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बेपरवाह सा बचपन, जो बच्चों से खो रहा है। ये देख के पिता भी, बच्चों सा रो रहा है। ये मजदूर ही है दोस्तों! जो इतना मजबूर हो रहा है!
आँखें हैं पथराई हुई, आँसूओं के बीज बो रहा है। कैसे वो बेबसी की चादर में, लिपटा सो रहा है? ये मजदूर ही है दोस्तों! जो इतना मजबूर हो रहा है।
पैरों में है छाले पड़े, हिम्मत में दर्द भर रहा है। टूटे ना हौसला, इतना जतन कर रहा है। ये मजदूर ही है दोस्तों! जो इतना मजबूर हो रहा है।
भूख की चिंता से भी, मुँह अपना मोड़ रहा है। एक निवाले की भूख थी, उसका भी दम तोड़ रहा है। ये मजदूर ही है दोस्तों! जो इतना मजबूर हो रहा है।
एक घर की चाहत में, कितनी ईटें वो ढो रहा है। आज बिखरी झोपड़ी के तिनके, संजो रहा है। ये मजदूर ही है दोस्तों! जो इतना मजबूर हो रहा है।
सियासत की शतरंज का प्यादा, जो बन रहा है। जिसकी बिसात पे, बेमौत ही मर रहा है। ये मजदूर ही है दोस्तों! जो इतना मजबूर हो रहा है।
बेपरवाह सा बचपन, जो बच्चों से खो रहा है। ये देख के पिता भी, बच्चों सा रो रहा है। ये मजदूर ही है दोस्तों! जो इतना मजबूर हो रहा है।
मूल चित्र: Canva
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