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शर्माई, सकुचाई पिया की छुअन को तरसती, अपने पति 'राम' का नाम सुनने मात्र से ही लाज से दोहरी होती मालती इस फिल्म की आत्मा है।
शर्माई, सकुचाई पिया की छुअन को तरसती, अपने पति ‘राम’ का नाम सुनने मात्र से ही लाज से दोहरी होती मालती इस फिल्म की आत्मा है।
हर नवविवाहित जोड़े की ही तरह एकांत को तरसते राम और मालती की मनोदशा को बयां करता गीत ‘ये जीवन है इस जीवन का यही है, रंग रूप ‘ जिसने नहीं देखा वो जीवन के वास्तविक रंगों से भरे इस अद्भुत गीत के जादू को जीने से अछूता रह गया।
सात जन्मों के लिए एक सूत्र में बंधे हर घड़ी एक दूजे का सानिध्य और रोमानियत भरा अहसास पाने की लालसा में एकांत तलाशते एक नवदंपति को जब विपरीत परिस्थितियों के चलते एकांत नहीं मिल पाता तब उस स्थिति में उपजी कसमसाहट और बेचैनियों को पर्दे पर जिस प्रकार जया भादुड़ी और अनिल धवन ने उतारा है वह किसी और फिल्म में देखने को नहीं मिला।
विवाह के शुरुआती दिनों में एक दूसरे के ख्याल मात्र से ही चेहरे पर जो रौनक आ जाती है, वो इस कलाकार जोड़ी के चेहरे पर बिखरी तरूणाई और मासूमियत देख कर सहज ही महसूस की जा सकती है।
कुल सात प्राणियों से युक्त इस संयुक्त परिवार में मजबूरीवश जिस प्रकार का एकांत इन दोनों को मिलता है उससे पैदा हुई हास्यास्पद स्थितियों से जूझता ये नवदंपति उसे मात्र दैहिक इच्छाओं की पूर्ति का साधन न मानकर अपने रिश्ते की निज़ता का सम्मान करते हुए इस प्रकार मिले एकांत को स्वेच्छा से तज कर एक दूजे से अलग रहने का जिस प्रकार का उदाहरण पेश करते हैं वह काबिले तारीफ है।
ऐसे न जाने कितने ही राम और मालती हमेशा से ही एकांत तलाशते रहे हैं और न मिलने पर मन मसोस कर रह जाते हैं।
चाँदनी रात की खामोशियों को चीरते, दो धड़कते दिलों के मूक प्रणय निवेदनों के आदान-प्रदान के बीच एक गिलास पानी की चाह में राम का मालती के पास जाना और फिर मालती का उसे रसोईघर के भीतर आने से रोककर, दरवाजे पर ही पानी का गिलास लाकर देना प्रेम और वासना के बीच के अंतर को स्पष्ट करता है और दोनों के रिश्ते को एक नई ऊँचाईयों पर ले जाता है।
यह पूरा गीत जीवन के फलसफे को समझने के लिए काफी है। और फिर एक दिन जब पिया के उसी छोटे से घर को छोड़ने की बात आती है तब मालती गीत की इन्हीं पंक्तियों को दोहराते हुए अपने इस छोटे से घर को छोड़कर माँ के घर वापिस जाने से मना कर देती है कि,
‘धन से ना दुनिया से घर से न द्वार से साँसों की डोर बंधी है प्रीतम के प्यार से दुनिया छूटे, पर ना टूटे ये कैसा बंधन है ये जीवन है इस जीवन का यही है, यही है, यही है रंग रूप थोड़े ग़म हैं थोड़ी खुशियाँ यही है, यही है, यही है छाँव धूप ये जीवन है!’
क्योंकि कहीं न कहीं हर राम और मालती यह जानते हैं कि देह के बंधन से परे जो मन का बंधन होता है उसे किसी एकांत की आवश्यकता नहीं होती।
जिससे मन बँध गया, उसमें सब रंग गया ! तो बस इसीलिए वे दोनों जीवन भर अब अपने इसी घर में रहने वाले हैं! एकांत मिले या न मिले, मन तो मिले हैं न!
और इस सब से भी अधिक खूबसूरत बात यह है कि आनंद बख्शी जी द्वारा रचित, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल द्वारा संगीतबद्ध इस गीत को गाने वाले किशोर कुमार जी ने यह गीत ज़मीन पर बैठकर गाया था ताकि वे स्वर को धीमा रखने के साथ साथ स्वयं को राम और मालती के उस अहसास से भी जुड़ा हुआ महसूस कर सकें जो उन्होंने ज़मीन पर बैठकर ही जीया था। गीतों के ज़रिए जादू ऐसे ही रच जाते हैं शायद।
मूल चित्र : Screenshot, Yeh Jeevan Hai song, YouTube
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