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देखो बहु तुम ‘संजीवनी बूटी’ ले कर ही ससुराल आना…

कितना मुश्किल है अपने बेटे को अपनी बहु की सेवा करते देखना और कितना अच्छा लगता है अपने दामाद को अपनी बेटी की सेवा करते देखना। है ना?

कितना मुश्किल है अपने बेटे को अपनी बहु की सेवा करते देखना और कितना अच्छा लगता है अपने दामाद को अपनी बेटी की सेवा करते देखना। है ना?

विभा पिछले कई सालों से परेशान थी अपनी कमर के दर्द से और सांस की बीमारी (अस्थमा) ने नाक में दम किया हुआ था। घरेलू इलाज या इनहेलर छोटा मोटा सहारा दे दिया करते लेकिन मौसम के बदलते ही हालत खराब होने लगती।

बात इन्हीं दिनों की है। पतिदेव के घर से ही ऑफिस होने से और बच्चों के ऑनलाइन क्लास होने से उसे किसी भी तरह का आराम नहीं था। सबका समय एक दूसरे से मेल खाता और आसपास ही था। डिजिटल दुनिया में सबको ‘म्यूट’ रखना सबसे बड़ी चुनौती है। बच्चों के साथ साथ उसकी भी क्लास लगी रहती।

सारा काम जल्दी जल्दी ख़त्म कर विभा भी बच्चों की क्लास के लिए तैयार हो जाती और फिर दिन भर घर का काम भी करती। खुद पर ध्यान ना देने के कारण कब छोटी लगने वाली बीमारी बड़ी बन गयी पता ही नहीं चला। पहले कोरोना की महामारी के चलते उसने अस्पताल जाने से आनाकानी की लेकिन जब पानी सर के ऊपर चला गया तो अस्पताल जाकर डॉक्टर को दिखाना ही पड़ा। विभा के बीमार होते ही घर की सारी व्यवस्था हिल गयी।

विभा के पति ने माँ को बुला लिया ताकि थोड़ी मदद भी हो जाए और विभा का ख्याल भी रखा जा सके। सासू माँ ने काम तो संभाल लिया लेकिन बच्चों को पढ़ाना और क्लास में बिठाना उनके बस का नहीं था। थोड़े ही दिन में परेशान होकर वो झल्लाने लगीं। उनकी बातों में कुढ़न थी जो विभा की बीमारी को लेकर थी।

“मेरे बेटे के भाग्य में ही क्यूँ ऐसी बीमार पत्नी?”

“बेचारे बच्चे कितना एडजस्ट करते हैं माँ की बीमारी में!”

“औरत ही अपना ध्यान नहीं रखेगी तो घर का ध्यान कौन रखेगा?”

“शादी से पहले ही होगा अस्थमा, हमें ना बताया होगा!”

विभा मन ही मन दु:खी होती लेकिन बच्चों की तरफ़ देखकर चुप रहती। वो बच्चों के सामने किसी तरह का कलेश नहीं चाहती थी। सासु-माँ के बिना कुछ सोचे समझे बोलने के स्वभाव से वो अच्छी तरह वाक़िफ़ थी।

जैसे तैसे कुछ दिन निकले और विभा के स्वस्थ्य में सुधार आने लगा। थोड़ी सी ठीक होते ही सासु -माँ अपने घर चल दीं।

थोड़े महीनों बाद, एक दिन जब सासू-माँ से फ़ोन पर बात हो रही थी तो पता चला दीदी (ननद) को कान में कोई बीमारी हो गयी है, साथ ही पेट में अलसर हुआ है जिसकी वजह से उनकी तबियत काफ़ी खराब है।

सासू माँ के सुर कुछ ऐसे थे…

“बच्ची मेरी कितनी परेशान हो रही है…”

“ऊपर से सास भी ताने दे रही है!”

“भला कोई बीमारी में भी इस तरह से बर्ताव करता है?”

“कोई ध्यान रखने वाला नहीं है, बस जंवाई जी ही देखभाल करते हैं…”

विभा सिर्फ़ इतना ही कह सकी, “सच है माँ जी, भला कोई बीमारी में भी इस तरह से कैसे बर्ताव कर सकता है?” और उसने फ़ोन रख दिया।

फ़ोन के दोनों तरफ़ सन्नाटा था। विभा को पराएपन का एहसास करवाने वाला सन्नाटा और सासू माँ को आत्मग्लानि का। कुछ महीनों पहले बिलकुल ऐसी ही परिस्थिति में अपनी बहु पर जो कटाक्ष किये आज वो अपनी बेटी पर होते देख शायद उन्हें उसके दर्द का एहसास हुआ होगा या शायद नहीं क्योंकि कितना मुश्किल है हमारे समाज में बहु को बेटी की जगह रखकर देखना।

कितना मुश्किल है अपने बेटे को अपनी बहु की सेवा करते देखना और कितना अच्छा लगता है अपने दामाद को अपनी बेटी की सेवा करते देखना। है ना?

कितना मुश्किल है उस रूढ़ीवाद से निकलना कि बहुएं सिर्फ़ घर संभालने के लिए होती हैं, उन्हें बीमार होने का हक़ नहीं, अपेक्षा करना कि वो कोई संजीवनी बूटी लेकर उनके घर में आएं और चिरकाल तक स्वस्थ रहें। ऐसी मशीन बन कर रहे जिसे ना कभी किसी मरम्मत की ज़रूरत हो ना सार संभाल की। लगातार बिना किसी मांग के बस अपने घर के लिए समर्पण करती रहे।

फूलों सी पली वो कब जिम्मेदारियों से लदी वटवृक्ष बन जाती है उसका एहसास उसे खुद नहीं होता। छाँव देना उसका ध्येय हो जाता है लेकिन अगर वो वृक्ष सूखने लगे तो आँगन में बोझ सा लगने लगता है। उसकी देखभाल करना थोपी हुई ज़िम्मेदारी लगने लगती है। कितना मुश्किल हो जाता है उसे पोषण (प्यार और देखभाल) देना। क्या सच में इतना मुश्किल है ‘पराई लड़की’ को अपना बनाना?

मूल चित्र : Canva Pro 

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Shweta Vyas

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