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एक और स्वतंत्रता दिवस की बधाई, लेकिन अभी भी हमारी सबसे बड़ी बंदिश है, 'औरत होने की बंदिश!' आज भी कुछ ऐसा ही मानना है इस 'आधी आबादी' का...
एक और स्वतंत्रता दिवस की बधाई, लेकिन अभी भी हमारी सबसे बड़ी बंदिश है, ‘औरत होने की बंदिश!’ आज भी कुछ ऐसा ही मानना है इस ‘आधी आबादी’ का…
शनिवार, 15 अगस्त, 2020 को जब पूरा भारत स्वतंत्रता दिवस की 74 वीं वर्षगांठ मन रहा होगा तो उसकी लगभग ‘आधी आबादी’ सिर्फ फ़र्ज़ी स्वतंत्रता दिवस मना रही होगी। इनमें से कईयों को ये भी नहीं पता होगा कि देश तो आज़ाद है लेकिन उनकी आज़ादी अभी भी समाज द्वारा तय की गयी बंदिशों की बेड़ियों में जकड़ी हुयी है।
इस आधी आबादी की बात करें तो इसमें मुख्यत: हम औरतें ही हैं। यदि आप भी स्वतंत्र भारत में पैदा हुयी हैं तो आप ये बखूबी समझती हैं कि ‘औरतों को आज़ादी’ अभी सही मायनों में मिली ही नहीं है। स्वतंत्रता दिवस की 74 वीं वर्षगांठ मानते हुए भी, आज भी कितनी बंदिशों में भारतीय औरतें सांस ले रही हैं। ये हमसे बेहतर कौन जान पायेगा?
और अगर आप ये सोच रहे हैं कि यहां हम दूसरों पर पूरी तरह से निर्भर औरतों की बात कर रहे हैं, तो जागिये! ये सच्चाई कहीं न कहीं उन ‘आत्मनिर्भर’ औरतों की भी है जिनके जैसा बनने के लिए हम अपनी बेटियों को प्रेरित करते हैं।
और इस प्रश्न के पूछते ही जैसे कमैंट्स की बाढ़ सी आ गयी। हो भी क्यों ना, क्यूँकि कोई भी इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ सकता कि आज़ाद भारत की आज़ादी सिर्फ पितृसत्ता के चाहने वालों के लिए है। फिर भले ही इस पितृसत्ता के पहरेदार खुद कितने ही बड़े गुलाम हों, दूसरों द्वारा तय गयी बंदिशों के।
‘कुछ कमैंट्स’ को चुन कर ये पोस्ट बनाना बिलकुल भी आसान नहीं था। लेकिन हमनें एक छोटी सी कोशिश की कि कुछ ऐसे कमैंट्स आपसे साझा करें जो औरतों की वर्तमान बंदिशों को ललकारते हैं।
“औरत होने की बंदिश…हम लोग कितना भी आगे बढ़ जाए, 21 वीं सदी से 22 वीं सदी में चले जाएँ, कुछ बातें कभी नहीं बदलने वाली। उन में से एक है, औरतों के प्रति समाज का नजरिया। औरत कितना भी आगे बढ़े, कितनी भी पढ़ी-लिखी हो, उसकी पहचान कहीं ना कहीं पति से, परिवार से जुड़ी होती है। ऐसा होना गलत नहीं है। पर इतने के बवाजूद उसकी मेहनत, काम से ज्यादा बस घर को रखने से देखी जाती है।
हम आज के ज़माने में जहां बराबरी की बात तो करते हैं, पर वो बराबरी का दर्जा दे नहीं पाते। अगर कोई औरत आपने काम पर ज्यादा जोर देती है, अपनी अंबिशन, अपने सपने को पूरा करना चाहती है, तो ये समाज घर की जिम्मेदारियों से उसके पैर जकड़ देता है। आगे तो बढ़ने देता है, पर अपने सीमित सोच के अनुसार।
औरत अब घर भी संभालती है, आफिस भी, बच्चे भी, पति भी ये सब उसकी जिम्मेदारियां हैं। सच में बस उसकी! कैसे घर परिवार तो दो लोगों से चलता है, बल्कि परिवार तो घर के हर सदस्य से चलता है, तो फिर सारी जिम्मेदारियां बस औरत की कैसे? समय के साथ औरत के अधिकारों में बदलाव आया है पर समाज के नजरिए में नहीं। आज के समय में कितनी ही औरतें घर और बाहर को संभालने के लिए जी जान लगा देती हैं। उनकी मेहनत का उनको क्या सिला मिलता है? आज भी जब ये सब बातें होती हैं, तब बराबरी वाली बातें बेमानी हो जाती हैं।”
समाज का यह नजरिया ही औरतों को बांध देता है। किसी भी रिश्ते को निभाने की जिम्मेदारी दोनों की है। एक दूसरे के काम को समझना होगा, सपनों को समझना होगा, एक दूसरे को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना होगा परिवार की जिम्मेदारियों को बांटना होगा।
हम औरतें तो अष्ट भुजाओं वाली होती हैं। घर के साथ-साथ बाहर की जिम्मेदारी निभाकर अपने सपने को पूरा कर सकती हैं क्योंकि सबका मानना है कि हम औरतें ही समय आने पर लक्ष्मी बन जाती हैं, दुर्गा बन जाती है और काली भी। बदले में बस अपने सपनों को पूरा करना चाहते हैं उनको पूरा करने में परिवार का सहयोग चाहते हैं।
बाहर काम करती हो तो क्या? पहले घर परिवार की जिम्मेदारी औरतों को ही उठानी पड़ेगी। यही सोच सबसे बड़ी वजह है जो आज भी कहीं ना कहीं औरतों की बंदिश बनी हुई है।”
“पुरूष प्रधान समाज से आजादी, उनकी सोच से आजादी, अबला बनने से आजादी। हम बंदिशों के साये में जी रहे हैं। बंदिशों की बेड़ियों में जकड़े हुये हैं हम। हमें अपनी बेड़ियों को तोड़ना होगा, ‘कितनी गिरहें खोलीं तुमने, कितनी गिरहें बाकी हैं(गुलज़ार)’ ”
“क्या-क्या बताएंगे हम? औरतों के लिए तो बंधनों की कमी नहीं है। औरतों को तो यहां देवी समझा जाता है, पर सिर्फ नाम के लिए। मैं तो कहती हूं पहले लोग इंसान ही समझ लें, वो ही बहुत है। और कृपया करके चैन, सुकून और आज़ादी से जीने दे हमें।”
“पति मारता है तो सह लो! सहना तो औरतों को पड़ता है! सुनाता है? सुन लो! पति शराब पिता है? सुधारो! दूसरी औरत है? कमी तुम में ही होगी! बाहर जाना नहीं पसन्द है, मत जाओ! ये कपड़े नहीं पसंद, मत पहनो! मतलब कि खुद को खत्म कर दो, लेकिन शादी निभाओ! शादी दो लोगों के बीच बन्धन है लेकिन आज भी उसे निभाने की जिम्मेदारी सिर्फ महिलाओं पर है।“
“घर से मुक्ति, पितृसत्तात्मक से मुक्ति, औरतों को आजादी थोड़ा बहुत जो मिला है वो तकनीकी युग ने दिया है। मशीनी युग ने दिया है। पर समाज की मानसिकता वही दकियानूसी के किनारे किनारे चक्कर लगा रही है। मान्यताओं में अब भी कैद है औरत, विज्ञान की ओर जैसे बढ़ेगी, अपने को इन बंदिशों से आजाद महसूस करेगी।”
“गावों में आज भी औरत की कोई पहचान नहीं है, पहले पति से मार पिटाई, फिर बेटे से, लेकिन फिर भी वो औरत तीज और जितिया करना नहीं छोड़ती। हद तो तब होती जब पति मर जाए और बेटा-बहू ये पूछते हैं कि क्या किया है तुमने आज तक? तब जा के वो औरत सोचती है कि सच में मैंने क्या किया है? ना जमीन इसके नाम होती है और ना ही उसने हर दिन घर परिवार संभालने की औसतन मजदूरी ली होती है। शायद इस सोच से गांव की औरतों को आजाद होना चाहिए।”
“हमारे पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की स्थिति में कुछ खास बदलाव नहीं आया है। इन्हें बाहर-भीतर प्रताड़ित और अपमानित किया जाता है। इनके सपने आज भी पिता से पति की देहरी तक सीमित रह जाते हैं। जन्म देने का अधिकार रखने वाली महिला को ये अधिकार नहीं होता कि बच्चे कब और कितने होंगे। इससे ज्यादा दुखद क्या होगा?
गलती किसी एक की नहीं बल्कि समाज की छोटी मानसिकता की है। महिलाओं को इसी खराब मानसिकता के कारण बहुत कुछ झेलना पड़ता है। अतः ये आवश्यक है कि महिलाओं को समाज की रूढ़िवादी मानसिकता नामक बंदिशों से मुक्ति मिले। तभी महिलाएं सम्मान की जिंदगी जी पाएंगी।
कोमल हैं कमजोर नहीं, शक्ति का नाम ही नारी है जग को जीवन देने वाली मौत भी तुझसे हारी है!”
“मेरे विचार से तो आजाद भारत मे महिलाओं को अपना निर्णय लेने का अधिकार मिलना चाहिये क्योंकि महिलाएं जो सोचती हैं, वैसा कभी परिवार तो कभी समाज होने नहीं देता। तो हर महिला को अपने तरीके से जीने का अधिकार और आजादी मिलनी चाहिए…”
“नर-नारी की तुलना से आजा़दी! बेटियो की ही माँ हो, इस ताने से आजा़दी! ये तुमने क्या पहना है-इस प्रश्न से आजा़दी! बेवक्त आने पर संदेहास्पद निगाहों से आजा़दी!
क्या कभी इस समाज़ में मिल सकती है इन बंदिशो से आजा़दी?”
“जब समाज में मान्यताएँ ही बेकार हों, तो केवल पुरुषों को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है। इसके लिए उन ग्रंथों को जलाया जाना चाहिए जिनमें स्त्रियों के खिलाफ जहरीले ज्ञान दिये गये हैं।”
“हमारी ‘ना को ना’ और हमारी ‘हां को हां’ समझा जाए। किसी भी तर्क और किसी भी आधार पर हमें गिल्टी फील करवाने से आज़ादी।”
“सबसे महत्वपूर्ण है अपने विचारों, अपने सुझावों को अभिव्यक्त कर पाने की आजादी। अपनी सीमाएं स्वयं तय करने की आजादी। अगर ये चरितार्थ हो जाए तो अन्य सभी मुद्दों से सम्बंधित आजादी गौण है।”
“एक औरत को जन्म से ही ऐसे संस्कार दिये जाते हैं जिससे वो हमेशा के लिए एक पुरूष पर ही निर्भर हो जाती हैं। जीवन भर वह कभी पिता, कभी भाई, पति पुत्र पर ही निर्भर रहती हैं। परन्तु सब से बड़ी यह बात है कि वो आत्मनिर्भर होकर भी आत्मनिर्भर नहीं कहलाती। हमारा समाज एक पुरूष प्रधान समाज है ओर यही यहां की नारी की विडम्बना।”
“समानता के लिये आज भी औरतें लड़तीं हैं, क्यूँकि उन्हें आज भी पुरुषों के समान नहीं माना जाता है!”
“आज भी औरतें मांग रही हैं आजादी बेटियों को जन्म देने की और उसके जन्म पर भी जश्न मनाने की मन माफिक शिक्षा प्राप्त करने और कैरियर बनाकर अपने पैरों पर खड़े होने की अपने पैसों को अपने इच्छानुसार खर्च करने की जीवनसाथी चुनने की एवं खुद की जिंदगी से जुड़ी तमाम मसलों पर निर्णय लेने की अपने सपनों को पूरा करने की किसी मुद्दे पर बेबाक राय रखने की और समाज में पुरुषों के बराबर सम्मान पाने की अपने ऊपर होने वाले शोषण, अत्याचार, दमन का प्रतिरोध करने और उससे मुक्ति पाने की आजादी।”
“औरत को पहले इन्सान समझा जाय , देवी या लक्ष्मी बाद में… समान अधिकार है उसका भी… ये मानसिकता पता नहीं कब होगी… धीरे-धीरे हो तो रहा है, पर गति अभी भी नगण्य ही है!”
“हमें जिन्दगी काट लेने का नहीं…हमें जिन्दगी जीने का अधिकार चाहिए।”
“स्त्री और बंदिश…एक दूसरे के पर्यायवाची हैं! कुछ मायनों में हम और आप इसे कम भले ही कर दे, लेकिन खत्म कभी नहीं कर सकते।”
इस स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं देते हुए ये भी सोचिये, कि इस एक सवाल, “किन बंदिशों से औरतें मांग रही हैं आज़ादी?” का जवाब और इसको दूर करने की मांग कितनी ही सदियों से चली आ रही है!
अगर आप हम औरतों की आवाज़ पढ़ रहे हैं तो समझ सकते हैं कि कहीं न कहीं हम सब, इस स्वतंत्रता दिवस की वर्षगांठ पर भी, अपनी मर्ज़ी से जीने की आज़ादी मांग रहे हैं और मांग रहे हैं एक ऐसी ज़िंदगी जो किसी भी प्रकार के डर से दूर, हमें आत्मनिर्भरता और सम्मान से जीने का हक़ दे…सिर्फ हमारे लिए तय की गयीं सभी बंदिशों को तोड़ कर!
अंत में बस यही, सही मायनों में तो जन्मदाता और पालनहार, ज़्यादातर दोनों की भूमिका निभाने वाली, पितृसत्ता की बनायी इस ‘देवी’ को ही अगर अपना अधिकार और सम्मान नहीं मिलेगा, तो वो दिन दूर नहीं जब ‘बाकी आबादी’ को इस ‘आधी आबादी’ की रौद्र शक्ति का सामना करना पड़ेगा !
स्वतंत्रता दिवस की आप सबको हार्दिक शुभकामाएं!
मूल चित्र : Canva Pro
Editor at Women’s Web, Designer, Counselor & Art Therapy Practitioner. read more...
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