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मैं घंटों यात्राओं के बाद ढ़ूँढ़ लाऊँगी गुलाब पर तुम उसे बस ना समझ लेना गुलाब, ये गुलाब प्रतीक है मेरे अन कहे समर्पण का और मैंने सजा लिए है कुछ ख़्वाब...
मैं घंटों यात्राओं के बाद ढ़ूँढ़ लाऊँगी गुलाब पर तुम उसे बस ना समझ लेना गुलाब, ये गुलाब प्रतीक है मेरे अन कहे समर्पण का और मैंने सजा लिए है कुछ ख़्वाब…
मैंने सजा लिए हैं कुछ ख़्वाब और माँग लायी हूँ कुछ धूप सूरज से उधार और चाँद से माँगा है उसकी शीतलता और रख लिया है एक सन्दूक में भर के की वक़्त पड़ने पर करुँगी इनका प्रयोग क्योंकि अभी बाकी है उन ख़्वाबों में चढ़ना रंग तुम्हारी मोहब्बत का और ढालना उसे हकीक़त की ज़मीन पर, पर फिर भी सजा लिए हैं मैंने कुछ ख़्वाब…
तुम भी कुछ ले आना सँभाल के रख लेगे उसी सन्दूक में भर के जो जीवन प्रयत्न भरा रहेगा हमारी मोहब्बत की खु़शबू से औऱ डालेंगे उसमें कुछ इत्र हैदराबादी और ले आयेगे कुछ रंग जयपुरी औऱ बिछायेंगे एक चादर और हम तुम ओढ़ लेगे उस चादर को जिसमें कभी जगह न होंगी नाराजगियों और रुसवाइयों की, बस होगा इश्क़ वो भी थोड़ा तुम्हारे और मेरे जैसा। मैंने सजा लिये है कुछ ख़्वाब…
तुम भी कुछ ख़्वाबों को सजाये बैठे होंगे ना, हाँ हो सकता है, मेरी जगह थोड़ी छोटी हो पर फिर भी दूँगी मैं तुम्हारा साथ भरने में रंग तुम्हारे उन ख़्वाबों में, मैं भर रही हूँ एक सन्दूक जो भरा रहेगा मोहब्बत के रंग से और हम करेगे उसका प्रयोग विरह की उन रातों में जब तुम शायद ना हो मेरे पास और तब मैं खोलूंगी उस सन्दूक को , जो भरा है कहीं ना कहीं तुम्हारी यादों से और लगा लूँगी सीने से तुम्हारे साथ गुजारे हर एक एहसास को जो कभी ना जफ्त हो मुझमें वो चलता रहेगा मेरी यादों में मेरी बढती उम्र के साथ और एक दिन शायद खो जाएगा वो मेरे साथ ही फिर भी मैंने सजा लिए है कुछ ख़्वाब…
मूल चित्र : Pexels
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