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शहरीकरण के इस दौर में शहरी बनने की होड़ में मैंने और सुधांशु ने अपने बच्चों को अपनी भाषा की विरासत ना दे कर एक विदेशी भाषा का आकर्षण दिया था।
“कुछ ओ कह आपन भोजपुरी बोले में जौन आनंद बा उ आनंद कहीं थोड़े बा।” बाबूजी आज बड़े दिनों बाद प्रफुल्लित थे, जब से यहां आए थे बुझ से गए थे। बच्चों और सुधांशु को अंग्रेजी में बातें करते देख चुप हो जाया करते और मुझसे बहू वाला लिहाज था, तो थोड़ा कम ही बोलते। मैं समझ नहीं पा रही थी कि आखिर बाबूजी हमारे घर में सामान्य क्यों नहीं महसूस कर पा रहे हैं।
एक दिन यूं ही बाबूजी के साथ सब्ज़ी खरीदने गई, वहां बाबूजी के कोई दोस्त मिल गए और अपने दोस्त से भोजपुरी में बात कर बाबूजी ऐसे खुश थे जैसे किसी रूठे बच्चे को उसका खोया खिलौना मिल गया हो।
आज मैं बाबूजी की समस्या समझ गई थी और यह सोचने को मजबूर हो गई थी कि अपनी भाषा से लगाव क्या होता है। शायद शहरीकरण के इस दौर में शहरी बनने की होड़ में मैंने और सुधांशु ने अपने बच्चों को अपनी भाषा की विरासत ना दे कर एक विदेशी भाषा का आकर्षण दिया था।
भाषा अच्छी और बुरी नहीं होती, बल्कि अपनी मातृ भाषा को ना जान किसी विदेशी भाषा को अपनी जीवनशैली में शामिल करना मेरे बच्चों को बाबूजी रूपी बरगद की छांव से वंचित कर गया और बाऊजी को उनके फूलों से।
मूल चित्र : Photo Abstract from Getty Images via Canva Pro
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