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विश्वास के क़त्ल को हम सह ना सके थे, अपनों से दग़ा खाकर ज़हर का घूँट हम पी रहे थे। इतने मजबूर थे की फिर भी हम जी रहे थे...
विश्वास के क़त्ल को हम सह ना सके थे, अपनों से दग़ा खाकर ज़हर का घूँट हम पी रहे थे। इतने मजबूर थे की फिर भी हम जी रहे थे…
कठघरे में हर बार हम ही खड़े हुए थे! जो क़सूरवार थे, वो बाहर हमदर्दी ले रहे थे।
देखकर तमाशा मेरा वो मुस्कुरा रहे थे! जान देते थे जिनपर, वो अग़्यार बने हमें देख रहे थे।
गुनहगार हम को ठहराकर सब के हमदर्द वो बने रहे थे! मौत के फ़रमान का अफ़सोस नहीं था हमें।
विश्वास के क़त्ल को हम सह ना सके थे! अपनों से दग़ा खाकर ज़हर का घूँट हम पी रहे थे।
इतने मजबूर थे की फिर भी हम जी रहे थे!
इतने मजबूर थे की फिर भी हम जी रहे थे…
मूल चित्र : Pexels
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