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इस्मत चुग़ताई की कलम से हमें सुनाई देती है एक प्रगतिशील नारीवाद की आवाज़!

उर्दू साहित्य का चौथा स्तंभ कही जाने वाली इस्मत चुग़ताई को किसी ने अश्लील लेखक कहा तो किसी ने बेशर्म; पर आज का उर्दू साहित्य उनका ऋणी है और शायद ताउम्र रहे। 

उर्दू साहित्य का चौथा स्तंभ कही जाने वाली इस्मत चुग़ताई को किसी ने अश्लील लेखक कहा तो किसी ने बेशर्म; पर आज का उर्दू साहित्य उनका ऋणी है और शायद ताउम्र रहे। 

तलवार की तरह तेज़ तर्रार कटाक्ष बिखेरती है उनकी कलम की स्याही! बेडर, बेझिझक और बेबाक हैं इनकी प्रदर्शनों की सूची! उर्दू साहित्य में इस्मत चुग़ताई का योगदान सराहनीय इसलिए ही नहीं है क्यूँकि वह एक उर्वर लेखिका थीं। लकीर से हट कर प्रगतिशील लेखन जो काफ़ी हद तक उस ज़माने में एक नारी की कलम से लिखा हुआ ना सिर्फ़ अरुचिकर माना जाता था मगर बेहद असराहनीय और बेपाक भी समझा गया था, लेकिन उनका डटे रह कर अपने उसूलों पर क़ायम रहना उनकी हिम्मत की दाद देने योग्य है।

एक महिला कथाकार का इस रूप से बेलिहाज़ा स्त्रियों की यौन ज़रूरतों को दर्शाना और अपने प्रतिगामी पाठकों को उससे आगाह करना, उस ज़माने के माहौल को देखते हुए काफ़ी हद तक उल्लेखनीय और सराहनीय है। इस्मत चुग़ताई की कलम ने बेहद प्रभावी ढंग से उस दौर में यह मुश्किल काम बखूबी किया।

इस्मत चुग़ताई के लेखक जीवन की शुरुआत 

इस्मत चुग़ताई का जन्म 21 अगस्त 1915 में बदायूँ, उत्तर प्रदेश में हुआ। ज़्यादातर अलीगढ़ में पढ़ी-बढ़ी और अपने भाई मिर्ज़ा अज़ीम बेग से प्रेरित हो उन्होंने छुपते-छुपाते लिखना शुरू तो किया मगर प्रकाशन 1939 में पहली बार एक नाटक ‘फ़सादी’ से शुरू हुआ। बर्नार्ड शॉ और ऐंटोन चेखॉव ने भी उनके लेखन को प्रभावित किया।

1942 में वह मुम्बई आईं और इस ही साल के अंत में उनका निकाह लतीफ़ से हुआ जो फ़िल्म में संवाद लिखते थे। ख़्वाजा अहमद अब्बास जी की हाज़री में उनका निकाह वैध हुआ।

‘लिहाफ़’ और इस्मत चुग़ताई 

तब ही इस्मत चुग़ताई की बेहद प्रशंसनीय कहानी ‘लिहाफ़’ पत्रिका ‘अदब-ई-लतीफ़’ में लाहौर में प्रकाशित हुई। इस कहानी ने जो उन पर एक छाप लगायी वो शायद उनके पूरे लेखिका के रूप में बिताए जीवन का सार है। कई और चुनिंदा कहानियाँ आई गई मगर ‘लिहाफ़’ उनकी एक ऐसी यादगार कहानी है जो अपने ज़माने से कई दशक पहले समलैंगिक प्रवृति को वैध करने की कोशिश में लिखी गयी और जिस कारण वश उनके ऊपर मुक़द्दमा भी चला। 

‘लिहाफ़’ का उल्लेख हाल ही में ‘डेढ़ इश्कियाँ’  फ़िल्म में भी किया गया

इनकी कहानियों में समाज की ऐसी सच्चाइयों का बयान है जिनकी कड़वाहट आज भी हमें झकझोर देती है। ‘लिहाफ़’ के बारे में तो पाठकों ने बेहद पढ़ा होगा और हाल ही में ‘डेढ़ इश्कियाँ‘  फ़िल्म में भी इसका उल्लेख बेहद सुंदर ढंग से दर्शित किया गया। फ़िल्म का नाम ही इसकी ओर टिप्पणी कर बेगम के आधे इश्क़ को स्वीकारता है जो वह अपनी शागिर्द से फ़रमाती हैं।

इस्मत चुग़ताई और मंटो की मित्रता लफ़्ज़ों और सीरत में 

उन्हीं दिनों उनके मित्र मंटो पर भी ‘बू’ कहानी को लेकर मुक़द्दमा चला और दोनो साथ ही यह संघर्ष झेलते हुए 1945 में दोशमुक्त हुए। वह मंटो की मित्र ना सिर्फ़ लफ़्ज़ों में मगर सीरत में भी थीं। दोनों  ‘प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट’ यानी ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की देन हैं और दोनों ही ने जो अपनी जगह बनाई है वह अब तक क़ायम है और हर नए कहानीकार के लिए एक प्रतीक चिन्ह के रूप में उनकी सफलता से उन्हें प्रेरित कर साहित्य को एक समाज का आईना बना रहने की क्षमता देती है।

इस संघ के कुछ और उर्दू साहित्य से जुड़े लेखक हैं जान निसार अख़्तर, कैफ़ी आज़मी और कईं और चुनिंदा व्यक्तित्व मगर औरतों में उनके साथ कुछ ही नाम थे जिनमें से एक थीं सलमा सिद्दीक़ी (किशन चंदर की बीवी) और दूसरी ओर पंजाबी साहित्य की अमृता प्रीतम।

इस्मत चुग़ताई समाज की मजबूरियों को बेहद सरल ढंग से प्रस्तुत करती हैं

मैं इस्मत चुग़ताई की कुछ और कहानियों का उल्लेख कर पाठकों से निवेदन करूँगा कि वह उन्हें पढ़ उनकी प्रशंसनीय दूरदर्शता को सराहे जो ना सिर्फ़ एक औरत की नज़र से थी मगर समाज की मजबूरियों की बारीकी को समझ उन्हें बेहद सरल ढंग से बिल्कुल नंगी तलवार के माफ़िक़ हमारे सामने ला हमें निहत्था बना लाचार और बेबस कर देती हैं।

‘चौथी का जोड़ा’ एक नारी के लिए बनाये गये समाज के नियमों पर कटाक्ष करती है

‘चौथी का जोड़ा’ में एक माँ की लाचारी और एक बिन ब्याह बेटी की कहानी कुछ इस रूप में प्रस्तुत की गयी है की वो पाठकों के दिलों को यथार्थ की गहरी पकड़ से झँझोड़ देती है कि आख़िर क्यूँ हमारा समाज एक नारी के लिए अच्छा रिश्ता और अच्छा शौहर ही मिलना लाज़मी समझ उसकी इच्छाओं के पर काट उसे एक कमज़ोर व्यक्तित्व का बना देता है, जिसमें से निकल पाना एक ऐसी जद्दोजहद पैदा करता है जिसमें एक तरफ़ कुआँ तो दूसरी तरफ़ खाई।

बेबाक़ी, अछूती उपमाएँ, रंगीन ख़्वाब और इसी प्रकार के कई और ख्यालात इस्मत चुग़ताई की कहानियों में व्यंग, यथार्थवादी परिस्थितियों और ग़ाली-गलोच, दुआओं-बद्दुआओं के जुमलों के पैंतरों के इस्तेमाल से बेहद स्वभाविक ढंग से मौजूद हैं। गालियाँ भी कभी इतनी सुहानी मालूम देती हैं और उनके किफ़ायती इस्तेमाल से इतने उम्दा और तवज़्ज़ु रखने वाले ख्यालात हम तक सरलता से पहुँचते हैं। 

कहानियों में बूढ़ी औरतों का किरदार 

बूढ़ी औरतों को उन्होंने अपनी कई कहानियों में बेहद रुचिकर रूप में पेश किया है। एक तरफ़ उनकी तेज़ तर्रार ज़ुबान और दूसरी तरफ़ उनका पसीजा हुआ दिल। दोनों ही उनके जज़्बातों का आईना बन शायद हमें यह समझाना चाहते हैं कि एक औरत का जीवन उसे इतनी कड़वाहटों को झेलता और इतनी बेड़ियों में क़ैद हो बीतता है कि शायद बुढ़ापे की आड़ में ही फिर उसे एक ऐसी आज़ादी दे पाता है जो उसकी ज़ुबान पर कटाक्ष बन टपकती है, जिसे दूसरी ओर उसका पिघलता दिल लगाम देता है।   

इस्मत चुग़ताई की कहानी ‘सास’

इस्मत चुग़ताई की कहानी ‘सास’ बेहद मार्मिक है जिसमें एक सास अपनी बहु को गालियाँ देते-देते शायद उसकी बेबसी को भी बखूबी समझती है और इसी कारण अपने बेटे का उस पर जुर्म भी नहीं सहन करती।

यह उनकी कहानियों का एक बेहतरीन पहलू है। उन्होंने इस बात को बहुत नाज़ुक ढंग से दर्शाया है कि कई हालात में स्त्री का शोषण मर्द से ज़्यादा एक औरत के हाथों ही होता है। और एक औरत को ही एक औरत को समझना तथा सांत्वना और सहयोग देना कितना ज़रूरी बन पड़ता है।

https://www.youtube.com/watch?v=nkn0xk9Awm0

एक और लघु कहानी ‘दो हाथ’

एक और लघु कहानी “दो हाथ” में एक सास का अपनी बहु के नाजायज़ बच्चे को अपनाना जब उसका अपना शौहर उर्फ़ उसका अपना बेटा सीमा पर तैनात है, समाज की उस बेबसी को दर्शाता हैं जहाँ एक लड़का पैदा हो कर अपने दो हाथ से घर के लिए कमा पाएगा और एक सहयोग साबित होगा, यह एक गरीब परिवार के लिए कहीं ज़्यादा मायने रखता है। इस लाचारी का विवरण सराहनीय और निंदा के परे है।

फ़िल्मी दुनिया में इस्मत का सफर  

फ़िल्म की दुनिया में इस्मत चुग़ताई का प्रवेश उनके शौहर लतीफ़ ने  फ़िल्म ‘ज़िद्दी’ से शुरू कराया। ‘बँटवारा’ भी उनकी कई कहानियों का मूल नायक है मगर ‘गरम हवा’ जिस को ले कर एम. एस. सथ्यू जी ने एक बेहतरीन फ़िल्म भी बनाई है।

https://youtu.be/iaur4u7Q0Bg

‘गरम हवा’ उनकी एक ऐसी कलात्मक रचना है जो बँटवारे को ऐसे दर्द की तरह पेश करती है, जैसे वह एक ऐसे रिसते हुए ज़ख्म की तरह है जो शायद कभी भर ही ना पाएगा। उसमें एक बूढ़ी अम्मी का चिल्लाना और दहाड़ना जब उसके विरोध पर उसे ज़बरदस्ती घर से चारपाई सहित उठा लाहौर ले जाया जा रहा है, शायद हर उस शरणार्थी के घाव को कुरेदता और वर्णन करता है, जिसे उस दौरान अपने वतन से बेघर किया गया।

इस्मत चुग़ताई को उनकी आखिरी फिल्म ‘गर्म हवा’ (1973) के लिए बेस्ट स्टोरी केटेगरी में नेशनल फिल्म अवार्ड और फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला है।

मार्मिक और दहला देने वाले यही किरदार उन्हें आज भी ज़िंदा रखते हुए उन पर आज तक एक उच्च कोटी की लेखिका का ख़िताब निर्विवाद सजाए रखे हैं।

1958 में बतौर निर्माता बन अपनी पहली फ़िल्म ‘सोने की चिड़िया’ बनाई

1958 में इस्मत चुग़ताई ने लतीफ़ जी के साथ निर्माता बन अपनी पहली फ़िल्म ‘सोने की चिड़िया’ बनाई। बेहद सफल और लीक से हट कर होने के कारण उन्हें एक बार फिर काफ़ी तारीफ़ और शौहरत हासिल हुई।

इस्मत चुग़ताई की आज़ादी की तलब को कभी भी दफ़नाया नहीं जा सका…

1970 के दशक के अंत में इस्मत चुग़ताई को अल्जाइमर के लक्षण की शुरुआत हुई और फिर एक लम्बे अंतराल में इस से जूझते हुए उनका इंतक़ाल 24 अक्तूबर 1991 में हुआ।

इस्मत चुग़ताई हमेशा से एक लिब्रल मुस्लिम होने का दावा करतीं और अपने इंतक़ाल पर भी उन्होंने दफ़नाना ना क़ुबूल कर अपनी ख़्वाहिश में अपना अंतिम संस्कार हिंदू सभ्यता के अनुसार होना चुना। उनके इस चुनाव का भी बेहद अनूठा कारण था।

इस्मत चुग़ताई अक़सर कहती थीं, “भई मुझे तो क़ब्र से बहुत डर लगता है। मिट्टी में थोप देते हैं, दम घुट जायेगा…मैं तो अपने आप को जलवाऊंगी।” इस में ही ज़ाहिर है उनकी आज़ादी की तलब जिसे कभी भी दफ़नाया नहीं जा सका।

मूल चित्र : Wikipedia, Dawn.Com, YouTube

 

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Manish Saksena

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