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प्रसिद्ध कथाकार, नाटककार और नारी समस्याओं को बेबाक अंदाज़ में प्रस्तुत करने वाली रशीद जहाँ, 5 अगस्त 1905 को उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ शहर में पैदा हुईं।
तारीख़ ने आज के अपने रोजनामचे में से कई लोगों का नाम इस कदर भुला दिया, जैसे वो कभी तारीख़ का हिस्सा भी न थे। पर यह बात तारीख़ को भी अच्छी तरह याद है कि जब वो थे तो उनकी मौजूदगी ने उस वक्त में खलबली मचा रखी थी।
रशीद जहाँ का होना ही कुछ तरक्की पसंद लोगों के लिए एक हौसला के जैसा था। इस्मत चुगताई उनके बारे में कहती हैं, “जिंदगी के उस दौर में मुझे एक तूफानी हस्ती से मिलने का मौका मिला, जिसके वजूद ने मुझे हिला कर रख दिया। मिट्टी की बनी इस हस्ती ने संगेमरमर के सारे बुतों को मुनहदिम(धवस्त) कर रखा था। अगर वो मेरी कहानियों की हेरोइनों से मिलें तो दोनों जुड़वां बहिनें नजर आएं, क्योंकि अनजाने तौर पर मैंने रशीद आपा को ही उठा कर अफसानों के ताकचों पर बिठा दिया है, क्योंकि मेरे तस्व्वुर की दुनिया सिर्फ वही हो सकती थी।”
रशीद जहाँ, जो 5 अगस्त 1905 को उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ शहर में मां वहीद शाहजहां बेगम और पिता शेख अब्दुल्लाह के घर पैदा हुई। उनके पिता अलीगढ़ के मशहूर शिक्षाविद, लेखक और अलीगढ़ में महिला कांलेज के संस्थापकों में एक थे। बाद में साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम करने के लिए भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
जाहिर है रशीद जहाँ के परिवार में तरक्कीपसंद महौल था, इसलिए रशीद को पढ़ने-लिखने का माहौल मिला। शुरुआती पढ़ाई अलीगढ़ से करने के बाद, लखनऊ के ईज़ा बेला थोबरोन कालेज से इंटर करने के बाद दिल्ली के लार्ड हार्डिग मेडिकल कांलेज से वर्ष 1934 में डाक्टर बनकर निकलीं। पढ़ाई खत्म करते ही उनकी शादी महमूदज़्ज़्फ़ के साथ हुई जो उर्दू के लेखक होने के साथ-साथ अमृतसर के इस्लामिया कांलेज में प्रिंसिपल थे।
आज से लगभग 90 साल पहले के लिए यह बात अकल्पनीय ही रही किन्तु है बिल्कुल सच। मर्दों की नजरों से बेपरवाह। खुले सिर और बाब कट बालों वाली पच्चीस छब्बीस की एक बेहद खूबसूरत युवती हाथ में आला और मरहम पट्टी व दवाइयों का थैला लिए कभी बड़ी-बड़ी हवेलियों की ओर तो कभी गंदी बस्तियों में जाने के लिए तेज-तेज क़दमों से सड़कों और गलियों में चलते हुए दिखाई पड़ती होगी।
परंतु, रशीद जहाँ अपनी स्वयं की पहचान अपनी डाक्टरी की पढ़ाई पूरी करने के पहले ही बना चुकी थीं। रशीद जहाँ जहां को पहले पिता और फिर पति के यहां साहित्यिक महौल मिला हुआ था। वह कलम भी चलाती थीं। अपने मुस्लिम समाज के सड़े -गले सामंती रिवाजों की धज्जियां उड़ाने वाली कहानियां और नाटक लिखती थीं और नाटकों का मंचन करती कराती थीं।
यह सच है कि अपनी डाक्टरी पेशे के कारण साहित्य कैरियर पर अधिक ध्यान नहीं दिया। परंतु, जितना लिखा ठोस लिखा। उनके साहित्य को पढ़ना मुस्लिम समाज में महिलाओं के सामाजिक ययार्थ को समझने जैसा है। उनकी कलम बीसवीं सदी के तीसरे और चौथे दशक में स्त्री तथा समाज के दूसरे शोषित उत्पीड़ित वर्ग के पक्ष में अधिक मुखर दिखती है। उनकी यही मुखरता रूढ़िवादियों कठमुल्लाओं तथा धर्म की आड़ में स्त्री देह के निरंकुश शोषण की छूट प्राप्त पितृसत्ता के उत्साही पक्षधरो को अपने विरोध में खड़ा कर देती है।
उनको पहली बार नोटिस किया गया 1932 में जब आठ लोगों की कहानियों और नाटकों का संग्रह ‘अंगारे’ प्रकाशित हुआ। इस संकलन के प्रकाशित होते ही तूफान आ गया, क्योंकि इसकी कहानियों और नाटकों में तत्कालीन समाज में प्रचलित मुस्लिम कट्टरपंथ तथा यौन नैतिकता को गहरी चुनौति दी गई थी। यह ब्रिटिश शासन द्वारा प्रतिबंधित भी हो गई। ‘अंधे की लाठी’, ‘अफतारी’, ‘आसिफजहां की बहू’, ‘चोर’, ‘छिद्दा की मां’, ‘दिल्ली की सैर'(कहानिया) और ‘पर्दे के पीछे’, ‘मर्द और औरत’ (नाटक) रशीद जहाँ की प्रमुख रचनाएं रही।
वे अपनी कलम के ताकत से समाज के स्वयंभू भाग्य निर्माताओं और सरकार को स्वयं के विरुद्ध आग बबूला कर देतीं। वह वासनात्मक साहित्य के प्रेरक फ्रायड के बजाय मानव मुक्ति के साहित्य के प्रेरक कार्ल मार्क्स एंगेल्स और लेनिन से प्रेरणा ग्रहण करती रही। किसी जलसे में रशीद जहाँ की मुलाकात फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से हुई और वे सक्रिय रूप से प्रगतिशील आंदोलनों से जुड़ गई। जब इप्टा संस्था के रूप में वजूद में आया तब उन्होंने उत्तरप्रदेश से इप्टा का प्रतिनिधित्व भी किया। बहुत कम लोगों को पता है कि प्रेमचंद के कालजयी कहानी कफन का पहला नाट्य रूपान्तर भी उन्होंने ही किया था।
आजादी के बाद कम्युनिस्ट पार्टी पर लगे प्रतिबंध के कारण अन्य नेताओं के साथ उन्हें भी बंदी बना लिया गया। जेल में अपनी मांगों के पक्ष में उन्होंने 16 दिनों का भूख हड़ताल भी किया। जिसकी वजह से उनका कैंसर रोग काफी खतरनाक हो गया। रफी अहमद किदवाई की कोशिशों से उन्हें इलाज के लिए मास्को भेजा गया, जहां 29 जुलाई 1952 को मात्र 47 साल की आयु में उनका निधन हो गया। रशिद जहां एक ऐसी अंगारा थी जो बुझ नहीं सकी, परंतु वक्त से साथ लोगों ने उनको भुला दिया।
पर उनका साहित्य उनको आज भी जिंदा रखे हुए है। फेमिनिस्ट प्रेस न्यूयार्क ने 1993 में और आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने 1995 में प्रकाशित भारतीय महिला रचनाकारों के वृहत संकलन में वूमेन राइटिंग इन इंडिया के खण्ड दो में रशीद जहाँ की ‘वह’ कहानी को बीसवी सदी की पहली कहानी माना है। जिसमें राशिद जहां की खामोश स्त्री पात्र की खामोशी ही उसका प्रतिरोध बनता है।
मूल चित्र : Google
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