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"अम्मा! बेटा, बेटी तो हमारे हाथ में नहीं होता ना। भगवान जो चाहे वो दे दे...", बहू ने सर झुका कर इतना ही कहा था कि अम्मा गुस्से में फुफकार उठीं।
“अम्मा! बेटा, बेटी तो हमारे हाथ में नहीं होता ना। भगवान जो चाहे वो दे दे…”, संगीता ने सर झुका कर इतना ही कहा था कि अम्मा गुस्से में फुफकार उठीं।
“देख बहू! पहली औलाद ही लड़की जनी है तूने। अगर दूसरी बार भी लड़की हुई तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा! मुझे पोता चाहिए साल भर के अंदर।”
“अम्मा! अभी तो मुन्नी सिर्फ चार महीने की है और…”
“चार महीने की हो गई न? मैंने सात बच्चे जने थे। एक एक साल का फर्क था। सब तो नहीं बच पाए मगर पांच को पाला है मैंने अकेले। तुम्हारे ससुर जी सिर्फ कमाते थे, घर से उनको कोई मतलब नहीं होता था।”
“अम्मा! बेटा, बेटी तो हमारे हाथ में नहीं होता ना। भगवान जो चाहे वो दे दे…”, बहू ने सर झुका कर इतना ही कहा था कि अम्मा गुस्से में फुफकार उठीं।
“चली जा मेरी नज़र के सामने से। अब तू हमें सिखाएगी? अपने काम से मतलब रख, नहीं तो मायके में ही नज़र आएगी। बड़ी आई! अरे बेटे से तो वंश चलता है, बेटियों का क्या है? आज हैं कल अपने घर की हो गईं। बेटे ही बुढ़ापे तक साथ देते हैं बेटियां नहीं। चार अक्षर पढ़ क्या लीं, हमें ज्ञान बाटने लगीं…”, उनका गुस्सा खत्म ही नहीं हो रहा था।
शाम को बेटे के सामने खूब रोईं। बेटा भी मां का लाडला। माँ से वादा कर लिया कि इस बार बेटा ही होगा, “आप परेशान ना हो…”
मगर बहू संगीता ने सच ही कहा था बेटा बेटी तो हमारे हाथ में होता नहीं ये तो ऊपर वाले की मर्ज़ी होती है। इस बार भी बेटी ही हुई।
जब संगीता को पता चला तो बहुत परेशान हो गई। कितनी प्रार्थना की थी। कितनी मन्नत मांगी थी मगर अब क्या होगा? यही सोचकर वो बहुत परेशान थी।
माँ जी बहुत गुस्से में थीं उन्होंने ना तो पोती का मुंह देखा ना ही संगीता से बात की। उनके रवैये से उसे इतना अफसोस नहीं हुआ जितना महेश के रवैये ने उसे तोड़ दिया था।
एक दिन सासु माँ एक बाबा को घर ले आईं। उन्होंने उसे ऊपर से नीचे तक देखा फिर बोले, “आपको पढी़ लिखी बहू नहीं लानी चाहिए थी।” शायद माजी ने उसकी पढ़ाई के बारे में उन्हें बता दिया था।
“ये लीजिए। इसे काले कपड़े में बांधकर अपनी बहू के कमर में बांध दीजिएगा और ये राख पानी में डाल कर पूरे घर में तब तक छिड़किएगा जब तक आपकी बहू उम्मीद से ना हो जाए। और हाँ, आपकी बहू को हर सुबह चार बजे उठकर ठंडे पानी से नहाना पड़ेगा, पांच महीने तक।”
“मां जी ये सब क्या है?” वो हैरान हो कर पूछ रही थी।
“बाबा जी हैं। इनके आशिर्वाद से मेरे घर में पोता जरूर होगा। बस तुम बिना किसी सवाल जवाब के वो सब करना जो ये बोल रहे हैं…”
“मैं ऐसा कुछ नहीं करुंगी और अब मैं कोई बच्चा भी पैदा नहीं करूंगी। दो बेटियां हैं मेरी। इन्हीं को पढ़ा लिखा कर इतना काबिल बनाना है कि किसी लड़के से कम ना होंगी… “, उसने फैसला तो पहली बेटी के टाइम ही कर लिया था मगर इस बार तो पक्का फैसला था।
अम्मा ने तो सारा घर ही सर पर उठा लिया। उस दिन को कोसने लगीं जब उसे इस घर में बहू बना कर लाई थीं।
महेश ने उसे ही गलत कहा और हुक्म सुना दिया कि जो माँ ने कहा उसे मानना पड़ेगा नहीं तो वापस अपने बाप के घर जा सकती है।
संगीता को महेश से उम्मीद अब बिल्कुल ही खत्म हो गई। वो समझ चुकी थी उसकी बात यहाँ कोई नहीं मानने वाला क्योंकि हर रोज़ ही उससे बहस करते हमेशा ही ताने दिए जाते यहाँ तक की एक दिन महेश ने हाथ उठाया फिर तो मामूल ही बन गया। अब वो बिना बात के भी हाथ उठा लेता।
एक दिन जब वो बैठकर सब्ज़ी काट रही थी कि चाकू देखकर उसका दिल किया कि एक बार में खुद को खत्म कर ले, मगर फिर अपनी बच्चों का ख्याल आया, उनका क्या होगा? फिर सोचा अगर बच्चों के लिए ही जीना है तो क्यों ना उनके लिए सब कुछ करूँ। बस वही लम्हा था जब उसने सब्जी वहीं रखकर अपना और बच्चों का सामान उठाया और घर छोड़ दिया। हां जाते हुए ये जरूर बोल दिया कि वो अब कभी यहाँ नहीं आएगी।
संगीता ने इतना बड़ा कदम उठा तो लिया मगर उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? वो अपने मायके आई गई थी। उसके बाबा के पास बहुत पैसे तो नहीं थे मगर उन्होंने उससे वादा किया कि वो उसका पूरा साथ देंगे।
संगीता को समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या करे बच्चे भी छोटे थे जो करना था घर से ही करना था। उसने छोटे-छोटे बहुत सारे काम किए मगर मुनाफा ज्यादा नहीं मिल रहा था। एक दिन उसने सोचा क्यों ना एक छोटी सी फैक्ट्री डाली जाए? मगर कौन सा काम? उसकी लागत बेचने के बारे में…सब कुछ…?
उसने सरपंच जी से सरकारी स्कीम के बारे में पूछा वहाँ से उसे बहुत मदद मिली। सबसे पहले उसने गाँव की औरतों को काम करने के लिए मनाया फिर अचार, पापड़, मुरब्बा, जैम, चटनी और भी खाने की चीजें बनवानी शुरू की। पहले थोड़ा फिर जब बिकने लगा तो और ज्यादा। मोबाइल ने बहुत मदद की। वहाँ पर अपने सामानों की फोटो डालती और घर तक पहुचाने के लिए भी लिखती। दुकानदारों से भी बात करके, सारे सामान बहुत टेस्टी और साफ सुथरी तरीके से बनवाने की जिम्मेदारी को खुद उठाया।
काम चल निकला। उसने काम पर सिर्फ औरतों को ही रखा था। काम बढ़ा तो दूसरे गाँव की औरतें भी जुड़ गईं। इन सब के बीच वक़्त निकाल कर वो उन सभी औरतों के बच्चों को फ्री में पढ़ाने लगी थी। यहीं से एक आइडिया आया जो उसके बचपन का शौक था, गाँव की लड़कियों के लिए स्कूल का, जो उसके गाँव तो क्या दो तीन गाँव में भी नहीं था। बाबा ने उसे पढ़ाने के लिए मासी के पास शहर भेज दिया था। मगर इसके बाद भी बाबा को कितना सुनना पड़ा था। अब तो सब ही उसकी बात मानने लगे थे तो क्यों ना शुरुआत अपने गाँव की लड़कियों शिक्षित करके किया जाए।
सब बहुत खुश थे। वो लडकियों के लिए प्रेणना बन गई थी। औरतें खुश थीं कि उसकी वजह से वो सब अपने पैरों पर खड़ी हैं और उनकी बेटियां भी पढ़ रहीं हैं।
यहाँ तक पहुँचने में उसे खुद को कितनी बार मारना पड़ा था। कई कई दिनों तक वह सोती नहीं थी। अपने बाबा के घर को गिरवी तक रखना पड़ा। अपनी बच्चियों को हफ्तों नहीं देख पाती थी। कभी कभी डर लगता अगर सब डूब गया तो? ना खाने का होश ना पहनने का।
सफलता ऐसे ही तो नहीं मिल जाती। उसके लिए कई बार खुद को मारना पड़ता है। अगर उस दिन उसने घर ना छोड़ा होता और वहीं पड़ी रहती तो शायद आज बेटे के इंतजार में और बेटियां पैदा कर लेती या फिर बेटा हो भी जाता तो क्या उसे वो मान सम्मान मिलता जैसे अभी मिल रहा था?
एक दिन महेश उसके सामने उसके आफिस में खड़े थे। वो बहुत हैरान होकर उन्हें देख रही थी। तभी माँ जी की आवाज पर वो चौकी, “अरे बिटिया! तुमने तो ऐसा घर छोड़ा की फिर पलट कर भी नहीं देखा कि वहाँ तुम्हारी बूढ़ी सास और पति है। हमें हमारे पोतियों से अलग कर दिया। कितना तड़पते हैं हम दोनों तुम सब के लिए। चलो घर चलो। हम तुम सबको लेने आए हैं। ऐसे कोई नाराज होता है? जो बात थी घर में बैठकर सुलझा लेती”, सासु माँ बोल रही थीं।
संगीता ने ऐसे ही सर उठा कर महेश की तरफ देखा वो अभी भी खामोश खड़ा था। जैसे पहले होता था, जब अम्मा उसे बुरा भला कहतीं और वो खामोश होकर तमाशा देखता। बिलकुल भी तो नहीं बदला था।
“मेरी बच्चियाँ कहाँ हैं?” अम्मा ने फिर पूछा।
“क्या बात है अम्मा? बड़ा प्यार आ रहा है बेटियों पर? ये वही बेटियां हैं जिसे आप लोग देखना भी नहीं चाहते थे। अब क्या हो गया? क्या पोता नहीं हुआ? क्या दूसरी बहू से या फिर कोई और बात है?”
“अरे नहीं बिटिया। हम तो…”, वो खामोश होकर फिर बोलने लगीं।
“उसने दो बेटियों के बाद एक बेटा दिया मगर बहुत तेज़ है हमसे ही सारा काम करवाती है खुद बैठी रहती है महारानी की तरह। बेटे को लेने ही नहीं देती और पता है महेश की नौकरी भी छूट गयी है। हम परेशान हैं। तुम्हारे पास आए हैं कि…”
“अच्छा! मतलब वो अच्छी नहीं है तो पुरानी बहु याद आ गयी? अरे जाइए आप लोग। आपको बहू नहीं उसका पैसा चाहिए। पोतियां तो आज भी आपको नहीं चाहिए। चाहिए तो उनके माँ का पैसा। ये तो कभी नहीं हो सकता। आप यहाँ से चली जाइए। साथ में इस काठ के उल्लू को भी ले जाइएगा। मेरी बेटियों के लिए उसकी माँ ही काफी है। इसके जैसे बाप होने से अच्छा है माँ ही पाल ले। जाइए अपने पोते को संभालिये। उसने बाहर की तरफ इशारा किया…”
“आज मुझे अंदर तक सुकून मिल गया है। इतने दिनों से जो मैं अंदर ही अंदर घुट रही थी, तुम्हें अपनी चौखट पर देखकर बहुत सुकून मिल रहा है…”
मूल चित्र : Canva Pro
Arshin Fatmia read more...
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