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मर्द टैग से संबंधित क्रियाओं में से, दूसरे को माँ-बहन की गालियाँ निकाल कर, क्या आप ये दर्शाने की कोशिश करती हैं कि देखो! हम भी मर्दों से कम नहीं?
माँ-बहन की गालियाँ निकालने को अपनाकर, क्या आप ये दर्शाने की कोशिश करती हैं कि देखो! हम भी मर्दों से कम नहीं?
ये मर्द लोग भी ना! चाहे पुराने पक्के दोस्त-यार से मिलें या दुश्मन से! परन्तु प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अर्थात खुल के या दबी-घुटी जुबान से, अभिवादन स्वरूप गालियाँ ही, एक दूसरे पर उछालते हैं। इस अभिवादन से, जहां पक्की दोस्ती निभा ली जाती है, वहीं दुश्मन से दुश्मनी निभाने की संतुष्टि भी, महसूस कर ली जाती है। और आस-पास के लोग भी इस अभिवादन से, झट अंदाजा लगा लेते हैं कि दोस्ती कितनी गहरी है या दुश्मनी किस डिग्री तक पहुंची है।
मर्द जाति जो समाज में हमेशा, अपने उत्तम होने का गुणगान करती है, परन्तु फिर ये माँ-बहन की गालियाँ निकालने जैसी कमजोरी को, क्यों गले में सजा लेते हैं?
प्रतिष्ठित डिस्कवरी चैनल के एक डॉक्यूमेंटरी कार्यक्रम में एक शोध की बात की गई थी, जिसमें बताया गया था, अधिकतर गालियाँ उस समय निकाली जाती हैं, जब हालात संभालना मुश्किल लगे और तनाव से घड़ी भर दूर होने के लिए या उसे नजरअंदाज करने के लिए या खुद को उससे बड़ा साबित करने की होड़ में एक तुच्छ प्रयास होता है। और गाली देकर उस निराकार, तनाव को जैसे प्रताड़ित करने की कोशिश की जाती है। अर्थात यह संज्ञा शब्द एक हारे, थके, तनावग्रस्त मन की निशानी मात्र हैं।
मगर पक्षधर कहते हैं यह मर्दों से होने वाली, उन कुछ स्वाभाविक, अनायास होने वाली क्रियाओं (अधिकतर भोंडी या अश्लील) में से एक है, जो केवल मर्द ही कर सकते हैं। और इस बात से हमारी आधुनिक औरत जाति कि कुछ फेमिनिस्ट औरतें भिड़ जाती हैं। और इस मर्द टैग से संबंधित क्रियाओं में से, इस क्रिया को अर्थात गालियाँ निकालने को, अपना कर, मानो दर्शाने की कोशिश करती हैं, देखो! हम भी मर्दों से कम नहीं!
हाँ जी! ठीक सुना! ये कुछ औरतें, माँ-बहन की गालियाँ निकालने में पारंगत हो जाती हैं, इतराती हैं, शान दिखाती हैं, जताना चाहती हैं कि हम भी मर्दों से कम नहीं हैं। परन्तु ये मर्द जैसी बनने की होड़, इन औरतों में क्यों होती है? हम किसी के जैसे बनने की कोशिश, तब करते हैं, जब हम उससे अपने आपको, कम समझते हों! क्यों ये अपने गुणों को दरकिनार कर, गालियाँ निकालती हुई वीर, मर्द सी दिखने की कोशिश करती हैं?
हम औरतों का अपना व्यक्तितव है, गुण हैं, पहचान है, जो सफल कार्यों में जीवंत दिखाई देता है, इसके ऊपर मर्द जाति के इस मुखौटे को लगाने की क्या आवश्यकता है? यह तो हिंसा ही है। जो दूसरे की रूह पर वार कर, उसके व्यक्तित्व को छलनी कर देता है।
मसि नहीं ये स्याही रसी है। प्रबल, प्रचंड, विरक्त असि है।
अर्थात कलम हो या जुबान, ये कत्ल करने वाली तलवार की भांति ही है। तो वार क्यों करना?
अच्छा बताएँ कि मर्द कब, कहाँ गालियाँ निकालते हैं और कब, कहाँ नहीं निकालते? उत्तर है कि चिंता, परेशानी, तनाव को कम करने के समय, घनिष्ठ मित्र को मिलते हुए या लड़ते-झगड़ते समय गालियाँ निकाली जाती हैं।
और घर-बाहर के शालीन सभ्य समारोह में, नौकरी पर, अपनी धार्मिक मान्यताओं के स्थानों पर बिलकुल भी गालियाँ नहीं निकाली जातीं। अगर निकालने लगें, तो लोगों की नजरों की मिसाइल इनके व्यक्तितव को, तबाह कर दें। अर्थात गालियाँ निकालना अशोभनीय, असभ्य व्यवहार में ही गिना जाता है।
तो फिर औरतें, किस मानसिकता के दबाव में आकर गालियाँ निकालती हैं? अफ़सोस कि पढ़ी-लिखी औरतें भी इन गलियों का मतलब समझते हुए भी इनका इस्तेमाल करती हैं, तो अब कम पढ़े-लिखे के बारे में क्या ही कहा जाए। कमजोर व्यक्तित्व के लोग ही शराब-सिगरेट जैसी अभिशप्त व्याधियों के आगे घुटने टेकने हैं। और हम औरतें तो मशहूर हैं कमज़ोर हृदय का सहारा बनने के लिए। तो बस मर्द जैसी दिखने की होड़ में, हम ये कमजोरी, क्यों अपनायें!
हाँ! गुण कहीं से, किसी से भी मिलें, उन्हें अपना लेना चाहिए। जिससे हम और सबल, सशक्त बन सकें। परन्तु औरतों द्वारा गालियाँ निकालने का चलन मात्र कमज़ोरी है, अशोभनीय है, असभ्य है, न कि सबल दिखने का आधार!
मूल चित्र : intellistudies from Getty Images Signature, via Canva Pro
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