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उन दो कंगन ने आज जगाई जीने की एक नयी उम्मीद…

आज उसने ठान लिया था और वह अपने घर के मैले आसमान से निकल कर असली आसमान देखने को निकल पड़ी, आज उसे कोई नहीं रोक सकता था, ना समाज न गालियाँ! 

आज उसने ठान लिया था और वह अपने घर के मैले आसमान से निकल कर असली आसमान देखने को निकल पड़ी, आज उसे कोई नहीं रोक सकता था, ना समाज न गालियाँ! 

जामा मस्जिद इलाके की सँकरी और तंग गलियों में एक मकान रब्बन मियाँ का भी है। मटिया महल की मार्केट में एक ठिया लगाते हैं, घर की जमी हुई दही का और गर्मियों में लस्सी और सर्दियों में हाँडी में गर्म किया हुआ दूध बेचने में उनको तसल्ली मिलती है। कुर्ते और लुंगी में पेट बाहर निकला हुआ। या ये कहें कि तोंद बिल्कुल मटके की तरह और कंधे पर अँगोछा।

घर में 4 बच्चे, जिनमें से 3 लड़कियाँ और आख़िरी में एक लड़का। ऊपरवाले के करम से उनको आख़िर में बेटा नसीब हो ही गया। तीन बेटियों का होना भी बस इसी सपने में हुए कि अबकी बार लड़का होगा। लड़के का नाम रखा गया ‘अल्लाह रखा’ उर्फ ‘बिट्टू’। शहनाज़ 12 वर्ष की है, फिर नगीना 10 वर्ष की फिर 8 साल की रूबी और बिट्टू 6 साल का।

“जल्दी जल्दी बना पराँठे, कबाब ठंडे हो रहे हैं, और बिट्टू को नहला दिया रूबी तूने?”

“हाँ अब्बा, बस ला रही हूँ नहला कर।”

“बिट्टू के अब्बा, अरारोट ख़त्म हो गया है पंसारी से ले आना, वरना दही में मलाई नहीं जमेगी।”

“हाँ ले आऊंगा, तू पराँठे बना, और फिर कुर्ते सिल दियो। बिट्टू के लिए।”

“जी, ठीक है।”

“आजा मेरे बेटे प्यारू, मेरा बाबू, आ जा कबाब खा! तू क्या खड़ी मुहँ ताके जा रही जा कपड़े धो।”

“जी अब्बा जा रही हूं।”

“अम्मी भूख लग रही है, खाना दे दो”, सबसे छोटी बेटी रूबी ने मां का आँचल हिलाते हुए खाना मांगा।

“तुझे समझाया है न पहले बिट्टू को खाने दिया कर, बीच में मत बोला कर।”

“अब्बू भूख लग रही है।”

“रुक अभी तेरी भूख मिटाता हूँ! तुझसे लड़कियाँ नहीं संभलती, रोज़ का रोज़ यही ड्रामा!”

रब्बन पास पड़ी हुई चप्पलों से परवीन को पीटने लगा और 2,3 चप्पल रूबी को भी मारी। उधर से बूढ़ी दादी बोल पड़ी, “और मार इसको, दिखता नहीं आदमी बाहर जा रहा है?” इसके बाद रब्बन फिर खाने बैठ गया और सारी लड़कियाँ अंदर कमरे में तखत के नीचे छुप गईं।

“और जा अम्मा को 2 पराँठे और कबाब दे कर आ। और ध्यान रखियो लड़कियाँ न छूने पाएं।
लड़कियों को भी वैसे खाना कम खिलाना चाहिए, वरना जल्दी बड़ी हो जाएंगी, फिर शादी और दहेज़ का इंतेज़ाम, इसलिए ध्यान रखा कर इन लड़कियों का।”

“अरी! मेरा नाश्ता तो लेती आ। सुबह सुबह बावेला मचवाय हुए है।”

“जी अम्मा ले आई।”

रब्बन मियाँ दुकान पर चले गए, उसके बाद लड़कियाँ बाहर आईं। जैसे हमेशा होता था। तीनों लड़कियाँ और माँ एक साथ बैठकर रूबी का मुँह तकती जाती और उसकी कहानी सुनती। परवीन की भूख और प्यास रूबी की कहानी से ही पूरी हो जाती थी। बाहर निकलने की आज़ादी या तो रब्बन मियाँ को थी या फिर रूबी को। इसके अलावा किसी को नहीं।

अम्मा के पानदान के लिए सुपारी और पान रूबी ही लेकर आती थी। रूबी को बाज़ार की रौनक सुनाने में इतना मज़ा नहीं आता होगा जितना परवीन को सुनने में आता था और यही हाल बड़ी बेटी शहनाज़ का भी था। रूबी की कहानी में कुछ हक़ीक़त होती थी और कुछ बचपने में देखे जाने वाले ख्वाबों की एक झलक।

“आ रूबी आज पान लेने गई तो क्या क्या देखा? बताना।”

“अम्मी आज, बाज़ार सजा हुआ था, सुनहरे रंग की झालर ने पूरे बाज़ार को सजा रखा है। अम्मी हर रंग की जूतियाँ भी थी, जिनमें रंग बिरंगे नग जड़े हुए थे, मेरी आँखें चमक रही थी अम्मी!”

“या अल्लाह कितना खूबसूरत होगा सब? है न?”

“हाँ, बेटी ला दूंगी तेरे लिए भी एक, अभी तो रोटी मिल जाए तुझे, कहीं तेरी आँतों की बद्दुआ तेरे अब्बा को न लग जाए।”

“परवीन! मेरा पानी गर्म कर दे मुझे नहाना है, सुन रही है?”

“हाँ, अम्मा कर रही हूँ।”

“अम्मी आज बाज़ार और नहीं देखोगी?” रूबी ने माँ से बोला।

“कल सुनूँगी, अभी काम बहुत है।”

“क्या हर वक़्त तू दाल चावल ही बनाती रहती है, पता है न बिट्टू को आलू क़ीमा पसंद है? रूबी सुन जा प्याला लेकर जा और आसिफ़ की दुकान से दस रुपए का क़ीमा लेकर आ।”

“बिट्टू तू तो डॉक्टर बनेगा, कल तुझे किताब लाकर दूंगा, जमशेद बता रहा था अगले महीने दाख़िले शुरू हो जाएंगे, बिट्टू को पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बनाऊंगा।”

“मैं कह रही थी रूबी के लिए भी बात कर लेते आप, उसको बहुत शौक है पढ़ने का।”

“वाह! तू ये तरबियत देगी लड़कियों को, अम्मा देखियो, इसको। तेरी ज़ुबान खींच लूंगा, आइंदा तूने इस बात का ज़िक्र भी किया तो। अभी बाहर जा रहा हूँ वरना तुझे ठीक कर देता।”

परवीन एक गरीब घरेलू महिला, जिसका कुछ भी नहीं, न ज़मी और न आसमान, न कपड़े और न ही सोने के लिए बिछौना। पर उसको पता नहीं था के उसके पास सांसें हैं और हाथ पैर भी। सब कुछ तो था फिर इतनी अपाहिज क्यों?

आज सुबह फिर चारों फिर इकट्ठा हुईं, “आजा रूबी बाज़ार की सैर करवा न!”

“अम्मी आज तो मैंने ऐसे कंगन देखे जिसको देखने के लिए मुझे इतनी देर हो गई, अम्मा ने मुझे डंडे से मारा, अम्मी! पता है? वो कंगन ऐसे हैं जैसे कंगन परियों के लिए बने हों।”

“हए अल्लाह, सच्ची? किस रंग के हैं?” परवीन ने पूछा।

“अम्मी लाल रंग के और उन पर हीरे जड़े हुए हैं, चमकीले।”

“चल! पागल हीरे वाले कंगन यहाँ नहीं मिलते”, शहनाज़ बोल पड़ी।

“शहनाज़ तू चुप कर, रूबी और बता!”

“अम्मी वो कंगन मेरे दिमाग से नहीं निकल रहे, अम्मी तुम ले लो न, बहुत प्यार हैं। ले लो अम्मी।”

“मेरे पास तो बस 300 रुपय हैं, जो नज़्ज़ो आपा देकर गयीं थीं। सच में कंगन बहुत प्यारे हैं? बाज़ार कैसा लगता होगा अब? अभी भी चवन्नी चलती होगी क्या? रूबी, सुन तो! क्या भुने हुए इमली के बीज पंसारी के यहाँ देखे तूने? आज अब्बा की याद आ रही है। अब्बा ले जाते थे बाज़ार। मैं तो इक्के पे सवार होकर चितली कबर और मीना बाज़ार जाऊंगी।”

“हाँ अम्मी पैसे तो देख लो”।

“अम्मी 200 हम तीनों ने भी जमा किए हुए हैं।”

“इसका मतलब 500 हो गए! जा रूबी देख अम्मा क्या कर रही हैं और बिट्टू?”

“अम्मी, अम्मा सो रही हैं, और बिट्टू भी उनके हाथ पर सो रहा है।”

“शहनाज़! देख ज़रा कितने बजे हैं?”

“अम्मी सवा दो हुए हैं, अब्बा कहाँ आएंगे अभी।”

“आज मैं भी बाज़ार की रौनक देख कर आती हूँ, मेरी मूई किस्मत ऐसी शादी के बाद जो आई तो यहीं की होकर रह गई, आज तक कभी बाहर नहीं निकली। पैरों में मर्दों ने जो छाले दिए हैं जो बस घर के दायरे में ही घूम सकते हैं। ख़ैर छोड़ो।”

“अम्मी लो बुर्का।”

“आज लाली और पाउडर भी लगा लू क्या? काजल तो दे ज़रा!”

आज उस कंगन की ललक ने परवीन को आसमान में उड़ने की ताकत दी। आज बेड़ियों को तोड़ने की उम्मीद जगी है।

“शहनाज़ तू और रूबी एक साथ पहले निकलो, मैं भी आती हूँ नगीना के साथ, दबे पांव चलाओ।”

हाथ में चप्पल लिए परवीन फटा हुआ और सैकड़ों सिकुड़न के साथ बुर्का पहन परवीन घर से निकल गई।

6 बज चुके थे, अम्मा घर में परवीन और लड़कियों को न पाकर बहुत चीखी और गालियों की बौछार कर दी।

आज परवीन ने ठान लिया था, आज अपने घर के मैले आसमान से निकल कर असली आसमान देखने को निकल पड़ी थी। आज उसने ज़मी को नापने के लिए समाज के सारे ताने और गालियों को दरकिनार किया हुआ था। उसके ऊपर के शरीर पर मैले कपड़े ज़रूर थे मगर उसकी अंतरात्मा आज ही जीवित हुई थी। मानो उसको संसार मिल गया हो। उसने भुने हुए इमली के बीज भी लिए और वो कंगन भी।

शाम 7:30 पर रब्बन नीचे ही खड़ा हुआ था। उसने परवीन और लड़कियों को घर आते हुए देखा और रब्बन को देखते ही परवीन के चेहरे कि रंगत उड़ गई थी। रब्बन ने सबसे पहले घर का दरवाज़ा बन्द किया और डंडे से परवीन को पीटने लगा। सभी ने तमाशा देखा किसी ने रब्बन को रोका नहीं।

रब्बन ने वही किया जो अक्सर निम्नवर्गीय मुस्लिम घरों में होता है, “तलाक़ दे दूंगा” और वही हुआ, पहले उस औरत ने मार खाई और उसके बाद “तलाक़!तलाक़! तलाक़!” बस क्या था। इसके बाद परवीन रब्बन के पैरों पर गिर गई और बच्चियाँ भी उसके पैरों पर गिर पड़ीं। शहनाज़ समझदार भी थी और अभिमानी भी। शायद उसमें खुद्दारी थी।

“हट मेरे पैरों से, और हाँ पूरे 50, हज़ार लग चुके हैं तेरी और तेरी बेटियों की परवरिश में। पूछ के चली जाती तो एक दिन के लिए कुलटा ही बन जाती, कुछ कमा कर तो ले आती।”

“अब्बू! आप अपनी ज़ुबान पर लगाम लगाइये!”

रब्बन ने शहनाज़ को थप्पड़ मारते हुए गंदी गन्दी गली देता है और चारों को भगा देता है।

लोगों की सलाह पर लड़कियाँ और परवीन अस्पताल जाती हैं। अस्पताल से इलाज होने के बाद परवीन डॉक्टर से बताती है उसका अब कोई घर नहीं और वो यही कहीं फुटपाथ पर रह लेगी। अस्पताल प्रशासन ने चारों को किसी समाजसेवी संस्था को सौंप दिया।

कई साल गुज़रे। लगभग 15 साल मेहनत के बाद शहनाज़ लाजपत नगर की मशहूर फैशन डिज़ाइनर बनी। जब वह रब्बन मियाँ के पास 50 हज़ार वापस देने गई तो। हालात देख कर दंग रह गई।

रब्बन बिस्तर पर पड़ा हुआ था और बिट्टू अपने दोस्तों के साथ ताश खेल रहा था। आज शहनाज़ और रब्बन में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी क्योंकि दोनों एक दूसरे के विलोम में थे। रब्बन शहनाज़ को नहीं पहचान पाया। मगर शहनाज़ ने उसको याद दिलाया, “आपकी तीन बेटियाँ भी थी। याद है आपको?”

रब्बन रोने लगा। शहनाज़ का दिल पसीज गया और वो उसको अस्पताल लेकर गई। मगर रब्बन ने दम तोड़ दिया और अपनी जमा पूँजी उसके हाथों में रख गया।

मूल चित्र : Canva Pro 

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