थे। एक दिन मम्मी का फोन आया,”बेटा घर बिक गया है। करीब दो महीने में, सारी कार्यवाही, करके कुछ सामान बेच के, हम भी गुड़गांव आ जायेंगे।” मैं करीब दो साल से मायके नहीं गयी थी क्योंकि मैं प्रेग्नेंट थी इस कारण नहीं जा पायी। फिर बेटी बहुत छोटी थी। इसलिए नहीं जा पायी। माँ के वो शब्द “घर बिक गया” बस शब्द नहीं थे, ऐसा लगा कि मेरा बचपन मेरी दुनिया, मुझसे छिन रही है। पता था कि ये दिन आना था, पर!
मैं अपने पति से बोली, “मैं घर जाना चाहती हूँ! फिर वो घर, वो इलाहाबाद, सब छूट जाएगा! 10 दिन ही सही, जी,भर के उस घर को, देख लूँ! फिर तो वो किसी और का आशियाना हो जाएगा !” सास भी वही थीं, वो बोलीं,”10 दिन क्यों? महीना भर रह आ! जब पापा-मम्मी गुड़गाँव आयें, उनके साथ आ जाना। तू। उनके साथ रहेगी तो उनको भी हिम्मत रहेगी। उनके लिए भी आसान नहीं है ये सब!” मम्मी जी की बातें सुनकर, मैंने उनको गले से लगा लिया था। मैं अपनी बेटी को साथ लेके घर (मायके)आयी। ननिहाल में बेटी को पहली बार लेके गयी थी। तब क्या पता था? इस घर में आखिरी बार आना होगा! बहुत मुश्किल होता है, ये देखना! जिन चीज़ों में बचपन बीता, जिस को देख-देख के बड़े हुए, उस समान का यूँ एक-एक करके बिकना! टी वी, फ्रिज, बेड, हर छोटी-बड़ी चीज़, जो हमारे लिए अनमोल थी। जिन्हें पापा ने एक-एक करके लिया था। जिनके आने पे, हमारी आँखों में खुशी की लहर दौड़ पड़ती थी। उनका यूँ कौड़ी के दाम बिकना। ये देख के बहुत दुख हो रहा था।
मम्मी डिब्बे, बर्तन निकाल के कामवाली को दे रही थी। तब एक एक बर्तन को छू के कह रही थी, “एक-एक करके, अपनी गृहस्थी जोड़ी थी, मैंने” मम्मी की आवाज़ में कितना दर्द था। जाने से एक दिन पहले, पापा की अपनी मारुति 800 भी, जिसको बेची थी वो लेके चला गया। पापा की आँखों में आँसू देखे थे, मैंने! लोन लेके, कार ली थी, पापा ने! हम सब कितने खुश थे। हमारे घर में पहली कार थी, वो! हमेशा पापा को ही ड्राइविंग सीट पे देखा था। आज जब कोई और बैठा, तो बहुत दुख हो रहा था। क्या-क्या कहूँ, घर के हर एक कोने में मेरा बचपन, भाई-बहनों का प्यार, आपस में लड़ना, मम्मी-पापा की डाँट! क्या-क्या ना बसा था!अपनी छोटी सी मुठ्ठी में सब समेटना बहुत मुश्किल था, मेरे लिए! वो पल भी आ गया, जब हमारा घर सामान से, नई दुल्हन सा, सजा होता था! और अब वो विधवा की तरह लग रहा था! कुछ घण्टों में, हमें भी ट्रेन पकड़नी थी। जो साथ लेके जाने वाला सामान था, वो पैक कर लिया था। उस घर से जब विदा ली, बहुत रोई थी, मैं! इतना दर्द तो, तब भी नहीं हुआ था, जब शादी होके विदा हुई थी, इस घर से! पहली बार था, जब जाके, फिर वापस नहीं आना था, अपने घर में! आज भी सपने में, अक्सर अपना घर आता है। एक टीस सी उठती है! एक दिन दीदी ने कहा था, मुझसे, “तुम तो बहुत भाग्यशाली हो, कम से कम बिकने से पहले उस घर में रह तो ली। हम तो रह भी नहीं पाए”। मैंने ये बात दीदी से कह नहीं पाई,”अच्छा हुआ, तुम वहाँ नहीं रुकी दीदी! “अपने घरौंदे का तिनका-तिनका बिकना, ये देखना बहुत दर्द देता है। घर के एक-एक कोने का सूना होना, देखना बहुत दर्द भरा होता है। ये घर मेरा जहाँ बचपन बीता। ये घर मेरा जहाँ खुशियाँ जी। ये घर मेरा जहाँ गम बांटे। मीठी-मीठी यादे संजो कर। चल पड़े अपनी गलियाँ छोड़ के, वो घर वो गलियाँ जो मेरी थी। अब वो किसी और की हो गई। यूँ लगा, आवाज़ दी किसी ने। “तोमर जी” का मकान ये था,रहेगा” मुड़कर देखा, तो हमारा घर, देख के, हमको मुस्कुराया! मैं भी आँखों में नमी, होंठ पे मुस्कान लेकर, चलने को तैयार । आगे के सफर के लिए। “ये घर मेरा जहाँ बचपन बीता “ये मेरा लेखन की तरफ प्रथम कदम था। जब मैंने सबसे पहले अपनी भावनाओं को शब्द दिए। ये अपने घर में बिताई आखिरी रात में लिखा था! मूल चित्र: Canva
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