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बैंगल स्टैंड के बग़ल में रखी लाल रंग की लिपस्टिक इतरा रही थी कि 'मैं ही हूं वो जो किसी भी औरत के चेहरे को बदल सकती हूं।' वो आंटी की पसंदीदा लिपस्टिक थी।
बैंगल स्टैंड के बग़ल में रखी लाल रंग की लिपस्टिक इतरा रही थी कि ‘मैं ही हूं वो जो किसी भी औरत के चेहरे को बदल सकती हूं।’ वो आंटी की पसंदीदा लिपस्टिक थी।
आंटी का कमरा ज्यादा बड़ा नहीं था लेकिन शानदार था। और तारीफ की बात यहां पर यह थी कि उसमें शानदार दिखने वाली कोई भी चीज नहीं थी सिवाय उनके नज़रिए के।
नजरिया किसी भी इंसान की जिंदगी में बहुत खास जगह रखता है और वो मैं उस एक छोटे साधारण से कमरे में देख सकती थी। उस कमरे की हर चीज खुशमिजाजी के साथ मेरा स्वागत कर रही थी। चाहे वो कमरे के दरवाजे के बाएं ओर खुलने वाली खिड़कियों की सिलिंग पर टंगी हुई विंड चाइम्स की हवा से हिलकर बजने वाली आवाज़ हो या फिर उसी खिड़की पर धूल को रोकने के लिए लगाया गया एक रेशमी कपड़े का सुर्ख लाल रंग का पर्दा हो।
वो पर्दा आंटी की ही किसी साड़ी का है ऐसा मैं महसूस कर सकती थी इसलिए नहीं कि हम औरतें किसी भी चीज को उसके आखिरी पड़ाव तक इस्तेमाल करती हैं बल्कि इसलिए क्योंकि इस पर्दे में आंटी की शोखी झलक रही थी।
उसका हवा से और बाहर से आती तेज धूप के साथ खेलना उसकी चंचलता को दिखा रहा था और धूप में उसके लाल रंग की चमक उसकी शोखी को। उसी बायी ओर दूसरे कोने में आंटी का ड्रेसिंग टेबल रखा हुआ था, थोड़ी सी पुरानी नक्काशी को लिए हुए वो बोलता हुआ सा दिख रहा था कि “आओ मेरे पास। मैं तुमको सजा दूं।”
उसका शीशा पुराना हो चला था लेकिन फिर भी उसमें बनने वाला अक्स संजीदा लगता था। उस शीशे के नीचे टेबल पर बिछे हुए छोटे-छोटे क्रोशिया वर्क वाले टेबल क्लॉथ अपने पुराने हो जाने का इशारा अपने पीलेपन से कर रहे थे लेकिन उसमें बने हुए लाल फूलों का वर्क अभी भी खिला हुआ लग रहा था।
उस टेबल क्लॉथ के ऊपर रखा हुआ बैंगल स्टैंड और उस पर टंगी हुई लाल, हरी और सुनहरे रंग की चूड़ियां अपने आप में बोल रही थीं। उसी बैंगल स्टैंड के बग़ल में रखी लाल रंग की लिपस्टिक खुद के घमंड में इतरा रही थी कि ‘मैं ही हूं वो जो किसी भी औरत के चेहरे को बदल सकती हूं।’ वो लाल रंग की लिपस्टिक आंटी की पसंदीदा लिपस्टिक थी।
दरअसल लाल रंग आंटी का पसंदीदा रंग था। वो अक्सर बोलती थीं, “लाल रंग में एक तेज़ है, एक शोखी है, एक उमंग है और एक तरंग है, और ये सारी खासियत एक औरत में भी पायी जाती है। ये लाल रंग सिर्फ़ और सिर्फ़ हम औरतों के लिए ही बना है। तो जो चीज़ हमारे लिए बनी है उसे हम लोगों को अच्छे से अपनाना चाहिए। दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं।”
मैंने शायद ही कभी आंटी को लाल रंग के अलावा कोई भी अलग रंग की लिपस्टिक लगाए हुए देखा हो। आज जब मैं आंटी के चेहरे को याद करती हूं, तो मुझे उनकी बातें बिल्कुल सच लगती हैं। उनका दमकता हुआ चेहरा और उस पर उनके लाल रंग की लिपस्टिक से सजे हुए होंठ। कितना सुन्दर और प्यारा चेहरा, सब लोग देखने लग जाए ऐसा आकर्षक, खनकती हुई आवाज़ और अदाएं, शोख अंदाज़ और प्यार की झलक, ये सब उनके अंदर थे।
मैं आंटी के बारे में सोच ही रही थी कि तभी अचानक मेरी नज़र उनके कैसेट प्लेयर पर पड़ी। 90 के दशक का कैसेट प्लेयर, जो अंकल ने उनको गिफ्ट दिया था, उनके बर्थडे पर। ये उनको अपनी जान से भी ज्यादा प्यारा था। वो इसमें अपनी पसंद के गाने सुनती थीं। उन्हें गाना सुनते हुए ख़ुद को संवारना बहुत अच्छा लगता था।
वो मुझसे अक्सर बोलती रहती थीं कि ‘ख़ुद को किसी भी अभिनेत्री से कम ना समझो। अगर देखा जाए तो असल जिंदगी में भी हम सब अभिनय ही तो कर रहे हैं, लेकिन हां हम औरतें कुछ ज्यादा ही रमी हुई है इस अभिनय में। हम हर दिन अभिनय करते हैं, चाहे वो ज़माने को दिखाने के लिए ख़ुश होने का हो, या फिर अपनी बात को मनवाने के लिए पति के सामने नाराज़ होने का हो। और चाहे वो कितनी भी बड़ी मार खाकर चार लोगों में खुद को ठीक दिखाने का हो या फिर खुद के आत्म सम्मान को मारकर मुस्कुराने का ही क्यूं ना हो। हर जगह सिर्फ़ अभिनय ही तो है। तो जब अभिनय ही करना है तो अच्छे से करो। उसमें कोई कमी ना रखो।’
जब भी वो तैयार होती थीं, वो नमक हलाल फिल्म का जवानी जानेमन हसीन दिलरुबा गाना जरूर बजाती थीं और ख़ुद भी गुनगुनाते हुए या फ़िर यूं कहें कि उसको महसूस करते हुए ख़ुद की खूबसूरती पर इतराती थीं।
मैंने एक बार उनसे यही पूछा कि आप हमेशा यही गाना क्यों बजाती हैं? तो वो मुझसे बोलीं कि ‘पहली बात तो ये गाना मुझको बहुत पसंद है और दूसरी बात जब भी मैं इस गाने को सुनकर तैयार होती हूं मुझे मुझमें एक अलग सा आत्म विश्वास आ जाता है। मुझे तब ऐसा लगता है कि जैसे मैं इस गाने की एक एक लाइन पर खरी उतर रही हूं।’
और फिर वो एक शोख हंसी हंसकर, मेरी ओर देखते हुए गाने की कुछ लाइंस गुनगुनाने लगीं, ‘नज़र-नज़र मिली, समां बदल गया चलाया तीर जो, मुझी पे चल गया गज़ब हुआ, ये क्या हुआ, ये कब हुआ न जानूँ मैं, न जाने वो, ओहो जवानी जानेमन…’
मैं बस मुस्कुरा दी और वो हंस दीं। जब वो गुनगुना रही थीं, तो अपनी आंखों से भावों का भी प्रदर्शन कर रही थीं। उनकी आंखे बोल रही थीं। उनकी आंखे और आंखों की चमक अभी भी तैर रही मेरी आंखों में। वो मुझसे हमेशा बोलती रहती थीं कि ‘ये ज़िन्दगी एक लाल रंग की तरह है सुर्ख, गहरी और सुंदर। जैसे हम लाल रंग की खूबसूरती को बयां नहीं कर पाते सिर्फ़ उस दिल से महसूस करते हैं, वैसे ही ज़िन्दगी भी है। इस ज़िन्दगी को कभी भी समझना नहीं चाहिए बस मुस्कुरा कर उसके हिसाब से आगे बढ़ते रहना चाहिए। ऐसा करने से हमको सुकून मिलता है और ये सुकून आज की दुनिया में बहुत कीमती है, हर एक के पास नहीं होता। इसीलिए आराम से रहो और खुल कर जियो।’
इन्हीं सब ख्यालों के साथ मैंने आंटी के कमरे को एक नज़र भर कर देखा, सब कुछ वैसा है सिर्फ़ वो ही नहीं हैं। आज उनको गुज़रे एक महीना हो गया और आज उनके कमरे में आकर ऐसा लग रहा है कि वो अभी मेरे सामने आएंगी और ‘जवानी जानेमन’ गाना बजाकर ख़ुद को संवारने में लग जाएंगी।
मुझे लगा कि मुझे वो गाना बजाना चाहिए और मैंने बजा दिया। शायद मैं भी चाहती थी कि मैं भी अपने अंदर के खालीपन और उदासी को आंटी की यादों के लाल रंग में डूबा दूं।
क्या पता? ज़िन्दगी थोड़ी हसीन लगने लगे!
मूल चित्र : CanvaPro
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