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शबाना आज़मी द्वारा प्रोड्यूस की गयी फ़िल्म मी रक़्सम पूछती है कि अगर कोई मुस्लिम लड़की डांस सीखना चाहती है तो क्या यह गैर मज़हबी हो जाता है?
Zee 5 पर आज रिलीज़ हुई फ़िल्म मी रक़्सम अपने आप में बेहद अलहदा फिल्म है। अलहदा इस वज़ह से क्योंकि यह फिल्म एक साथ कई विषयों पर बात करती है। मसलन, आज के समय में हम जिस सामाजिक-राजनीतिक महौल में रहे है जहां खाना-पीने से लेकर पहनना-ओढ़ना सब मज़हबी है। राजनीतिक महत्वकांक्षा के भाग-दौड़ ने हमारे सामाजिक जीवन में वह खाई पैदा की है। उस दौर में यह फिल्म एक लोकतांत्रिक मूल्क में किसी को भी अपने शर्तों पर जीवन जीने का हक है इसकी मुखालफल करती है।
इसके साथ-साथ यह फिल्म एक पिता-बेटी और मुस्लिम समाज की उन मान्यताओं की परत भी खोलती है। जहां कोई भी कला किसी मज़हबी दायरे में कैद होकर नहीं रहती है। वह उस देश के सभ्यता और सस्कृति के साथ घुल-मिल कर उस देश की हो जाती है। वहां के लोगों के रूह में बस जाती है जिसके बाद उसका कोई धर्म नहीं रह जाता है वह गैरमज़हबी हो जाती है। यह बात एक धर्मनिरपेक्ष मूल्क में यहां के सभ्यता-सांस्कृति को बहुत पहले समझ लेनी चाहिए थी पर देश के तमाम सामाजिक संस्थानों ने न ही यह सामाजिक पाठ सीखा न ही यहां के निवासियों को यह सीखने दिया।
भरतनाट्यम डांस फार्म हिदुस्तानी तहजीब के हिस्से के रूप में दुनिया भर में जाना जाता है। कुछ लोग इसे हिंदू डांस फार्म कहकर परिभाषित करते है। ऐसे में अगर कोई मुस्लिम लड़की डांस स्कूल जाती है या सीखना भी चाहती है तो यह गैर मजहबी हो जाता है। डांस ही नहीं संगीत के दुनिया में अपना सपना पूरा करना भी गैर मजहबी हो जाता है। हाल के दिनों में इस तरह के गैर मज़हबी फतबे ने कुछ कलाकारों से उनकी कला झीनी भी है।
शाबाना आज़मी के भाई बाबा आजमी के निर्देशन में बनी फ़िल्म मी रक़्सम इस गैर-मज़हबी अंधेरे में दिया जलाने की कोशिश कर रहे हैं, इस उम्मीद में यह मशाल की तरह जलें और अंधेरे को दूर कर दें। इस कोशिश में अपने अभिनय से नसीरुद्दीन शाह मस्लिम समुदाय के धर्मनिरपेक्ष नेता की भूमिका में हैं। दानिश हुसैन एक केयरिंग पिता की भूमिका में हैं और उनकी बेटी की भूमिका निभा रही है अदिति सुबैदी।
फिल्म अपनी कहानी कहने के दौरान मुस्लिम समुदाय के धर्मनिरपेक्ष नेता की भूमिका अदा कर रहे नसीरुद्दीन शाह अपने बिरादरी और बेटी के पिता दोनों को यह हौसला देते हैं कि अपने कर्मों पर पर डिगे रहें।
वह यह सलाह बेटी के पिता को इसलिए देते है क्योंकि वह जानते है कि गैर मज़हबी लोग भी इस बात को पचा नहीं सकेंगे कि एक मुस्लिम लड़की भरतनाट्यम सीख रही है। जाहिर है कि मुस्लिम समाज में ही नहीं हिंदू समाज में भी किसी भी कला को लेकर उदारवादी स्वतंत्र रूख नहीं है। यही वर्चस्वशाली मूल्य कला को आजाद ख्याल नहीं रहने देती है और उसको मज़हबी दायरे में कैद कर रखना चाहती है।
फ़िल्म मी रक़्सम साथ ही साथ एक और चीज पर गंभीर इशारा करती है वह यह कि अगर कोई परिवार का कोई सदस्य किसी तरह की कला सीखना चाहता है तब उस कला से जोड़कर कैसे-कैसे ताने दिए जाते है। मसलन फिल्म में अदिति सुबैदी की फूफी कहती है डांस सीखाकर उसे मुज़रा कराना है? इस तरह के उलजलूल मिसरे और ताने न जाने कितने ही लड़के-लड़कियों को वह काम करने को प्रेरित नहीं करते है जो वह वास्तव में करना चाहते है। यह समाजिक व्यवहार कई बार तो हौसलों को इस कदर तोड़ देता है कि बात बनने से पहले ही बिगड़ जाती है।
जिस अंदाज में फ़िल्म मी रक़्सम में कहानी सुनाई और दिखाई गई है वह धीरे-धीरे लोगों को पसंद जरूर आएगी। जरूरत इस बात की अधिक है कि हम इस तरह के कहानियों को समाज के लड़के-लड़कियों के बीच उतरने दें क्योंकि कला चाहे कोई भी हो, वह हर कलाकार को सबसे पहले संवेदनसील इंसान बनाती है फिर बेहतरीन कलाकार।
मूल चित्र : YouTube
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