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किसान…

मेरी कविता का उद्देश्य भारत की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में निवास करती है जिनका मुख्य व्यवसाय कृषि है और कृषि ही उसकी रोजी-रोटी है।

मेरी कविता का उद्देश्य भारत की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में निवास करती है जिनका मुख्य व्यवसाय कृषि है और कृषि ही उसकी रोजी-रोटी है।

आज समकालीन यथार्थ विषय पर मेरी कविता का उद्देश्य भारत की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में निवास करती है जिनका मुख्य व्यवसाय कृषि है और कृषि ही उसकी रोजी-रोटी है। आज से ही नहीं सदियों से वो किसान जो अन्न पैदा कर हर तबके का पेट भरता है। लेकिन जब उन किसानों को उनकी मेहनत का नहीं मिलता है तब वह अभावों में आकर, कर्ज में डूब कर या कहें उसके समक्ष ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जिसके चलते उसे न चाहते हुए भी खुदखुशी करनी पड़ती है।

 

चीर कर सीना धरा का,

जो उगला दे बंजर भूमि से भी मोती,

बिना किसी परवाह के,

करे दिन-रात मेहनत,

बहाए दिन-रात पसीना,

तब जा पहुंचे जन-जन के पेट में भोजन।

 

सदियों से जिस कृषक ने कर मेहनत,

मिटाई भूख जन-जन के उदर की,

चाहे हो चिलचिलाती धूप या कड़कती हो बिजली,

चाहे हो बारिश की फुहार या हो ओलों की बौछार,

डट कर करे मुकाबला जो प्राकृतिक आपदाओं से,

अपने दृढ संकल्पों से उगाए अन्न का एक-एक दाना,

देख लहलहाती फसलों को संजोए नित्य नए सपने।

 

लेकिन जब न मिले उसे अपनी मेहनत सही मूल्य,

आकर अभावों में,

तब पड़ जाए वह सोच में,

क्या खाए क्या खिलाए क्या पहनाए,

कैसे पढ़ाए कैसे कर्ज चुकाए,

इन महाजनों और बैंको का,

कैसे सहे जुल्म और सितम इन व्याज़ खोरों का।

 

अंत में जब हो जाएँ हौसले पस्त,

और न सुझे कोई रास्ता,

तब लगाए गले फांसी पीए वो कीटनाशक,

जरा सोंचो बेच कर नकली बीज व कीटनाशक क्या पाओगे,

जरा सोंचो ऐसी तरक्की ऐसी राजनीति से क्या पाओगे।

 

अभी भी समय है कि हम सोचें,

भारतीय अर्थ व्यवस्था की रीढ़ के बारे में,

यदि वह न उगाए अन्न का दाना,

तो क्या खाओगे और खिलाओगे अपने प्यारों को।

 

यदि आज भी न समझे,

उस हलधर की मेहनत को,

तो कब समझोगे,

यदि वह इस तरह देता रहेगा जान,

तो क्या तुम खुद उगाओगे अनाज,

तो क्या तुम खुद उगाओगे अनाज।

मूल चित्र : Pexels

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