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खुद को आगे रख ले जब भी, संस्कार हीन वह कहलाती है! जब भी स्वाभिमान से जीती है, हर स्त्री थोड़ा सा मर्द बन जाती है।
इस पुरूषवादी समाज के लिए, एक असहनीय दर्द बन जाती है! जब भी स्वाभिमान से जीती है, हर स्त्री थोड़ा सा मर्द बन जाती है।
मर्यादा और लाज को ओढे, वह अपने माथे पर जब तक, रहे सराहनीय इस समाज के, हर इक मानक पर तब तक।
जब भी खुद को स्वतंत्र करे वह, खुद को आलोचित ही पाती है! जब भी स्वाभिमान से जीती है, हर स्त्री थोड़ा सा मर्द बन जाती है।
त्याग समर्पण सब जाने वह, अपनी इच्छाओं को भी मारे, दृढ़ निश्चय से हर दर्द जो जीते, वह अपने ही हर रिश्ते से हारे।
मूल चित्र : Pexels
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