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पिताजी के कमरे में गए तो एक जीर्ण शीर्ण काया बिस्तर पर पड़ी थी। एक समय के रौबदार व्यक्तित्व के मालिक अपने पिता को इस तरह असहाय देख बिलख उठी सुधा।
सुधा का एक पाँव ससुराल तो एक मायके में था, वो तो विनय का सहयोग था जो ससुराल की ज़िम्मेदारी के साथ साथ एक बेटी का भी फर्ज़ निभा पा रही थी।
रोज़ ईश्वर को धन्यवाद देती की उसे विनय जैसे इंसान की पत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। विनय के नाम का सिंदूर अपने मांग में भर्ती तो खुद अपने भाग्य पे इतरा उठती सुधा।
विनय से सुधा की मुलाक़ात भी कम रोचक नहीं थी। अपनी सहेली की शादी में “मेरे हाथों में नौ नौ चूड़िया है”, पर थिरकती सुधा को जब विनय ने पहली बार देखा तो बस देखता ही रह गया और पहली नज़र में दिल दे बैठा।
नागिन सी लहराती सुधा पहली नज़र में ही विनय के दिल में बस गई। पूरी शादी छुप छुप के सुधा को देखता रहा था विनय। सुधा की सहेली के भाई का दोस्त था विनय पढ़ा लिखा, गबरू जवान, छः फुट लम्बा, स्वभाव ऐसा की कोई अजनबी एक पल में दोस्त बन जाए। शहर के नामी बिजनेसमैन का बेटा रूपये पैसे इज़्ज़त किसी बात की कोई कमी नहीं थी।
शादी में विनय की हरकतों को सुधा भी नोट कर रही थी। फिर ये उम्र ही ऐसी थी की किसी की नज़रों में खुद के लिए आकर्षण देखना दिल में गुदगुदी कर दे। उस पर विनय का व्यक्तित्व भी ऐसा की कोई भी लड़की उस पर आकर्षित हो जाए।
विनय की तरह ही सुधा का भी हाल था। विनय के घर पर उसके माता पिता एक छोटी बहन और दादी थी। विनय ने सुधा के बारे में जब घर पर बताया तो पहले पहल तो सब हिचक रहे थे, क्योंकि “विनय राजपूत तो सुधा कट्टर ब्राह्मण परिवार से थी।
जहाँ विनय के घर रोज़ नॉनवेज बनता वही सुधा के घर प्याज़ लहसुन भी नहीं आता था। विनय की माँ और दादी ने विनय को समझाया “देख बेटा, मुझे नहीं लगता की सुधा के परिवार वाले मानेंगे।”
दादी की बात सुन विनय ने कहा, “क्या दादी दुनिया चाँद पे पहुंच गई और आप क्या जात पात पर अटके हो।”
“हम नहीं अटके बेटा तू जल्दी भाग रहा रहा है रहना तो इसी समाज में है। इस रिश्ते से हमें तो कोई परेशानी नहीं होंगी पर सुधा के परिवार का मुझे नहीं मालूम?” माँ ने थोड़ा नाराज़ हो कर कहा तो विनय लगा अपनी माँ को मनाने…
“मेरी अच्छी माँ एक बार बात तो करो आप उन लोगो से।”
विनय के बहुत कहने पर विनय के माता पिता (दीनानाथ जी और रमा जी) सुधा के घर रिश्ता लेकर गए और हुआ वही जिसका अंदेशा था रमा जी को।
सुधा के पिता जी नाराज़ हो गए और इस रिश्ते से साफ साफ मना कर दिया। अपमानित हो दीनानाथ जी और रमा जी वापस आ गए।
प्यार के पंछी समाज के रोके कब रुके थे जो इस बार रुकते। विनय और सुधा ने परिवार के विरोध के बाद भी मंदिर में शादी कर ली और आशीर्वाद लेने दोनों सुधा के घर के दरवाज़े पर खड़े हो गए।
सुधा के पिताजी पंडित गिरधारी जी ने देखा तो कांप गए गुस्से में। सुधा और विनय को बहुत अपमानित कर बाहर निकल दिया। सुधा ने बहुत मिन्नतें की, सुधा के माँ, भाई के लाख मनुहार करने पर भी पंडित जी नहीं माने। पत्नी और बेटे को अपनी कसम दे चुप करा दिया। सुधा के लिए उस घर के रास्ते हमेशा के लिए बंद हो गए थे। मायका हमेशा के लिए छूट गया था इस ग़म में रोती बिलखती सुधा को रमा जी ने अपने आंचल में समेट लिया।
इतना प्यार मिला ससुराल से की मायके का ग़म इन ख़ुशियाँ ने ढक दिया। विनय जैसा पति पा सुधा निहाल हो जाती। समय के साथ घर के आंगन में बच्चों की रौनक भी हो गई दोनों बार ख़बर की गई सुधा के मायके पर कोई जवाब नहीं आया तो मन मसोस के रह गई सुधा।
एक शाम विनय शॉप से आये तो थोड़े परेशान दिखे। “क्या बात है विनय? आप परेशान दिख रहे है। आज बच्चों के साथ खेला भी नहीं तबियत तो ठीक है ना?”
सुधा को पास बिठा विनय ने कहाँ, “आज नीरज आया था शॉप पर।”
“कौन नीरज भैया! कहाँ मिले आपको”, अपने भाई की ख़बर सुन सुधा बच्चों सी चहक उठी।
“क्या कहाँ उन्होंने माँ पिताजी कैसे है बताओ ना विनय?” भाई की ख़बर सुन उत्साहित सुधा ने एक सांस में सारे सवाल कर दिए। सुधा को बच्चों सा उत्साहित देख विनय मुस्कुरा दिया।
“पिताजी की तबियत ठीक नहीं है सुधा, उन्हें पैरालिसिस का अटैक आया था। पिछले छः महीने से बिस्तर पर है। नीरज की पत्नी अलग रहने की ज़िद में रोज़ लड़ाई करती माँ से, घर की शांति के लिए नीरज ने अलग कमरा ले लिया है। माँ पिताजी अकेले रह गए है। नीरज कह रहा था अपनी पत्नी से मजबूर है वो मुझसे अनुरोध कर रहा था की हम माँ पिताजी को देखने जाए। मुझे लगता है तुम्हें जाना चाहिए सुधा।”
अपने जन्म दाता की ऐसी हालत की ख़बर सुन सुधा का कलेजा कांप गया, रुंधे गले से विनय से पूछा “आप इजाज़त दे तो मैंने जाऊँ।”
“कैसी बात करती हो सुधा वो तुम्हारे माता पिता हैं। उनकी सेवा करना जितना नीरज का फर्ज़ है उठना ही तुम्हारा भी है। बीती बातों को भूल जाओ सुधा बेटी का फर्ज़ निभाओ।”
अगले दिन सुबह सुबह सुधा को ले कर विनय अपने ससुराल पंहुचा। मायके की वो गलियाँ, वो चौक के पास खड़ा पीपल का पेड़ सब तो वैसे ही ज्यों का त्यों थे जैसे वो भी सुधा का ही रास्ता देख रहे थे।
जब एक लंबी सी गाड़ी पंडित जी के घर के सामने खड़ी हुए तो कौतुहल से पास पड़ोसी जमा हो गए सुधा को देख सब बहुत ख़ुश हुए।
माँ गाड़ी की आवाज़ सुन भागी आयी। एक बारी तो अपने आँखों पे विश्वास ही नहीं हुआ भाग के आरती की थाल ले आयी। पहली बार दामाद और बेटी जो घर आए थे।
एक माँ का ह्रदय तो कब से अपनी लाडली के लिए तरस रहा था। बेटे बहु से मोह भंग होने के बाद पंडित जी को भी अपनी गलती का पूरा आभास था लेकिन किस मुँह से बेटी को बुलाते। माँ के गले लग सुधा के सालों से रुका करुणा का ऐसा वेग फूटा की पूरे मुहल्ले की आंखे भींग गई।
पिताजी के कमरे में गए तो एक जीर्ण शीर्ण काया बिस्तर पर पड़ी थी। एक समय के रौबदार व्यक्तित्व के मालिक अपने पिता को इस तरह असहाय देख बिलख उठी सुधा। दामाद को देख एक हाथ आशीर्वाद में उठा दिया पंडित जी ने।
“माँ अब आप बिलकुल चिंता ना करें, पिताजी का इलाज हम करवाएंगे”, विनय ने कहा।
“जब तक पिताजी बिलकुल स्वस्थ नहीं हो जाते मैं रोज़ आउंगी माँ।”
“बेटी दामाद से इस प्रकार मदद लेना उचित नहीं होगा दामाद जी।”
“नितिन और मेरे में कोई अंतर है क्या माँ”, जब विनय ने सुधा की माँ से कहा तो अपने दामाद और बेटी के निश्छल प्रेम देख सुधा के माँ की आँखों में आँसू आ गए।
“बस माँ अब एक बार भी आप रोयेंगी नहीं, आप तो अपने नाती नातिन को खिलाने की तैयारी करें”, विनय ने कहा तो सब मुस्कुरा दिए। आज सबके दिलो का मैल धूल चुके थे।
मूल चित्र : Screenshot, Film Thappad
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