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प्रकाश झा की नयी फिल्म परीक्षा ने मुझे फिल्म निल बट्टे सन्नाटा की याद दिला दी!

कहानी प्रकाश झा की फिल्म परीक्षा की हो या कहानी निल बट्टे सन्नाटा की, दोनों की मुख्य बात यही है कि गुरबत में भी एक चिराग जलने से अंधेरा दूर हो सकता है।

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कहानी प्रकाश झा की फिल्म परीक्षा की हो या कहानी निल बट्टे सन्नाटा की, दोनों की मुख्य बात यही है कि गुरबत में भी एक चिराग जलने से अंधेरा दूर हो सकता है।

प्रकाश झा की फिल्म परीक्षा Zee5 पर रिलीज हुई है। यह फिल्म बेहद इमोशनल और सच्ची घटना पर आधारित कही जा रही है। फिल्म मुख्य रूप से यह संदेश देना चाहती है कि अगर आपके अंदर काबिलियत है तो फिर आपको आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता है। यह बात पहली भी फिल्मों के माध्यम से कही जा चुकी है और ‘निल बट्टे सनाट्टा’ में जिस तरह से कही गई थी दर्शकों को पसंद भी आई थी। पर इन दोनों कहानियों को कहने में एक बड़ा अंतर जेंडर का है।

प्रकाश झा की फिल्म परीक्षा की कहानी

प्रकाश झा की फ़िल्म परीक्षा की कहानी एक रिक्शा चालक बुच्ची पासवान से शुरू होती है। जो रांची शहर स्थित बहुजन बस्ती अंबेदकर नगर में अपनी पत्नी और बेटे के साथ रहता है। बुच्ची पासवान का बेटा बुलबुल पढ़ने में काफी तेज होता है, लेकिन सरकारी स्कूल में उसके पास ज्यादा कुछ करने को होता नहीं है। उसकी दिली ख्वाहिश है कि उसका बच्चा किसी अच्छे स्कूल में पढ़े। बुलबुल का अच्छे स्कूल में एडमिशन होता है, लेकिन उसकी स्कूल फीस जुटाने के चक्कर में कर्ज का बोझ बढ़ता है और मजबूरी में बुच्ची चोरी करने लगता है। उससे मिले पैसे से वह बुलबुल की स्कूल फीस चुकाता है और स्कूल प्रशासन को रिश्वत भी देता है कि उसके बेटे को परीक्षा में मदद की जाए।

थाने में जब पुलिसकर्मी उससे पूछताछ करते हैं तो वह इस डर से कुछ नहीं बोलता कि उसके बेटे की जिंदगी बर्बाद हो जाएगी।  बुलबुल का बोर्ड एग्जाम नजदीक होता है, आईपीएस कैलाश उसे पढ़ाने के साथ ही प्रोत्साहित भी करते हैं। पिता के चोरी करने की खबर पता चलते ही बुलबुल को स्कूल से निकालने तक की बात होने लगती है। आखिर में बुलबुल क्या बोर्ड एग्जाम में बैठ पाता है, बुच्ची को सजा मिलती है और आईपीएस कैलाश को तबादला मिलता है। यह फिल्म परीक्षा की कहानी है।

फिल्म निल बट्टे सन्नाटा की कहानी

आज से चार साल पहले इसी तरह की कहानी ‘निल बटे सन्नाटा’ में कही गई थी। बस कहानी को कहने वालों पात्रों का जेंडर बदल गया था। इस कहानी में चंदा सहाय जो दाई है चाहती है कि उनकी किशोर बेटी अपेक्षा पढ़-लिखकर कुछ बन जाए। पर अपेक्षा मानती है डाक्टर की संतान डाक्टर बनती है तो बाई की बेटी भी बाई ही बनेगी। चंदा के पैरों से जमीन हिल जाती है, लेकिन वह हिम्मत नहीं हारती है।

चंदा के गणित के डर को दूर करने के लिए स्कूल में उसकी कक्षा में दाखिला लेती है। चंदा खुद गणित सीखती है ताकि वह अपेक्षा को सीखा सके। शुरुआत में अपेक्षा बेहद नाराज रहती है आखिर में उसे अपनी गलती का अहसास होता है और वह पढ़ाई में मन लगाती है। अंत में गणित विषय से ही यूपीएससी का इंटरव्यू दे रही होती है। पूरी फिल्म में चंदा सहाय सरकारी स्कूल में अपनी बेटी के पढ़ाई को लेकर कही हतोत्साहित नहीं होती है।

फिल्मों का संदेश एक पर ट्रीटमेंट अलग

मैं यहां ‘निल बटे सन्नाटा’ का जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि एक ही तरह की पृष्ठभूमि की कहानी कहने में मुख्यपात्रों का जेंडर बदल जाने से कहानी के साथ का ट्रीटमेंट कितना बदल जाता है, इसपर ध्यान दिया जाना चाहिए।

बुच्ची पासवान अपने बेटे बुलबुल को पढ़ाने के लिए चोरी करने के हद तक चला जाता है और चदा सहाय अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए ओवरटाइम भी करती है और स्कूल में अपनी ही बेटी के क्लास में पढ़ाई तक करती है जिससे बेटी की मदद कर सके। वह बेटी को पढ़ाने के लिए चादर से बाहर पैर नहीं करती उसे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने का सपना तक नहीं देखती सरकारी स्कूल में बेटी के साथ पढ़ती भी है और अपने सपने को सच भी करती है।

इन दोनो ही कहानियों की मुख्यबात यही है कि चंदा सहाय हो या बुच्ची पासवान दोनों ही चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़ें । वह यह जानते है कि शिक्षा ही एक मात्र माध्यम है जो उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति बेहतर करके उनको गरीबी के दलदल से बाहर निकाल सकता है। साथ ही साथ प्रतिभाशाली छात्र ही किसी भी छात्र को सही दिशा-निर्देश मिले तो वह प्रतिभा और मेहनत को अपने लिए अवसर में बदल सकता है।

कहानी प्रकाश झा की फिल्म परीक्षा की हो या कहानी निल बट्टे सन्नाटा की, दोनों की मुख्य बात यही है कि गुरबत में भी एक चिराग जलने से अंधेरा दूर हो सकता है। आज हम नये शिक्षा नीति 2020 के दौर में प्रवेश करने वाले है, वहां यह कितना सही होगा इसका मूल्यांकन अभी बाकि है।

मूल चित्र : YouTube 

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