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गुंजन सक्सेना: द करगिल गर्ल अपनी हौसले और संघर्ष की कहानी कहने के साथ-साथ महिलाओं के साथ हो रहे असमानता के व्यवहारों के कारणों को भी बताती चलती है।
जान्ह्वी कपूर, पंकज त्रिपाठी, विनीत कुमार सिंह और मानव विज जैसे कलाकारों से सजी फिल्म गुंजन सक्सेना: द करगिल गर्ल नेटफिलिक्स पर रिलीज हो गई। इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है कि यह फिल्म गुंजन सक्सेना की इंस्पायरिंग और इमोशनल कहानी है।
धर्मा प्रोडक्शंस के और ज़ी स्टूडियों के बैनर तले न्यू कमर शरण शर्मा के निर्देशन में गुंजन सक्सेना के हौसले की कहानी के साथ-साथ पिता-बेटी के खूबसूरत रिश्ते की कहानी कहने की कोशिश की है। इसके साथ-साथ यह कहानी भारतीय समाज में समाजीकरण और भारत के समाजिक संस्थाओं के व्यावहारिक चरित्र की भी कहानी कहती है।
प्रख्यात नारीवादी चिंतक सिमोन द बोउवार का प्रसिद्ध कोट है, “लड़कियां पैदा नहीं होती है बना दी जाती है।” लड़कियों को बनाने में समाजिक व्यवहार और सामाजिकरण की बड़ी भूमिका होती है। बचपन में गुंजन सक्सेना के लिए गुड़िया और उसके बड़े भाई के लिए हवाई जहाज देना, हमारे समाज का वही समाजिकरण है जो लड़कियों को गढ़ता है। यही नहीं स्कूल के ड्रांइग के परीक्षा में हर लड़की घड़े, फूलदान और घर की तस्वीरे बनाती है पर गुंजन हवाई जहाज की तस्वीर बनाती है जिसको टीचर दो हिस्से में बांट देती है। स्कूल का यहीं व्यवहार वह सामाजिक व्यवहार है जो लड़कियों को लड़कियों के तरह होने को मजबूर करता है।
यही नहीं जब गुंजन दसवी के परीक्षा में अच्छे नंबर से पास होती है और आगे पढ़ने के बजाय पायलट बनाना चाहती है। यह बात जब वह घर की पार्टी में सबों के बीच बोल देती है और उस समय समाज के लोगों के बीच में जो काना-फूसी हो रही होती है कि “लड़कियों को इतनी छूट नहीं देनी चाहिए।” यह वह सामाजिक आचरण है जो लड़कियों को उसके मर्यादित सीमा की चौहद्दी को लांघने से रोकता है।
इसके साथ-साथ एक और गंभीर बात यह फिल्म अपने अंडरटोन में कहती है। वह यह है कि भले ही भारतीय संविधान में स्त्री-पुरुष को समान माना है और लिंग के आधार पर भेदभाव का पुरजोर विरोध किया है। परंतु इस संविधानिक इच्छा शक्ति के साथ देश के सामाजिक संस्थाओं में महिलाओं के साथ समानता का व्यवहार किया जाए इसके लिए जो ढांचा खड़ा किया जाना चाहिए, हमारी अब तक की सरकारें और सामाजिक संस्थाएं इसमें बुरे तरीके से नाकाम रही हैं। इस गंभीर लोकतांत्रिक समस्या के तरफ भी इराशा यह फिल्म करती है।
आखिर क्यों देश के किसी भी सामाजिक संस्था में महिलाओं के अलग से टायलेट तक नहीं उपलब्ध था। जिसके कारण गुंजन शर्मा को पुरुष टायलेट का इस्तेमाल करना पड़ा। क्या यह गंभीर लोकतांत्रिक समस्या नहीं है? गौरतलब हो कि आजादी के कितने साल बाद तक देश के सर्वोच्च सदन लोकसभा और राज्यसभा तक में महिलाओं के लिए टायलेट तक की व्यवस्था नहीं थी। यूपीए के कार्यकाल में मीरा कुमार के दौर में इन दोनों सदनों में महिलाओं के लिए अलग से टायलेट की व्यवस्था की गई।
गुंजन सक्सेना: द करगिल गर्ल अपनी हौसले और संघर्ष की कहानी कहने के साथ-साथ महिलाओं के साथ हो रहे असमानता के व्यवहारों के कारणों को भी अपने साथ बताती चलती है। साथ में उसका जवाब भी देती है जब कारगिल के फर्ट पर गुजंन सक्सेना अपने भाई से कहती है कि “दुनिया की छोड़ो दादा, खुद को बदलो शायद आपको देखकर दुनिया की सोच भी बदल जाए।”
यह वह डायलाग है जिसे भारतीय समाज परिवार और देश की सामाजिक संस्थाओं को सबसे ज्यादा जरूरत है। देश के तमाम महिलाओं को उनकी शारीरिक क्षमता के आधार पर नहीं उनकी योग्यता के आधार पर जांचा-परखा और कसौटीयों पर परखा जाना चाहिए। साथ ही साथ परिवार-समाज-देश और समाजिक संस्थाओं का सामाजिक व्यवहार स्त्री-पुरुष समानता को बढ़ावा देना होना चाहिए न कि भेदभाव बरतने का।
गुंजन सक्सेना: द करगिल गर्ल लोगों को एक नहीं कई कारणों से देखनी चाहिए। यह सही है कि यह भारत की पहली महिला पायलट की असली जिंदगी की कहानी है। जिसमें उसका संघर्ष, पारिवारिक भावुकता, हौसले की भरमार वगैरा सबकुछ है। परंतु इसके साथ-साथ एक लड़की के पैशन को पाने के लिए सामाजिक ढांचों में हमारी बनाई गई बाधाओं की भी कहानी है जो कितनी ही गुंजन सक्सेना को उसकेपैशन को पूरा नहीं करने देता है और कहता है, “अब न तू शादी करके सेटल हो जा बच्चे।”
मूल चित्र : Netflix
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