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आइये आज बात करें साड़ी के बारे में : 7 साड़ी के प्रकार और उससे जुड़ा इतिहास!

7 अगस्त राष्ट्रीय हथकरघा दिवस है और आज के दिन हम बात करते हैं हथकरघा कला से बनी भारतीय पारंपरिक साड़ी के बारे में और उससे जुड़े इतिहास की! 

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7 अगस्त राष्ट्रीय हथकरघा दिवस है और आज के दिन हम बात करते हैं हथकरघा कला से बनी भारतीय पारंपरिक साड़ी के बारे में और उससे जुड़े इतिहास की! 

भारत विविधिता का देश है और जहां हर राज्य की अपनी अलग संस्कृति, खान-पकवान और पहनावा होता है। लेकिन जब हम संस्कृति की बात करते हैं तो अक्सर हथकरघे को भूल जाते हैं। ये कला बहुत समृद्ध है और लाखों कारीगरों की आजीविका का साधन।

राष्ट्रीय हरकरघा दिवस क्यों मनाते हैं?

7 अगस्त को हर साल हथकरघा दिवस मनाया जाता है जिसकी शुरुआत 2014 में चेन्नई में पहले राष्ट्रीय हरकरघा दिवस के साथ की गई थी। इस दिन को मनाने का मकसद हरकरघा उद्योग के महत्व और देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में इसके योगदान के बारे में जागरूकता फैलाना है। हथरकघा कला बहुत विस्तृत है। इसलिए आज हम बात करेंगे हथकरघा कला से बनी भारतीय पारंपरिक परिधान साड़ी की और उससे जुड़े इतिहास की।

हरकरघा साड़ी के प्रकार और इन साड़ी के बारे में जानकारी

कांजीवरम साड़ी के बारे में क्या आप ये जानते हैं?

सबसे प्रसिद्ध साड़ी कांजीवरम साड़ी दक्षिण भारतीय हथकरघा की देन है। तमिलनाडु राज्य के कांचीपुरम में बनने वाली ये साड़ियां बहुत सुंदर और कीमती होती हैं। कांजीवरम साड़ी से एक हिंदू पौराणिक कथा भी जुड़ी हुई है। इस साड़ी के बुनकरों को महर्षि मार्कण्डेय का वंशज कहा जाता है जो कमल के फूल के रेशों का इस्तेमाल करके ख़ुद अपने हाथों से देवताओं के लिए कपड़ा बनाया करते थे। इस साड़ी के कारण ही कांचीपुरम को सिल्क सिटी के नाम से भी जाना जाता है।

कांजीवरम सिल्क साड़ियाँ पारंपरिक हाथ की बुनाई से तैयार की जाती हैं जिसे कोरवई तकनिक भी कहते हैं। कोरवई साड़ी में बॉर्डर और पल्लू एक ही रंग का होता हैं और यह बाकी साड़ी के रंग से बहुत ब्राइट होता हैं। कांचीवरम साड़ी के ज़री की बुनाई में असली चांदी एवं सोने का प्रयोग किया जाता हैं और एक साड़ी को तैयार करने में कम से कम 10 दिन का वक्त लग जाता है।

कांजीवरम साड़ी की जरी को खुरचकर आप पहचान सकते हैं कि वो असली है या नहीं। इस साड़ी की चौड़ाई बाकी साड़ियों की तुलना में अधिक होती है। मलबरी सिल्क से बनने वाली कांजीवरम साड़ी आपको और भी ख़ूबसूरत बना देती है।

बनारसी साड़ी

बनारसी साड़ी बाकी साड़ियों की तुलना में सबसे पॉपुलर है। कई सौ सालों की विरासत, कई पीढ़ियों की कलाकारी का नमूना है बनारसी साड़ी। राजशाही से लेकर आम इंसानों तक हर कोई इसकी ख़ूबसूरती का कायल हो जाता है। सिल्क को गहरे चटख रंगों में डुबोकर फिर बुनकर उस पर एक से एक कलाकारियां और डिज़ाइन उकेरकर बड़ी मेहनत से तैयार होने वाली बनारसी साड़ी को बनने में कई बुनकरों की महीनों की मेहनत लगी होती है।

बनारस बहुत पहले से बुनकरी का गढ़ था. यहां सिल्क कपड़ों का काम कब शुरू हुआ, इसका ठीक-ठीक वक्त बताना मुश्किल है. मगर इतना तय है कि ये बहुत पुरानी विरासत है। बनारसी साड़ी का मुख्य केंद्र प्रारम्भ से ही बनारस रहा है इसलिए इसे बनारसी साड़ी कहा जाता है।(चित्र : YouTube)

पटोला साड़ी

गुजरात के पाटण में बनने वाली पटोला साड़ी रेशम से बनती है। करीब 700 साल पुरानी पटोला साड़ी गुजरात के ख़ासियत है। पुराने ज़माने में ये साड़ी राजघरानों में पहनी जाती थी। इस साड़ी का काम बेहद महीन होता है और एक साड़ी बनाने में कम से कम 6 महीने लग जाते हैं।

पहले सिल्क से पूरी साड़ी तैयार की जाती है और फिर इस पर वेजिटेबल या कलर डाई किया जाता है। पूरी साड़ी की बुनाई में एक धागा डिजाइन के हिसाब से विभिन्न रंगों के रूप में पिरोया जाता है। पटोला साड़ी की क़ीमत 20 हज़ार से 2 लाख तक भी होती है।

मुगल काल से चली आ रही पटोला साड़ी अपनी अधिक लागत के कारण एक समय में सिमट गई थी लेकिन हथकरघा की बढ़ती चाह ने लोगों के बीच फिर से इसकी पहचान बनाई गई है। ये साड़ी पीढ़ियों से चली आ रही है इसलिए इसे ऐतिहासिक धरोहर कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा।

इस साड़ी से जुड़ी एक बात यह है कि इसे बनाने का हुनर सिर्फ पुत्रों को सिखाया जाता है ताकि घर की बेटियां जब शादी करके कहीं और जाएं तो परिवार की कला कहीं और ना चली जाए। ये अजीब है लेकिन सच है। पटोला साड़ी का रंग कभी हल्का नहीं होता और ये 100 सालों तक चलती है।(चित्र : Canva Pro)

बांधनी साड़ी के बारे में क्या आप ये जानते हैं?

राजस्थान की बांधनी साड़ी ट्रेडिशनल होने के साथ-साथ मॉर्डन भी है। बांधनी शब्द का मतलब होत है बांधना। बांधनी प्रिंट की शुरुआत गुजरात के खत्रियों ने की थी। इस साड़ी को कई कारीगर मिलकर तैयार करते हैं और कारीगर अगर कम हों तो असली बांधनी साड़ी बनाने में एक साल का टाइम भी लग सकता है।

बांधनी साड़ी को हैंडलुम से बुनने के बाद छोटे-छोटे धागों से बांधकर कलर किया जाता है। सूखने के बाद जब इन धागों को निकाला जाता है तो साड़ी पर एक विशेष प्रकार की डिजाइन बन जाती है। इस प्रक्रिया से तैयार हुई साड़ी को बांधनी साड़ी कहा जाता है। बांधनी साड़ी में कपड़े की रंगाई-पुताई सबसे ज्यादा खास होती है। ज्यादातर नारंगी, हरे, गुलाबी, लाल, पीले और नीले रंग में रंगा जाता है। बांधनी ऐतिहासिक कला है जिसे हिंदू घाटी सभ्यता के समय से जोड़कर देखा जाता है। (चित्र : Canva Pro)

चंदेरी साड़ी

मध्यप्रदेश के चंदेरी में 13वीं सदी से इसका इतिहास जुड़ा है। 1350 शताब्दी में झांसी के कोश्ती समाज के बुनकर चंदेरी में जाकर बस गए। मुगलकाल में चंदेरी का कपड़ा व्यापार अपने चरम पर था। चंदेरी साड़ी बहुत ही मुलायम, कंर्फटेबल, वज़न में हल्का और काफ़ी सुंदर होता है। चंदेरी सिल्क के धागे और सोने की ज़री से बनाया जाता है।

इस हथकरघा साड़ी को 12वीं और 13वीं शताब्दी में राजघरानों में पहना जाता था। चंदेरी कपड़े की पारदर्शिता और महीन होने की वजह से इसे ‘बुनी हुई हवा’ का नाम दिया गया है। राजघरानों से होते-होते अब चंदेरी अब यह आम लोगों तक भी पहुँच चुकी हैं। एक चन्देरी साड़ी को बनाने में सालभर का वक्त लगता है, इसलिए इसे बाहरी नजर से बचाने के लिए चन्देरी बनाने वाले कारीगर साड़ी बनाते समय हर मीटर पर काजल का टीका लगाते हैं। (Image: YouTube)

जामदानी साड़ी

जामदानी साड़ी का मतलब जाम (फूल)+ दानी (गुलदस्ता) होता है। चाणक्य के अर्थशास्त्र मं भी इस साड़ी का ज़िक्र मिलता है। इस साड़ी को पहनना बेहद आसान तो होता ही है लेकिन इसकी कीमत भी काफी कम होती है। इसे आप अच्छी क्वालिटी में 2500 हजार रुपये से लेकर 10000 हजार रुपये तक में खरीद सकती हैं। जामदानी कपास से बना एक हाथ करघा कपड़ा है, जिसे ऐतिहासिक रूप से मलमल कहा जाता था। जामदानी बुनाई परंपरा बंगाली मूल की है। मोटे धागों से बना जटिल डिज़ाइन जामदानी साड़ी की खासियत है। इस साड़ी को बनाने में काफी मेहनत, कौशल और समय लगता है। (चित्र : jharonkha.com)

कलमकारी साड़ी

आन्ध्रा और तमिलनाडु के बुनकरों द्वारा बनाई जाने वाली यह कला 3000 साल पुरानी है। इसमें साड़ी के धागों को गाय के गोबर और दूध मिलाकर कलर बनाया जाता है। इस साड़ी के बारे में ये कहा जाता जहै कि इसकी कीमत ज्यादा नहीं होती और कलमकारी साड़ी को 600 रुपये से लेकर 7000 रुपये तक खरीद सकती हैं। भले ही इसकी कीमत बाकी साड़ियों से कम है लेकिन मेहनत किसी से कम नहीं। कपड़े पर चित्रकारी करने को इस कला को प्राचीन काल में तेलुगु भाषा में वृथापानी कहते थे। इसके तार 12वीं और 15वीं शताब्दी में इसे बढ़ाया औ दोबारा बनवाया। कहा जाता है कि कपड़ों पर चित्रकारी यानी कलमकारी यहीं विकसित हुई। (चित्र : Pinterest)

तो ये थीं आपकी मनपसंद कुछ साड़ियाँ और उन साड़ी के बारे में कुछ ज़रूरी जानकारी। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक हाथों की इस कला की अपनी अलग शान और पहचान है, इसलिए बुनकरों को उनके काम और मेहनत के लिए सही सम्मान ज़रूर मिलना चाहिए। तो आइये इस हथकरघा दिवस हम हथकरघा उद्योग और उससे जुड़े कारीगरों की मदद के लिए आगे बढ़ें और मशीन से ज़्यादा हथकरघे पर बने वस्त्र पहनें!

मूल चित्र :  Canva Pro

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