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क्यूंकि सब रिश्तों से बढ़ कर है हमारा ‘स्त्री’ होने का रिश्ता…

इस रस्साकशी में हम ये भूल जाते हैं कि कहीं न कहीं सभी स्त्रियां मायके और ससुराल के रिश्तों के बाहर एक और रिश्ता साझा करती हैं...

इस रस्साकशी में हम ये भूल जाते हैं कि कहीं न कहीं सभी स्त्रियां मायके और ससुराल के रिश्तों के बाहर एक और रिश्ता साझा करती हैं…

विवाह के बाद एक स्त्री ‘बहु’ बनकर स्वयं के वजूद को तलाशने और तराशने के लिए एक पराए घर को अपना घर बनाने में तन-मन-धन से जुट जाती है। इस नए घर में वह बड़े ही जतन से रिश्ते कमाती है, प्रेम कमाती है, सम्मान कमाती है, धन कमाती है, पहचान कमाती है!

और जिस दिन वह पराया घर उसे पूरी तरह से आत्मसात कर उसके वर्चस्व के समक्ष नतमस्तक हो जाता है और उसे स्वयं को भी पूरी तरह से अपना लगने लगता है, वह चैन की साँस लेते हुए मन ही मन अपनी इस जीत पर मुस्कुराती हुई एक आखिरी फाईनल टचअप के साथ ही अपने सपनों के इस घर पर सम्मोहित हो कर बस अपलक निहार ही रही होती है कि तभी अचानक एक और स्त्री बिल्कुल उसी की फोटोकापी सी, उसके इसी घर में अपना वजूद तराशने और तलाशने उसके जीवन में आ जाती है और इसे भी ‘बहु’ कहा जाता है और तब उसी क्षण ये बरसों पुरानी ‘बहु’ एक ‘सास’ का दर्जा हासिल कर लेती है।

अब शुरु होती है फिर से वही रस्साकशी, जिसमें इसबार वो रस्से के उस छोर पर होती है जहां तब उसकी स्वयं की सास खड़ी थी। और उसके वाले सिरे को नवागंतुक बहु आ थाम लेती है। और इस प्रकार फिर से दो स्त्रियों के बीच अपने वर्चस्व को सिद्ध करने की इस होड़ में पूरा घर इन दोनों की इसी रस्साकशी का मुख्य बिंदु बन जाता है जिसके एक छोर पर सास बनी स्त्री और दूसर छोर पर बहु बनी स्त्री होती है।

सच पूछो तो दो स्त्रियों के वर्चस्व की यह लड़ाई कभी समाप्त नहीं होती। जो भी एक पक्ष इसमें विजयी होने का दावा करता है उसे दूसरी पारी में पाला बदलना पड़ता है। निरंतर पाला बदलती स्त्रियों को हासिल असल में कुछ नहीं होता।

अपने वजूद को इन बेजुबान घरों में तलाशती स्त्रियां यदि एक दूसरे के वजूद को प्रेम, सामंजस्य और सम्मानपूर्वक पूर्ण करने के लिए एकदूसरे के प्रति संवेदनशीलता रखते हुए एकदूजे के सुख, दुख, दर्द और खुशियां साझा करने लग जाएं तो शायद सास-बहु के बीच चल रही घर के दो छोरों पर से चल रही यह रस्साकशी वाली दुविधा सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाए।

स्त्रियों को अपने वर्चस्व को सिद्ध करने की यह लड़ाई दो छोरों से नहीं बल्कि एक ही छोर पर आकर एक दूसरे का हाथ पकड़े हर हाल में एक दूसरे का साथ देते हुए लड़नी होगी, क्योंकि दूसरे सिरे पर ऐसी कई चुनौतियां हैं जो इन्हें इसी रस्साकशी में उलझाए रखकर इन दोनों ही स्त्रियों पर अपनी सत्ता कायम रखे हुए हैं!

स्त्रियों, अपने हाथ को हाथ दो और संपूर्ण स्त्री जाति का वर्चस्व सिद्ध करो! क्योंकि कहीं न कहीं सभी स्त्रियां मायके और ससुराल के रिश्तों के बाहर एक और रिश्ता साझा करती हैं और वो है एक ‘स्त्री’ होकर मिले दर्द का रिश्ता!

मूल चित्र : Canva Pro 

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